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पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धान्त | Principles of Curriculum Construction in Hindi
पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धान्त | Principles of Curriculum Construction in Hindi
पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धान्त | Principles of Curriculum Construction in Hindi
पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धान्त | Principles of Curriculum Construction in Hindi

पाठ्यचर्या निर्माण (CURRICULUM CONSTRUCTION)

शिक्षा एक उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है। पाठ्यचर्या, शिक्षा के उद्देश्यों को पूर्ण करने का एक व्यवस्थित तथा क्रमबद्ध माध्यम है। पाठ्यचर्या के भी कुछ उद्देश्य होते हैं तथा ये उद्देश्य मूल्यों पर आधारित होते हैं। पाठ्यचर्या में अनुभव, गुणवत्ता, हितग्राही ज्ञान, मूल्यों, सामाजिकता तथा नागरिकता के गुणों को सम्मिलित किया जाता है। पाठ्यचर्या निर्माण करते समय पाठ्यचर्या निर्माणकर्ता को कई विशेष बातों पर ध्यान देना होता है। इन्हीं बातों के अंतर्गत सामाजिक प्रकृति, व्यवस्था, उसके क्षेत्र आदि का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक हो जाता है। पाठ्यचर्या निर्माण के लिए सामाजिक अभिवृत्तियों, सम्भावित क्रियाओं आदि की सम्भावना का ज्ञान भी आवश्यक है। सामाजिक परिवर्तन भी पाठ्यचर्या के विकास के लिए आवश्यक तत्त्व है। पाठ्यचर्या निर्माण के कुछ नियम तथा सिद्धान्त होते हैं। शिक्षा व्यक्तिगत न होकर वैश्विक प्रक्रिया है अर्थात् समाज में उपस्थित विभिन्नताओं को मद्देनजर रखते हुए पाठ्यचर्या का निर्माण किया जाता है जिससे कि देश की आवश्यकताओं के लिए अच्छे व्यक्तित्त्वों का निर्माण हो सके।

पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धान्त (Principles of Curriculum Construction)

पाठ्यचर्या निर्माण में विभिन्न प्रवृत्तियों, विधियों, अभिक्रियाओं आदि के आधार पर कुछ सिद्धान्तों की उत्पत्ति हुई है। पाठ्यचर्या निर्माण में सिद्धान्त शिक्षा की आवश्यकताओं तथा लक्ष्यों की पूर्ति करते हैं। ये सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

1) शिक्षा के लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक- पाठ्यचर्या, शिक्षा प्राप्त करने का एक साधन एवं माध्यम है। पाठ्यचर्या निर्माण करते समय यह अति आवश्यक एवं विचारणीय पक्ष है जिसके विषय में शिक्षा के पूर्व निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु अनुशसा की गयी है। पाठ्यचर्या में ऐसे विषयों, प्रकरणों, अभिक्रियाओं को स्थान देना चाहिए जो शिक्षा के लक्ष्यों के अनुरूप तथा अनुकूल हो। आधुनिक युग में शिक्षा के नवीन लक्ष्यों का प्रतिपादन किया गया है, जैसे- व्यक्ति के सर्वांगीण विकास हेतु जीवन के प्रत्येक पक्ष को सम्मिलित किया गया है। साथ ही साथ, व्यवसाय, भाषा आदि को भी हितकारी बनाया गया है। अतः पाठ्यचर्या निर्माण के समय विशेषज्ञों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि पाठ्यचर्या में सदैव ऐसी पाठ्य-वस्तु तथा विषयों का संकलन एवं संगठन हो जिनके उपयोग से शिक्षा के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके।

2) बाल केन्द्रियता का सिद्धान्त- पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय छात्र को केन्द्र में रखकर विषय-वस्तुओं का पाठ्यचर्या हेतु चयन किया जाए। इसके अनुसार पाठ्यचर्या, बालकों की अभिरुचि, आवश्यकता, योग्यता, बौद्धिक एवं शारीरिक क्षमता, आयु के अनुरूप निर्मित किया जाना चाहिए। विशेष आवश्यकता वाले बालकों के लिए भिन्न पाठ्यचर्या का निर्माण करना चाहिए। पाठ्यचर्या का नियोजन विभिन्न वर्गों अथवा श्रेणियों में विभाजित कर किया जाना चाहिए। इसमें ऐसे विषयों तथा व्यावहारिक विषयों को सम्मिलित करना चाहिए जिसमें छात्रों की पूर्ण सहभागिता हो तथा अभिक्रियाओं को चयन करने का प्रयास एवं अनुभव छात्रों को प्राप्त हो। उन्हें इससे जो वास्तविक ज्ञान उपलब्ध होगा वह स्वयं के लिए नए द्वार खोलेगा। उनके भविष्य को एक स्थायित्व प्रदान करेगा।

3) उपादेयता का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि शिक्षा की पाठ्यचर्या ऐसी हो जो बालकों के जीवन में उपयोगी बने। छात्रों के भावी जीवन के स्वरूप को निश्चित करना आवश्यक होता है तथा इस कार्य के लिए शिक्षा उत्तरदायी होती है। अतः जीवन के स्वरूप को निश्चित करने में पाठ्यचर्या एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कारक है। बालकों के जीवन में उपयोगी ज्ञान को बालक तक पहुँचाना ही शिक्षा का लक्ष्य होता है। इससे बालकों में देशप्रेम की भावना, आदर्शों के अनुकरण, मूल्यों की शिक्षा, मातृभाषा का महत्त्व, सामाजिकता, नागरिकता, सामाजिक क्रियाओं आदि की शिक्षा पाठ्यचर्या के माध्यम से प्रदान की जाती है। पाठ्यचर्या में सर्वाधिक उपयोगी पाठ्यवस्तु तथा प्रकरणों को प्राथमिकता के आधार पर स्थान मिलना अति आवश्यक है।

4) छात्रों में व्यक्तिगत विभिन्नता का सिद्धान्त- वर्तमान में प्रमाणिक रूप से यह सिद्ध हो चुका है कि प्रत्येक बालक एक-दूसरे से भिन्न होता है। बालक में उसके गुण, रुचियाँ, क्षमताएँ, योग्यताएँ आदि भी एक-दूसरे से भिन्न होती हैं। प्रत्येक बालक में अभिवृत्तियाँ भी अलग-अलग होती हैं। अतः पाठ्यचर्या भी हर बालक के अनुसार होना आवश्यक है। वर्तमान पाठ्यचर्या का सम्प्रत्यय प्रत्येक बालक के मनोविज्ञान को विचार करके ही निर्मित किया गया है। पाठ्यचर्या में ऐसे विषयों तथा पाठ्य-वस्तुओं का समावेश किया गया है जिससे प्रत्येक बालक की आवश्यकताएँ पूर्ण होना सम्भव हो सके। पाठ्यचर्या व्यक्तिगत भिन्नता के आधार पर बनाने हेतु उसमें विविधता का ध्यान रखना चाहिए। इसमें शिक्षकों के भी आवश्यक सुझावों को उचित महत्त्व मिलना चाहिए। इन सुझावों तथा अनुशंसाओं के आधार पर पाठ्यचर्या में आवश्यक प्रकरणों तथा विषयों को सम्मिलित किया जाना चाहिए।

5) सृजनात्मकता एवं अभिक्रिया का सिद्धान्त- छात्रों में सृजनात्मक अभिवृत्ति होना वाभाविक है जिसका उपयोग तथा दोहन होना अति आवश्यक है अन्यथा ऐसी प्रवृत्तियों का समय के साथ दमन हो जाता है तथा छात्र सामान्य ही रहता है। अतः छात्रों में निहित सृजनात्मक क्षमता का विकास करने के लिए पाठ्यचर्या में ऐसे अवसर उपलब्ध कराए जाए जिससे छात्र-छात्राओं में सृजनात्मकता का अधिक से अधिक उपयोग हो सके। बालकों में लुप्त अभिक्रियाओं एवं सृजन शक्ति को बाहर निकालने हेतु प्रोत्साहन अति उत्तम साधन है। बालकों को नई अभिक्रियाओं हेतु उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए जिसके लिए उन्हें सामान्य निर्देशन की आवश्यकता होती है तथा उसके अनुसार उनको उचित मार्ग प्रशस्त करना चाहिए जिससे उनकी सृजनात्मक क्षमता, विशिष्ट गुणों के साथ प्रकट हो सके।

6) मनोवैज्ञानिकता का सिद्धान्त- मनोवैज्ञानिकता के सिद्धान्त से यहाँ तात्पर्य है कि बालकों के मनोविज्ञान को समझना आवश्यक है। बालकों के मनोविज्ञान को समझ कर उनके व्यवहार के विषय में जानकारी प्राप्त करके, पाठ्यचर्या निर्माण प्रारम्भ करना चाहिए। इसके लिए अभिभावकों एवं शिक्षकों से एवं स्वयं छात्रों से उनकी आवश्यकताओं तथा अधिगम में आने वाली समस्याओं को ज्ञात किया जा सकता है। इस प्रकार प्रचलित पाठ्यचर्या में प्रश्नावली, समाजमीति, निरीक्षण, साक्षात्कार, मौखिक परीक्षण, लिखित परीक्षण आदि द्वारा उपयुक्त आँकड़े प्राप्त करके औचित्यपूर्णता के साथ उपयोगी सुधार किए जा सकते हैं जिनका लाभ छात्रों तथा शिक्षकों को प्राप्त होगा।

7) भविष्य में उपयोगिता का सिद्धान्त- पाठ्यचर्या में केवल उन्हीं विषयों एवं प्रकरणों को ही सम्मिलित करना चाहिए जो बालकों के भविष्य हेतु उपयोगी मार्ग प्रशस्त करें। बालकों के सफल जीवनयापन के लिए व्यवसायिक स्थायित्व होना अति आवश्यक है, इस स्थायित्व को बनाए रखने हेतु पाठ्यचर्या, शिक्षा का बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंग है। अतः पाठ्यचर्या ऐसा हो जिससे बालक अपने भावी जीवन में अनुकूलन तथा समायोजन करना सीखे तथा उसमें ऐसी अभिवृत्तियाँ विकसित हो ताकि वह स्वयं व परिवार तथा देश के लिए एक उदाहरण बन सके। वर्तमान परिस्थितियों को समझने में सक्षम बने एवं परिस्थिति जन्य या अन्य कारण से उत्पन्न होने वाली समस्याओं के समाधान को करने में सक्षम हो सके। इस प्रकार की योग्यता बालक में पाठ्यचर्या के विषयों का अध्ययन करके स्वतः ही विकसित होगी।

8) संस्कृति के प्रसार का सिद्धान्त- एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ज्ञान, अनुभव, तकनीकी, इतिहास, सांस्कृतिक तत्त्व, सभ्यता, भाषाएँ आदि को हस्तान्तरित करने का मुख्य साधन शिक्षा ही है एवं शिक्षा यह कार्य पाठ्यचर्या के माध्यम से पूर्ण करती है। पाठ्यचर्या निर्माण के समय इन बातों को स्पष्ट दृष्टिगत किया जाना चाहिए कि उसमें ऐसे विषयों को स्थान दिया जाए जो कि बालकों तक हमारी संस्कृति एवं सभ्यता का पहुँचाएं जिससे हमारी संस्कृति एवं सभ्यता का संरक्षण एवं विस्तार होगा। आज के युग के छात्र हमारे प्राचीनकाल से परिचित हो सकेंगे तथा अपनी संस्कृति एवं सभ्यता पर गौरवान्वित होंगे। भविष्य में भी संस्कृति एवं सभ्यता को संरक्षित करने का प्रयास करेंगे।

9) विकास का सिद्धान्त- पाठ्यचर्या निर्माण का सिद्धान्त विकास पर आधारित होता है। प्रत्येक देश की शिक्षा पर उसकी सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। यह समयानुसार परिवर्तित भी होती रहती है। इस प्रकार सदैव एक ही प्रकार की पाठ्यचर्या उपयोगी नहीं रहती है। पाठ्यचर्या निर्माण एक सतत् परिवर्तनशील प्रक्रिया है। इसमें निरन्तरता तभी बनी रहती है जब समाज में आवश्यक परिवर्तन होते रहते हैं अतः पाठ्यचर्या के विकास के लिए इन परिवर्तनों की जानकारी होना अति आवश्यक है। इसमें सतत् एवं निरन्तरता रखने से पाठ्यचर्या समाज के समक्ष नवीन स्वरूप में आता रहेगा अन्यथा यह उपयोगी नहीं रह जायेगा तथा इसमें नीरसता आ जाएगी एवं पाठ्यचर्या के विषय शिक्षकों एवं छात्रों के लिए बोझिल हो जाएंगे।

10) सामाजिकता का सिद्धान्त- पाठ्यचर्या के निर्माण के समय पाठ्यचर्या निर्माताओं एवं विशेषज्ञों को सामाजिक परिस्थितियों एवं स्थानीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखना चाहिए। वे सभी मान्यताओं, आदर्शों, समस्याओं एवं आवश्यकताओं को पाठ्यचर्या में स्थान दे। सामाजिकता के सिद्धान्त के सन्दर्भ में कोठारी आयोग, मुदालियर आयोग, राष्ट्रीय शिक्षा नीति, नई शिक्षा नीति की सदैव ही सकारात्मक संस्तुति हमारे समक्ष उपस्थित है। उपरोक्त सभी आयोगों एवं शिक्षा नीतियों की अनुशंसा से पाठ्यचर्या में कई उचित सुधार किए गए हैं। माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार, “पाठ्यचर्या सामुदायिक जीवन के सजीव एवं अनिवार्य अंग के रूप में सम्बन्धित होना चाहिए।”

According to Secondary Education Commission Report, “Curriculum must be vitally and organically related to community life.”

11) अनुभवों पर आधारित सिद्धान्त- शिक्षा जगत के अतिरिक्त भी अन्य क्षेत्रों के व्यक्तियों के अनुभव अति मूल्यवान होते हैं। इसी प्रकार पाठ्यचर्या के विषय में मनुष्यों के अनुभवों का विश्लेषण आवश्यक है अथवा यह कहा जाना चाहिए कि पाठ्यचर्या में अनुभवों को स्थान मिलना आवश्यक है। आधुनिक समय में परम्परागत विषयों की महत्ता कम हुयी है क्योंकि इनका स्थान नवीन, विषयों ने ले लिया है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उन विषयों के महत्त्व को विस्मृत कर दिया जाए। विद्यालय की क्रियाएँ, व्यावहारिकताएं, प्रयोगशालाएं, पुस्तकालयों, छात्रों, अभिभावकों, शिक्षकों के साथ औपचारिक एवं अनौपचारिक सम्बन्ध बनाए रखना एवं उनके अनुभवों को पाठ्यचर्या में स्थान देना चाहिए जिससे कि भविष्य के छात्रों को आवश्यक सूचनाएँ प्राप्त हो सके।

12) मूल्य आधारित सिद्धान्त- छात्रों के उत्तम जीवन के लिए मूल्य आधारित शिक्षा उपलब्ध कराना अति आवश्यक है। बालक के जीवन को सफल, व्यवहार कुशल, सामाजिक, आदर्श बनाने के लिए मूल्य आधारित प्रकरणों एवं विषयों को पाठ्यचर्या में सम्मिलित किया जाना चाहिए एवं पाठ्यचर्या में ऐतिहासिक चरित्रों, ऐतिहासिक घटनाओं, परोपकार की कहानियाँ, राष्ट्रीयता की शिक्षा आदि का समावेश करना चाहिए। पाठ्यचर्या में नैतिक शिक्षा को भी अनिवार्य किया जाना चाहिए।

13) नागरिकता का सिद्धान्त- शिक्षा का सर्वोत्तम लक्ष्य अच्छे नागरिकों का निर्माण होता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति पाठ्यचर्या के माध्यम से ही सम्भव है। अतः पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय विशेषज्ञों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि पाठ्यचर्या में ऐसी पाठ्यवस्तु एवं विषयों को सम्मिलित किया जाए जिससे बालकों में नागरिक कुशलता की भावना का विकास हो सके। नागरिक कुशलता से तात्पर्य यह है कि बालक नागरिकों के अधिकारों एवं कर्त्तव्यों को समझ सके एवं अपने गाँव, नगर एवं स्थानीय वातावरण को उत्कृष्ट बनाने में सहयोग करे। इस प्रकार छात्र उत्तम नागरिक बनेंगे।

14) जनतन्त्र पर आधारित सिद्धान्त- आधुनिक समय में हमारे देश में लोकतन्त्रीय व्यवस्था प्रचलित है। इस प्रणाली को और सुदृढ़ बनाने के लिए छात्रों में जनतन्त्रीय भावना का संचार करना अति आवश्यक है। यह उद्देश्य शिक्षा के माध्यम से पूर्ण होता है अतः पाठ्यचर्या में ऐसे विषयों को रखा जाए जिससे यह भावना विकसित हो। इसके लिए सबसे उपयुक्त स्थान विद्यालय के अतिरिक्त दूसरा नहीं हो सकता है। विद्यालय से सम्बद्ध प्रत्येक अभिक्रिया में जनतन्त्रीय भाव होना चाहिए, चाहे वह अध्ययन हो या अध्यापन हो। इस प्रक्रिया में शिक्षकों तथा अभिभावकों का भी योगदान होना चाहिए।

अतः उपरोक्त सिद्धान्तों द्वारा यह कहा जा सकता है कि शिक्षा में इन बातों को यदि दृष्टिगत रखकर पाठ्यचर्या का निर्माण किया जाए तो बालक का सर्वांगीण विकास भी होता है एवं शिक्षा के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सरलता हो जाती है। उपरोक्त सिद्धान्त शिक्षा में व्यावहारिक है जिन्हें लागू करने से शैक्षिक समस्याओं के समाधान में सहायता मिलती है। इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर पाठ्यचर्या का निर्माण किया जाता है। पाठ्यचर्या का निर्माण के पदों का वर्णन आगे किया जा रहा है।

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पाठ्यचर्या का चयन | Selection of Curriculum in Hindi
पाठ्यचर्या का चयन | Selection of Curriculum in Hindi
पाठ्यचर्या का चयन | Selection of Curriculum in Hindi
पाठ्यचर्या का चयन | Selection of Curriculum in Hindi

पाठ्यचर्या का चयन (Selection of Curriculum)

पाठ्यचर्या का चयन शिक्षा का महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। पाठ्यचर्या के अन्तर्गत ऐसी पाठ्यवस्तु का निर्धारण किया जाए जिससे पाठ्यचर्या का विकास हो सके। पाठ्यचर्या का स्वरूप पाठ्यवस्तु तथा विषय के चयन को निर्धारित करता है। किसी भी पाठ्यचर्या की विषयवस्तु के चयन के तीन स्तर होते हैं-

प्रथम स्तर

इस स्तर का सम्बन्ध विषयवस्तु के क्षेत्र से होता है जिसके अन्तर्गत विषयवस्तु के मानदण्ड तथा अपनी सीमाओं के साथ पाठ्यचर्या में सम्मिलित की जाती है।

द्वितीय स्तर

यह स्तर तथ्यों तथा प्रत्ययों से सम्बन्धित होता है। इसमें पाठ्यचर्या में आवश्यक पाठ्यवस्तु में सम्मिलित तथ्यों तथा प्रत्ययों के विकास पर ध्यान दिया जाता है। अर्थात् इसमें उपयोगी तथा आवश्यक तथ्य तथा प्रत्ययों को ही स्थान देकर उसके लिए उपयुक्त शिक्षण सामग्री तथा विधियों को रखा जाता है।

तृतीय स्तर

यह स्तर सबसे महत्त्वपूर्ण होता है। इसमें सहायक शिक्षण सामग्री तथा शिक्षण विधियों का विश्लेषण तथा सरल व्याख्या की जाती है जिससे यह ज्ञात होता है कि ये शिक्षण सामग्रियाँ तथा विधियाँ छात्रों के लिए कितनी उपयोगी सिद्ध होती हैं।

पाठ्यचर्या तथा उसकी विषयवस्तु के चयन के उपरोक्त स्तर होते हैं किन्तु इसमें कुछ आधारों को भी जोड़ा गया है। वे आधार निम्नलिखित हैं-

  1. मानव मस्तिष्क की क्षमता के अनुसार चयन।
  2. बालकों की आवश्यकताओं के अनुसार चयन।
  3. बालकों की समस्याओं के अनुसार चयन।
  4. बालकों के लिए उपयोगिता के स्तर के अनुसार चयन।
  5. शैक्षिक उद्देश्य के आधार पर चयन।
  6. समय तथा परिस्थितियों के अनुसार चयन।
  7. आधुनिकता व जागरूकता के आधार पर चयन।
  8. पाश्चात्य देशों की शिक्षा के प्रभाव के आधार पर चयन।
  9. शिक्षण विधियों, छात्रों की रुचियों, क्षमताओं तथा योग्यता के स्तर के अनुसार चयन।
  10. सृजनात्मकता के आधार पर चयन।

चयन की परिस्थितियों में उपरोक्त तत्त्वों को आधार बनाया गया है। यह आज की बात ही नहीं, बल्कि प्राचीन काल से ही अन्तरविषयों का निर्धारण उपरोक्त में से कुछ तत्त्वों के आधार पर किया जाता रहा है। यद्यपि इस क्षेत्र तथा दिशा में अनेक विधिवत् प्रयास किए जाने लगे हैं।

अमेरिका में आधुनिक काल के प्रारम्भ से ही इस दिशा में उपयोगी कार्य हुआ है। इन प्रयासों का विद्यालयी गतिविधियों पर व्यापक प्रभाव पड़ा। संयुक्त राज्य अमेरिका की शैक्षिक संस्था “नेशनल एजूकेशन एसोसिएशन” (NEA) (राष्ट्रीय शैक्षिक संगठन) की पाठ्यचर्या समिति ने पाठ्यचर्या की अर्न्तवस्तु के अतिरिक्त शिक्षण विधियों, विद्यालय प्रबन्धन, शिक्षण संस्थाओं का स्वरूप, ढाँचा, शिक्षा में अवरोधक तत्त्वों के समाधान आदि की व्याख्या की है। वर्तमान समय या आधुनिक काल में सामाजिक रूप से बालकों को ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जो बालकों में कुशलता, ज्ञान, नागरिकता के गुण, देशभक्ति के भाव, सृजनात्मकता, नैतिकता, चारित्रिक गुण, व्यक्तित्व का विकास, आर्थिक विकास आदि में अधिक से अधिक वृद्धि कर सके। अतः छात्रों हेतु पाठ्यचर्या में अच्छी विषयवस्तु का चयन किया जाना चाहिए जिससे छात्रों की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।

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पाठ्यचर्या चयन में प्रमुख समस्याएँ | Main Problems in Curriculum Selection in Hindi
पाठ्यचर्या चयन में प्रमुख समस्याएँ | Main Problems in Curriculum Selection in Hindi
पाठ्यचर्या चयन में प्रमुख समस्याएँ | Main Problems in Curriculum Selection in Hindi
पाठ्यचर्या चयन में प्रमुख समस्याएँ | Main Problems in Curriculum Selection in Hindi

पाठ्यचर्या चयन में प्रमुख समस्याएँ (Main Problems in Curriculum Selection)

शिक्षा की प्रक्रिया अनवरत चलाने हेतु कई तत्त्वों की आवश्यकता होती है। जैसे सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व पाठ्यचर्या चयन या उनकी अन्तर्वस्तु का चयन जिसका उपरोक्त विवरण दिया गया है। किन्तु पाठ्यचर्या चयन में आने वाली कुछ समस्याएँ होती हैं। उन समस्याओं पर विचार किया जाता है। विचार-विमर्श में कुछ प्रश्न उपस्थित हुए जो कि एक समस्या का रूप धारण करते हैं वे समस्याएँ अथवा वे प्रश्न निम्नलिखित हैं-

1) पाठ्यवस्तु के चयन की सांस्कृतिक उपयोगिता कितनी है?

2) कुछ तत्त्व सदैव उपयोगी नही रहते हैं। अतः उन्हें पाठ्यचर्या में सम्मिलित करना कितना सार्थक है?

3) हमेशा पाठ्यवस्तु उपयोगी नहीं होती सिर्फ उनका आधार छात्रों की रुचियों तक ही सीमित रहता है।

4) प्रायः सामाजिक समस्याओं को पाठ्यवस्तु के माध्यम से पाठ्यचर्या में सम्मिलित नहीं किया जा सकता इसका कारण यह है कि नित्य नयी समस्याएँ उपस्थित होती हैं।

5) विषय वस्तुओं में आपस में सामन्जस्य नहीं बैठ पाता है।

6) विषय वस्तु से छात्रों की प्रकृति का पता नहीं चल पाता है। अतः पाठ्यचर्या चयन में समस्या आती है।

7) छात्रों हेतु वर्तमान आवश्यकताएँ व समस्याएँ तथा भावी आवश्यकताओं व समस्याओं को समझना कठिन कार्य है।

8) छात्रों के लिए पाठ्यवस्तु की कितनी उपयोगिता है, यह अनुभव सरल नहीं है।

9) विषय से सम्बन्धित कठिनाइयाँ आती हैं क्योंकि प्रत्येक विषय पाठ्यचर्या में आवश्यक होने पर भी उन्हें पाठ्यचर्या में स्थान देना सम्भव नहीं होता है।

10) व्यक्तिगत भिन्नताओं के कारण पाठ्यचर्या में विषयवस्तु में चयन की समस्या आती है।

अतः उपरोक्त समस्याएँ पाठ्यचर्या चयन में आती हैं जिसकी व्याख्या निम्नलिखित हैं-

1) छात्रों की प्रकृति सदैव अलग-अलग होती हैं। छात्रों की क्षमता, रुचियाँ, पारिवारिक स्थिति, आर्थिक स्थिति भिन्न-भिन्न होती है। एक बार पाठ्यचर्या निर्माण हो जाता है तो वह कई वर्षों के लिए उपयोगी होता है किन्तु इतने वर्षों में बालकों की प्रकृति बदलती रहती है। इस परिवर्तन की गति अति तीव्र होती है। अतः यह समस्या महत्त्वपूर्ण समस्या है।

2) छात्रों की वर्तमान आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जा सकता है किन्तु भविष्य की आवश्यकताओं के विषय में स्पष्टता नहीं होती है। इसी प्रकार वर्तमान समस्याओं का समाधान पाठ्यचर्या के माध्यम से कुछ सीमा तक हो सकता है किन्तु भविष्य में छात्रों की समस्याएँ कितनी बड़ी, किस स्तर की होंगी, यह कहना बहुत ही कठिन कार्य है। सामाजिक परिवर्तन एवं आर्थिक, सामाजिक उन्नति के परिणामस्वरूप आवश्यकताएँ तथा समस्याओं में भी परिवर्तन आता है। इस कारण विभिन्न सामाजिक विषयों का अध्ययन, विश्लेषण तथा नए अनुसंधानों की आवश्यकता अनुभव की जा रही है।

3) प्रत्येक व्यक्तियों की कुछ विशेषताएँ होती हैं। यदि विशेषताएँ व्यक्तियों की भिन्नताएँ भी होती हैं। इसी प्रकार प्रत्येक छात्र की अलग-अलग रुचियाँ, आदतें, आवश्यकताएँ, क्षमताएँ, योग्यताएँ होती हैं। इस प्रकार पाठ्यचर्या निर्माण समिति के सदस्यों तथा शिक्षाविदों के लिए यह समस्या का विषय रहा है क्योंकि पाठ्यचर्या तो सभी के लिए समान ही बनाई जाती है। अतः यह एक व्यापक समस्या है।

4) जनतन्त्र की शिक्षा देना भी शिक्षा का आवश्यक अंग है। पाठ्यचर्या निर्माण के समय जनतन्त्रीय समाज व नागरिकता के गुणों की शिक्षा देना आवश्यक है। यद्यपि पाठ्यवस्तु में चयन के समय कठिनाइयाँ भी आती हैं।

5) भारत एक बहुत उन्नत देश नहीं है। इसके कई कारण हैं, शिक्षा में कमी, गरीबी, जनसंख्या में वृद्धि, जागरूकता में कमी आदि। इस समस्या का समाधान करने के लिए कई उपायों की आवश्यकता है। इसके लिए पाठ्यचर्या में विज्ञान, आधुनिक विषयों, तकनीकी आदि को महत्त्वपूर्ण स्थान देना आवश्यक है। ऐसे में पाठ्यचर्या निर्माताओं तथा शिक्षाविदों के बीच में संतुलन बनाए रखना एक समस्या है।

6) शिक्षा में प्रत्येक स्तर पर शिक्षण आवश्यक है क्योंकि हर स्तर पर बालक का विकास अलग-अलग होता है। प्राथमिक, माध्यमिक तथा उच्च स्तर पर शिक्षण प्रक्रिया भी अलग-अलग होती है। इनकी ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता भी अलग-अलग होती है। इस प्रकार पाठ्यचर्या चयन में अलग-अलग स्तर पर पाठ्यवस्तु रखना कठिन है। विभिन्न स्तरों पर एक ही उद्देश्यों की पूर्ति करना समस्या ही है।

7) ज्ञान की विशालता तथा असीमितता के कारण छोटी सी अन्तर्वस्तु का चयन करने की समस्या अति विकट है। प्रत्येक विषय की अपनी विशेषता होती है। इसी कारण पाठ्यचर्या निर्माता सीमा में बंध जाता है। इतनी अधिक सामग्री होने के कारण वह दुविधा में रहता है कि किस तत्त्व को पाठ्यचर्या में सम्मिलित किया जाए व किस को नहीं।

8) पाठ्यचर्या निर्माताओं को पाठ्यवस्तु की उपयोगिता की जानकारी होने के कारण भी यह समस्या आती हैं। कई बार इससे जुड़े विवादों के कारण उसे इन तत्त्वों को पाठ्यचर्या में रखने में समस्या आती है।

अतः पाठ्यचर्या निर्माण करने वाले सदस्यों को उपर्युक्त समस्याओं का सामना करना पड़ता था।

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ज्ञान की प्रकृति एंव उद्देश्य | Nature of Knowledge in Hindi
ज्ञान की प्रकृति एंव उद्देश्य | Nature of Knowledge in Hindi
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ज्ञान की प्रकृति एंव उद्देश्य | Nature of Knowledge in Hindi

ज्ञान की प्रकृति (Nature of Knowledge)

विद्यालय में ज्ञान की प्रकृति की जानकारी होना भी अत्यन्त आवश्यक है। ज्ञान की प्रकृति को दो रूपों में व्यक्त किया जा सकता है-

1) ज्ञान एक साध्य के रूप में (Knowledge as a Doable) – ज्ञान को एक साध्य के रूप में तब प्रकट किया जाता है जब-

i) ज्ञान एक उद्देश्य के रूप में परिभाषित किया गया हो जिसे प्राप्त करना हमारा उद्देश्य हो, जैसे-कई प्रत्ययों का अर्थ, परिभाषा, विशेषता, गुण, दोष एवं सीमाएँ आदि।

ii) ज्ञान का परीक्षण किया जाना हो अर्थात् परीक्षा में सफल होने के लिए ज्ञान का संग्रहण ।

iii) ज्ञान को एक सिद्धान्त के रूप में लिया जाए, जैसे-शिक्षा का सिद्धान्त तथा समाजवाद का सिद्धान्त आदि।
ज्ञान एक साध्य के रूप में वह ज्ञान होता है जिसे हमें प्राप्त करना होता है। ज्ञान स्वतन्त्र रूप में उपस्थित होता है परन्तु जब तक उसका अर्जन न किया जाए तब तक उसको अपने लिए या समाज के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता है। ज्ञान की प्राप्ति परम्परागत रूप में एक साध्य ही है जिसकी प्राप्ति प्राचीन काल में घर के सदस्यों द्वारा होती थी। प्रारम्भ में गुरुकुल प्रणाली के अन्तर्गत ज्ञान प्राप्ति के लिए मौखिक प्रणाली का प्रयोग किया जाता था तथा बाद में ज्ञान प्राप्ति के लिए लिखित प्रणाली का प्रयोग किया जाने लगा। आधुनिक समय में प्राचीनकाल की तुलना में मशीनों का प्रयोग होने के कारण ज्ञान प्राप्ति की पाठ्यचर्या में लगातार वृद्धि एवं परिवर्तन होता जा रहा है।

आज विद्यालयों में दिए जाने वाले ज्ञान का क्षेत्र पहले की तुलना में अधिक विस्तृत हो गया है अर्थात् ज्ञान एक साध्य के रूप में अधिक विस्तृत हो गया है। वर्तमान समय में ज्ञान की मात्रा में ही नहीं अपितु उसके स्वरूप में भी परिवर्तन आ गया है। आजकल कई नए तथा आधुनिक ज्ञान भी दिए जाने लगे हैं, जैसे-कम्प्यूटर का ज्ञान, विदेशी भाषाओं का ज्ञान, तकनीकी ज्ञान आदि।

विद्यालयी पाठ्यचर्या में प्राथमिक कक्षाओं से ही कम्प्यूटर का ज्ञान जोड़ दिया गया है। I.T.I. भी औद्योगिक व्यवसायों के रूप में विद्यालयी पाठ्यचर्या से इण्टरमीडिएट तक तकनीकी ज्ञान रखने वालों के लिए उपलब्ध हैं। ज्ञान एक साध्य के रूप में तब भी देखने को मिलता है जब कोई छात्र ज्ञान का अर्जन इसलिए करता है ताकि उच्चत्तर स्तर का ज्ञान प्राप्त कर सके। प्रत्येक स्तर पर दिया जाने वाला ज्ञान अपने से पहले स्तर पर दिए गए ज्ञान से अधिक व्यापक और एक-दूसरे से किसी न किसी रूप में सम्बन्धित होता है। साध्य के रूप में ज्ञान क्रमिक, व्यवस्थित पाठ्यचर्या का एक अंग बनाकर दिया जाता है।

2) ज्ञान एक साधन के रूप में (Knowledge as a Medium)- ज्ञान एक साधन के रूप में तब परिलक्षित होता है जब-

i) ज्ञान प्राप्त करके किसी प्रत्यय की समझ विकसित करनी हो। जैसे- अधिगम का सिद्धान्त ज्ञान के रूप में तब साधन बन जाता है जब इसका प्रयोग सीखने की प्रक्रिया को समझने के लिए किया जाए। जब हम कुछ सीखते या समझते हैं तब ज्ञान का प्रयोग एक साधन के रूप में करते हैं। समझने के लिए सैद्धान्तिक ज्ञान का प्रयोग करना पड़ता है। मानव में बोध उत्पन्न करने के लिए वैध ज्ञान का सहारा लेना पड़ता है क्योंकि वैध ज्ञान की सहायता से ही किसी प्रत्यय नियमों को समझ सकते हैं।

ii) ज्ञानार्जन करके इसका अनुप्रयोग करने के लिए उसका व्यावहारिक जीवन में प्रयोग किया जाए। इस प्रकार ज्ञान का किसी वास्तविक परिस्थिति में प्रयोग किया जाए। ज्ञान का सबसे उत्कृष्ट एवं महत्त्वपूर्ण पहलू यही है कि ज्ञान की सहायता से समझ विकसित करने के बाद यह जीवन की वास्तविक परिस्थितियों में उत्पन्न स्थिति में इस ज्ञान का प्रयोग किया जा सकता है। जब हम ज्ञान का वास्तविक जीवन में प्रयोग करके अपने कार्य को आसान एवं उपयोगी बनाते हैं तब ज्ञान एक साधन के रूप में हमारी सहायता करता है। विज्ञान के नियमों को जब हम जीवन में प्रयोग करते हैं तब ज्ञान को एक साधन के रूप में समझा जा सकता है। भाषा के ज्ञान का प्रयोग हम व्यावहारिक संचार के रूप में करते हैं. इंजीनियरिंग से सम्बन्धित ज्ञान को व्यावहारिक रूप में मशीनों एवं घरों के निर्माण में प्रयोग करना आदि सिद्ध करता है कि ज्ञान एक साधन है।

iii) ज्ञान को विश्लेषण के लिए प्रयोग किया जाता है तो ज्ञान एक साधन के रूप में इसमें सहायक सिद्ध होता है। ज्ञान का प्रयोग कई बार हम परिस्थितियों के विश्लेषण के लिए भी करते हैं। ऐसा ज्ञान जो विश्लेषण करने के लिए काम आता है, साधन के रूप में होता है।

iv) ज्ञान को संश्लेषण के लिए भी प्रयोग किया जाता है। संश्लेषण की प्रक्रिया कुछ नया सृजन करने से सम्बन्धित होती है। इस प्रक्रिया में ज्ञान एक साधन के रूप में सहायता प्रदान करता है। उदाहरणार्थ- हवा को उत्पन्न करने के जो नियम या सिद्धान्त हैं उसी का प्रयोग करके हवाई जहाज के उड़ने की प्रक्रिया को समझा जाए तो इस परिस्थिति में हवा से सम्बन्धित ज्ञान साधन बन जाता है और हमारे लिए पृष्ठात्मकता को जन्म देने वाली परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है।

v) ज्ञान को जब मूल्यांकन की प्रक्रिया में प्रयोग किया जाता है तो इससे निष्कर्ष निकाला जा सकता है।

ज्ञान के उद्देश्य (Objectives of Knowledge)

ज्ञान के उद्देश्य को हम निम्न बिन्दुओं के माध्यम से समझ सकते हैं-

1) समस्याओं के समाधान की युक्ति प्रदान करना-ज्ञान, जीवन से सम्बन्धित समस्याओं के समाधान के लिए युक्ति प्रदान करता है। बिना ज्ञान के न तो मनुष्य समस्याओं को पहचान सकता है और न ही इन समस्याओं का समाधान ही प्रस्तुत कर सकता है। ज्ञान के कारण, समस्याओं के समाधान में लगने वाले समय या अवधि में भी कमी आ जाती है। उदाहरण के लिए- शिक्षण सम्बन्धित समस्याओं का समाधान शिक्षा से सम्बन्धित ज्ञान से प्राप्त होता है। भाप की शक्ति के ज्ञान से भाप के रेल इंजन बनाने और यातायात सम्बन्धी समस्याओं का समाधान मिला।

2) किसी घटना और परिस्थिति को समझने में सहायक-ज्ञान का एक उद्देश्य यह भी होता है कि यह किसी घटना और परिस्थिति को समझने में सहायक होता है। किसी भी वस्तु, स्थिति का ज्ञान उन्हें समझने में सहायक हो सकता है।

3) क्रिया के लिए उपयुक्त क्षमता का विकास करना- किसी भी क्रिया को (स्वैच्छिक क्रिया को छोड़कर) उचित तरीके से करने के लिए उपयुक्त क्षमता का विकास करना भी ज्ञान का एक उद्देश्य होता है।

4) व्यक्तिगत विकास- ज्ञान का एक उद्देश्य यह भी होता है कि मनुष्य का व्यक्तिगत विकास किया जा सके। व्यक्तिगत विकास के सभी आयामों जैसे- भाषा, कौशल, संचार, व्यक्तित्त्व, व्यवहार, अभिवृत्ति आदि को विकसित करना ज्ञान का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है।

5) सूचनाओं को निश्चित आकार देना– ज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह है कि सूचनाओं को एक निश्चित रूप दिया जाए। सूचनाएँ यहाँ-वहाँ बिखरी होती हैं अतः उनको सही एवं निश्चित रूप प्रदान करना ज्ञान का उद्देश्य है।

6) व्याख्या करना– ज्ञान व्याख्या करता है। ज्ञान के प्रमुख उद्देश्यों में से एक उद्देश्य उद्देश्य यह भी है कि यह किसी भी प्रक्रिया, घटना या अवलोकन की व्याख्या कर सकता है। ज्ञान के ही माध्यम से जटिलता की व्याख्या की जाती है।

7) व्यक्तिगत अनुभवों को सुदृढ़ करना-ज्ञान, व्यक्तिगत अनुभवों के सुदृढ़ीकरण का कार्य करता है। हमारे व्यक्तिगत अनुभव जब तक किसी ज्ञान के सम्पर्क में नहीं आते तब तक व्यक्तिगत अनुभवों को ठोस रूप में नहीं कहा जा सकता।

8) सिद्धान्त व नियमों का निर्माण-प्रत्येक क्षेत्र में सूचनाओं के माध्यम से सिद्धान्ती का निर्माण किया जाता है जो सामान्यीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से निर्मित होते है। इन सिद्धान्तों व नियमों का निर्माण करना ज्ञान के महत्त्वूपर्ण कार्यों में से एक है।

9) मानसिक विकास के लिए अवसर उत्पन्न करना-ज्ञान मानसिक विकास के लिए उपयुक्त अवसर प्रदान करता है। ज्ञान हमारे मस्तिष्क के सामने ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है जिससे हमारी बुद्धि की सहायता से मानसिक क्षमताओं का विकास होता है। जैसे- तर्क (Reason), अंकगणित (Arithmatic), प्रश्न (Questions) एवं विश्लेषण (Analysis) आदि के कारण हमारी मानसिक क्षमताओं में लगातार वृद्धि होती रहती है।

10) प्रत्ययों का निर्माण-कोई भी प्रत्यय हमारे समक्ष ज्ञान के कारण ही आता है। प्रत्यय ही हमारी समझ को विकसित करते हैं। ये प्रत्यय ही सम्पूर्ण समाज में सीखने के लिए उद्देश्य के रूप में रखे जाते हैं। ज्ञान का यह प्रमुख उद्देश्य है कि सभी महत्त्वपूर्ण अवलोकनों (Observations), तथ्यों (Facts) और वस्तुओं (Objects) से सम्बन्धित प्रत्ययों का निर्माण करे।

11) शब्दों का निर्माण- ज्ञान का एक उद्देश्य यह भी है कि व्याख्या एवं पहचान के लिए उपयुक्त शब्दों का निर्माण करे क्योंकि बिना शब्दों के ज्ञान का हस्तांतरण सम्भव नही होता है।

12) समाज का विकास- समाज का समुचित विकास ज्ञान का प्रमुख उद्देश्य होता है । कोई भी समाज अपने विकास के लिए समाज द्वारा संचित ज्ञान पर ही निर्भर करता है। जितना उन्नत ज्ञान होगा एवं जितनी ज्ञान की विभिन्नता होगी वह समाज उतना ही ज्यादा विकसित होगा। ज्ञान का संचय और उसका प्रयोग समाज के विकास के लिए अनिवार्य शर्तों में से एक है।

13) इतिहास और संस्कृति का विकास– इतिहास के द्वारा संस्कृति का आगे की पीढ़ी में हस्तान्तरण होता है। पर इतिहास को समझने के लिए एक विशेष प्रकार का ज्ञान आवश्यक होता है। उदाहरण के लिए- पुरातत्त्व सम्बन्धी ज्ञान के विकसित होने से पहले इतिहास तो विद्यमान था परन्तु इतिहास का विकास नहीं हो पाया था। इतिहास के तथ्यों का विश्लेषण करने में ज्ञान महत्त्वपूर्ण है। संस्कृति ज्ञान पर निर्भर है।

बिना ज्ञान के संस्कृति की प्रगति सम्भव नहीं है। कार्य करने का ढंग, व्यवहार का तरीका आदि संस्कृति से सम्बन्धित पहलुओं का विकास ज्ञान का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है।

14) सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक विश्लेषण- ज्ञान, सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक विश्लेषण करता है। सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करना, विकास एवं वृद्धि की मात्रा एवं दिशा निर्धारित करने में सहायक होता है।

15) बौद्धिक सम्पदा का उत्पादन– मनुष्य जो भी सोचता है उसे करता है एवं उसका विकास करके मस्तिष्क में सृजित करता है, वो उसकी अपनी बौद्धिक सम्पदा माना जाता है। इस बौद्धिक सृजन को सम्पदा के रूप में विकसित करना ज्ञान का प्रमुख उद्देश्य होता है। ऐसी बौद्धिक सम्पदाएँ, सम्पूर्ण समाज के कल्याण के काम आती है और व्यक्तिगत बौद्धिक सम्पदा के रूप में स्थापित रहती हैं।

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ज्ञान के स्रोत | Sources of Knowledge in Hindi
ज्ञान के स्रोत | Sources of Knowledge in Hindi
ज्ञान के स्रोत | Sources of Knowledge in Hindi
ज्ञान के स्रोत | Sources of Knowledge in Hindi

ज्ञान के स्रोत (Sources of Knowledge)

ज्ञान के स्रोतों को निम्न बिन्दुओं द्वारा भली-भाँति समझ सकते हैं-

1) प्राथमिक स्रोत (Primary Source)- इस प्रकार के स्रोतों के अन्तर्गत वे स्रोत आते हैं जो सर्वप्रथम हमारे सामने सूचनाओं को उपस्थित करते हैं। प्राथमिक स्रोत के माध्यम से प्राप्त सूचनाएँ पूर्णतया हमारे द्वारा सूचनाओं को पहचानने एवं समझने की योग्यता पर आधारित होती हैं इसी कारण इस प्रकार के स्रोत बहुत ज्यादा विश्वसनीय नहीं होते। यदि इन स्रोतों से प्राप्त ज्ञान का परीक्षण करके इसे शुद्ध न किया जाए तो ज्ञान की प्रकृति दूषित होने की सम्भावना रहती है। प्राथमिक स्रोत के रूप में इन्द्रियों को सम्मिलित किया जा सकता है। इन्द्रियाँ (Senses) जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन, सांख्य दर्शन, योग दर्शन, न्याय दर्शन एवं अद्वैत वेदान्त में इन्द्रियों को प्राथमिक साधन के रूप में माना गया है। अद्वैत वेदान्त ने इन्द्रियों को बाह्य साधन माना है।

2) द्वितीय स्रोत (Secondary Source) – प्राथमिक स्रोत के विपरीत द्वितीयक स्रोत के अन्तर्गत इन स्रोतों को सम्मिलित किया जा सकता है जो कि निम्नलिखित हैं-

i) सत्तात्मक स्रोत (Authoritative Sources)- इसके अन्तर्गत प्रमाणिक पुस्तकों, वेदों, साहित्यों, उपनिषदों, धार्मिक ग्रन्थों एवं पुस्तकों को सम्मिलित किया जाता है। इनसे प्राप्त ज्ञान को प्रमाणिक ज्ञान माना जाता है। इस प्रकार के ज्ञान वैध एवं विश्वसनीय होते हैं क्योंकि इनको काफी तर्क एवं सोच समझकर इसमें सम्मिलित किया जाता है। इस प्रकार के स्रोतों में प्रमाणिकता का मुख्य आधार इसमें व्याप्त मूल्य एवं उद्देश्यों की स्पष्टता होती है। इस प्रकार के साधनों के अन्तर्गत ही विद्यालय में पढ़ाए जाने वाले पुस्तकों को भी सम्मिलित किया जा सकता है क्योंकि ये पुस्तकें एवं इसमें निहित ज्ञान भी समुचित चिन्तन-मनन के बाद ही विषय-वस्तु के रूप में सम्मिलित किया जाता है।

ii) अप्रमाणिक स्रोत (Unauthenticated Sources)- इस प्रकार के द्वितीयक स्रोत के अन्तर्गत उन स्रोतों को सम्मिलित कर लिया जाता है जो कि ज्ञान तो प्रदान करते हैं पर इनके प्रमाणिक होने की संभावना अधिक नहीं होती। इस प्रकार के स्रोतों से एकत्रित सूचनाओं की जाँच पड़ताल करना आवश्यक होता है। इस प्रकार के स्रोत के रूप में निम्नलिखित स्रोतों को शामिल किया जा सकता है-

a) अनुभव जन्य ज्ञान (Experience Based Knowledge) – अनुभव से प्राप्त ज्ञान हमारे व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित होते हैं। इसलिए इस प्रकार का ज्ञान व्यक्तिनिष्ठ (Subjective) होता है। इसमें वस्तुनिष्ठता (Objectives) का अभाव हो सकता है।

b) इन्टरनेट से प्राप्त सामग्री (Internet Based Material)- इंटरनेट से प्राप्त सभी प्रकार के ज्ञान को हम प्रमाणिक नहीं मान सकते क्योंकि कई बार सूचनाएँ सही नहीं होती हैं। इसलिए इस प्रकार के ज्ञान के स्रोत को सावधानीपूर्वक विश्लेषण के बाद ही प्रमाणिक बनाया जा सकता है।

3) परम्पराओं एवं दन्त कथाओं से प्राप्त ज्ञान (Knowledge Derived from Traditions and Legends)- इस प्रकार के ज्ञान को हम परम्पराओं के नाम पर प्रयोग तो कर रहे होते हैं पर इनका कोई स्पष्ट आधार न होने के कारण ये प्रमाणिक नहीं माने जा सकते। अन्धविश्वास (Superstitions), जादू, टोने-टोटके आदि को हम इसी वर्ग में सम्मिलित कर सकते हैं।

4) तर्क-चिन्तन एवं बुद्धि (Logical Thinking and Intelligence) – बुद्धि का प्रयोग करके प्राप्त ज्ञान को तर्क चिन्तन के माध्यम से शुद्ध ज्ञान में परिवर्तित कर प्राप्त किया जा सकता है। तर्क के माध्यम से प्राप्त ज्ञान की यह विशेषता होती है कि या तो यह निगमन विधि (Deductive Method) पर आधारित होता है या आगमन विधि (Inductive Method) पर निधि के आधारित होता है। आगमन अन्तर्गत अनुभवों का सामान्यीकरण किया जाता है अर्थात् किसी एक व्यक्ति या घटना के आधार पर ज्ञान को सही ज्ञान नहीं माना जाता बल्कि बहुत सारे व्यक्तियों के अनुभवों या एक जैसी बहुत सारी घटनाओं का अवलोकन करके उनमें व्याप्त सामान्य (General) या एक जैसे (Similar) ज्ञान को सही ज्ञान के रूप में स्थापित किया जाता है। विज्ञान के द्वारा प्रदान किए गए सभी ज्ञान इसी श्रेणी में आते हैं। आगमन विधि का प्रयोग करके भी ज्ञान स्थापित किया जाता है। इस विधि के अन्तर्गत तात्कालिक ज्ञान को तर्क के आधार पर सिद्ध किया जाता है। यदि ज्ञान की प्रामाणिकता सिद्ध कर दी जाती है तब वह शुद्ध ज्ञान मान लिया जाता है यदि प्रामाणिकता सिद्ध नहीं हो पाती है तो इसको निष्कासित कर दिया जाता है।

5) अन्तःप्रज्ञा अथवा अन्तर्दृष्टि (Insight or Intuition) – इस प्रकार के ज्ञान के स्रोत से प्राप्त ज्ञान संयोग एवं अत्यधिक बुद्धि का परिणाम होते हैं। ज्यादातर विद्वानों ने इस प्रकार के स्रोत को आध्यात्मिक स्रोत माना है इस प्रकार के स्रोत से प्राप्त ज्ञान का कोई स्पष्ट आधार नहीं होता है परन्तु इसकी सार्थकता इसके प्रयोग किए जाने की सम्भावना पर निर्भर होती है। मनोवैज्ञानिकों की एक शाखा गेस्टाल्टवादियों ने अन्तर्दृष्टि को एक प्रमुख स्रोत के रूप में बताया है। इसकी उत्पत्ति में परिस्थितियों एवं बुद्धि का उचित मिश्रण पाया जाता है। इसकी एक प्रमुख विशेषता एकाएक उत्पन्न होना’ है। उदाहणार्थ- आर्किमिडीज़ का सिद्धान्त इसी प्रकार के स्रोत का परिणाम था।

6) सामाजिक अन्तःक्रिया (Social Interactions) – ड्यूवी महोदय का मानना था कि “समाज में रहते हुए दूसरे व्यक्तियों के साथ अन्तःक्रिया करते समय भी ज्ञान का सृजन होता है”। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित को सम्मिलित किया जा सकता है-

  1. समाज (Society)
  2. संस्कृति (Culture)

समाज के सदस्य एक दूसरे के साथ अन्तःक्रिया करते समय कई प्रकार के नए ज्ञान का सृजन एवं पुराने ज्ञान का आदान-प्रदान करते रहते हैं। संस्कृति भी ज्ञान का एक विशाल भण्डार है जो किसी समाज की धरोहर के रूप में व्याप्त होती है।

7) अन्तर्राष्ट्रीय अन्तःक्रिया (International Interactions) – सिर्फ समाज ही नहीं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अब अन्तःक्रिया होने लगी है। आधुनिकता के कारण इस प्रकार की अन्तःक्रिया अधिक बढ़ गई है। इसके कारण ज्ञान को संसार के एक कोने से दूसरे कोने में फैलाया जा रहा है।

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ज्ञान का वर्गीकरण | Classification of Knowledge in Hindi
ज्ञान का वर्गीकरण | Classification of Knowledge in Hindi
ज्ञान का वर्गीकरण | Classification of Knowledge in Hindi
ज्ञान का वर्गीकरण | Classification of Knowledge in Hindi

ज्ञान का वर्गीकरण (Classification of Knowledge)

ज्ञान को परिभाषित करना उतना मुश्किल कार्य नहीं है जितना इसका वर्गीकरण करना। विभिन्न दृष्टिकोणों एवं मतों के अनुसार ज्ञान को निम्नलिखित रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

1) ज्ञान प्राप्ति के साधनों के आधार पर वर्गीकरण (Classification on the Basis of Resources of Knowledge) –

प्लेटो ने ज्ञान प्राप्ति के साधनों के आधार पर तीन प्रकार का ज्ञान बताया है-

i) इन्द्रिय जनित ज्ञान (Sensory Knowledge)- हमारी पाँच इन्द्रियाँ हैं- आँख, कान, नाक, त्वचा, जीभ। ये इन्द्रियाँ भी ज्ञान प्राप्ति के साधन हैं। बालक जब छोटा होता है तब वह इन्द्रियों के माध्यम से सूचनाएँ एकत्रित करता है और इन्हीं सूचनाओं के आधार पर उसका मस्तिष्क ज्ञान का सृजन करता है लेकिन सिर्फ बालक ही नहीं बल्कि बड़े होकर भी हम इन्द्रियों पर आधारित ज्ञान प्राप्त करते हैं लेकिन इस प्रकार का ज्ञान ज्यादा विश्वसनीय नहीं होता है।

ii ) अनुभव जन्य या सम्मति जन्य ज्ञान (Experience Based Knowledge) – इस प्रकार का ज्ञान वातावरण से अनुभव प्राप्त करके मिलता है। यह ज्ञान (सम्मति जन्य ज्ञान) कई बार वैध (Valid) नहीं होता है क्योंकि कई बार घटनाओं को देखने का हमारा दृष्टिकोण हमारे अपने विश्वास और मान्यताओं पर आधारित होता है। प्रत्यक्षीकरण (Perception) में त्रुटि होने के कारण इस प्रकार के ज्ञान में वैधता एवं विश्वसनीयता में कमी पाई जाती है।

iii) चिन्तन जन्य ज्ञान (Knowledge Based on Proper Thinking)- इस प्रकार का ज्ञान तब प्राप्त होता है जब हम समुचित चिन्तन द्वारा ज्ञान प्राप्ति करते हैं। इसमें विश्लेषण की क्रिया सन्निहित होती है विश्लेषण के उपरान्त प्राप्त ज्ञान वैध एवं विश्वसनीय होता है।

2) शंकराचार्य के अनुसार ज्ञान का वर्गीकरण (Classification of Knowledge According to Shankaracharya)

i) अपरा ज्ञान- अपरा ज्ञान को हम अपने अनुभवों के माध्यम से प्राप्त करते हैं। विशेषकर जब हम अपने भौतिक वातावरण के साथ अन्तःक्रिया करते हुए सांसारिक ज्ञान प्राप्त करते हैं, तो वह अपरा ज्ञान कहलाता है। इस प्रकार का ज्ञान व्यावहारिक ज्ञान भी कहलाता है। इस प्रकार के ज्ञान के अन्तर्गत भौतिक वस्तुओं, मानव व्यवहार एवं समाज के साथ अंतःक्रिया से प्राप्त ज्ञान आदि आते हैं। इस प्रकार के ज्ञान से हम अपने व्यावहारिक ज्ञान को उपयोगी बना सकते हैं।

ii) परा ज्ञान- इस प्रकार के ज्ञान को शुद्ध एवं आध्यात्मिक ज्ञान की श्रेणी में रखा जाता है। इस प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति गुरू, वेद, साहित्य, उपनिषद् एवं धार्मिक ग्रन्थों के माध्यम से होती है। यह ज्ञान वास्तविक जीवन में आध्यात्मिक उद्देश्यों की प्राप्ति में काम आता है।

3) जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान का वर्गीकरण (Classification of Knowledge According to Jainism)

i) मति ज्ञान- इस प्रकार का ज्ञान, मन और इन्द्रियों द्वारा प्राप्त होता है।

ii) श्रुति ज्ञान- किसी के वचन एवं प्रवचन के आधार पर प्राप्त ज्ञान, श्रुति ज्ञान की श्रेणी में आता है।

iii) अवधि ज्ञान- इस प्रकार का ज्ञान प्रारम्भिक ज्ञान और मन की दीर्घकालिक अवधि में प्राप्त ज्ञान की अन्तःक्रिया के फलस्वरूप प्राप्त होता है। यह अन्तःदृष्टि (Insight) पर आधारित ज्ञान है।

4) काण्ट के अनुसार ज्ञान का वर्गीकरण (Classification of Knowledge According to Kant)

i) प्रागनुभाविक ज्ञान (Priori Knowledge)- काण्ट का मानना है कि मनुष्य के अन्दर कुछ जन्मजात ज्ञान उपस्थित होता है जो उसके जीवन के प्रारम्भिक दिनों में अधिक काम आता है। परन्तु जीवन पर्यन्त भी यह ज्ञान काम आता रहता है। मैक्डुगल ने इसे स्वाभाविक ज्ञान (Instinct knowledge) कहा है।

ii) आनुभाविक ज्ञान (Post Priori Knowledge)- इस प्रकार का ज्ञान जन्म लेने के उपरान्त प्राप्त अनुभवों से मिलता है। यह जीवन भर प्राप्त होता है।

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ज्ञान से सम्बन्धित विश्वास | Beliefs Related to Knowledge in Hindi
ज्ञान से सम्बन्धित विश्वास | Beliefs Related to Knowledge in Hindi
ज्ञान से सम्बन्धित विश्वास | Beliefs Related to Knowledge in Hindi
ज्ञान से सम्बन्धित विश्वास | Beliefs Related to Knowledge in Hindi

ज्ञान से सम्बन्धित विश्वास (Beliefs Related to Knowledge)

विश्वास एक आन्तरिक विचार है अथवा किसी के मस्तिष्क की स्मृति/अधिकांशतः लोग यह मानते हैं कि विश्वास होना ही ज्ञान है, यह सत्य और उचित दोनों रूप में होता है। ज्ञान विश्वास का ही प्रकार है। सत्य विश्वास ही ज्ञान बन जाता है। ज्ञान जो सुनने अथवा अध्ययन से प्राप्त होता है इसे साक्ष्य एवं तर्क की आवश्यकता होती है। व्यक्ति विभिन्न माध्यमों से ज्ञान प्राप्त करता है परन्तु उस ज्ञान की सत्यता को परखने के लिए साक्ष्य तर्क तथा तथ्य की आवश्यकता होती है। इन साक्ष्यों एवं तर्कों के आधार पर ही व्यक्ति को उस ज्ञान पर विश्वास होता है। ज्ञान को अपनी सत्यता के लिए साक्ष्य एवं तर्को के आधार पर अपने को सत्यता के लिए साक्ष्य एवं तर्कों के आधार पर अपने को सत्य की कसौटी पर खरा उतरना होता है। पुस्तकों को पढ़कर, कक्षा में शिक्षक का व्याख्यान सुनकर तथा अन्य स्रोतों से हमें ज्ञान तो प्राप्त हो जाता है परन्तु इस पर विश्वास तब और भी हो जाता है जब इसको करते हैं अथवा स्वयं करके सीखते है और उसे सत्य पाते हैं। इस प्रकार ज्ञान एवं विश्वास का परस्पर सम्बन्ध है। दोनों ही एक दूसरे के पूरक एवं एक सिक्के के दो पहलू प्रतीत होते हैं। दोनों एक दूसरे के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।

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विश्वास क्यों महत्त्वपूर्ण हैं? Why are Beliefs Important? in Hindi
विश्वास क्यों महत्त्वपूर्ण हैं? Why are Beliefs Important? in Hindi
विश्वास क्यों महत्त्वपूर्ण हैं? Why are Beliefs Important? in Hindi
विश्वास क्यों महत्त्वपूर्ण हैं? Why are Beliefs Important? in Hindi

विश्वास क्यों महत्त्वपूर्ण हैं? (Why are Beliefs Important?)

विश्वास बहुत महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि व्यवहार महत्त्वपूर्ण है तथा किसी का भी व्यवहार उसके विश्वासों पर निर्भर करता है। हम कोई भी कार्य करते हैं तो उसके पीछे हमारा विश्वास होता है। यहाँ तक कि ब्रश से लेकर हमारे कैरियर चुनाव तक। विश्वास ही वह निर्धारक है जो हमें दूसरों के प्रति प्रतिक्रिया करने में सहायता करता है, जैसे- आपका ब्रश करने या कैरियर चुनाव को लेकर इन्कार करना या सहमति देना। ये तथ्य स्पष्ट करते हैं कि विश्वास/ मान्यता कोई व्यक्तिगत मामला नहीं है।

उपर्युक्त तथ्यों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि विश्वास हमारे जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विश्वास ही वह माध्यम है जिससे प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में सफलता या असफलता प्राप्त करता है। विश्वास के आधार पर हम अपना व्यवहार, प्रतिक्रिया इत्यादि को सुनिश्चित करते हैं। विश्वास के लिए तथ्यों के सही या गलत होने का प्रभाव नहीं पड़ता है क्योंकि विश्वासी अपने विश्वास के विरूद्ध तर्क या बहस करना पसन्द नहीं करता है। इसका सर्वोत्तम उदाहरण धर्म है कोई भी आस्तिक व्यक्ति अपने धर्म के विरूद्ध कुछ भी नहीं सुनना चाहता है चाहे सही कहा जाए या गलत।

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ज्ञान की विशेषताएँ | Characteristics of Knowledge in Hindi
ज्ञान की विशेषताएँ | Characteristics of Knowledge in Hindi
ज्ञान की विशेषताएँ | Characteristics of Knowledge in Hindi
ज्ञान की विशेषताएँ | Characteristics of Knowledge in Hindi

ज्ञान की विशेषताएँ (Characteristics of Knowledge)

ज्ञान की विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है-

1) ज्ञान शक्ति होती है।

2) ज्ञान समाप्त नहीं हो सकता है।

3) सत्यता का नाम ही ज्ञान है।

4) ज्ञान की सीमा नहीं होती है अतः ज्ञान जगत अनन्त है। इसमें ज्ञात एवं अज्ञात सभी ज्ञान समाहित रहता है।

5) ज्ञान को प्राप्त करने के लिए अनुभव अनिवार्य है।

6) ज्ञान का स्रोत सूचना है।

7) ज्ञान तीन तथ्यों पर आधारित है- सत्यता, सबूत एवं विचार।

8) कोई व्यक्ति जितना ज्ञान प्राप्त करेगा उसके ज्ञान की भूख और बढ़ती जाएगी।

9) ज्ञान निरन्तर बढ़ता रहता है अर्थात् ज्ञान निरन्तर गतिशील है। निरन्तर नए विचारों एवं विषयों की उत्पत्ति निरन्तर होती रहती है।

10) ज्ञान बहुआयामी हैं जिसमें चिन्तन, अध्ययन एवं अनुसन्धान के द्वारा नवीन ज्ञान तथा नए विषय क्षेत्रों की उत्पत्ति निरन्तर होती रहती है।

11) ज्ञान सतत् रूप से विकसित होता रहता है जिसके फलस्वरूप विषयों की निरन्तरता बनी रहती है।

उपरोक्त वर्णित संमस्त विशेषताओं के फलस्वरूप ज्ञान जगत कभी भी एक जैसा नहीं पाया जा सकता। इसके आकार, प्रकार एवं प्रकृति में सतत् बदलाब होता रहता है।

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ज्ञान का अर्थ एवं परिभाषाएँ | Meaning and Definitions of Knowledge in Hindi
ज्ञान का अर्थ एवं परिभाषाएँ | Meaning and Definitions of Knowledge in Hindi
ज्ञान का अर्थ एवं परिभाषाएँ | Meaning and Definitions of Knowledge in Hindi
ज्ञान का अर्थ एवं परिभाषाएँ | Meaning and Definitions of Knowledge in Hindi

ज्ञान (Knowledge)

ज्ञान का अर्थ स्पष्ट रूप से उन सूचनाओं का संग्रह है जो किसी वस्तु, परिस्थिति और अनुभव की समझ को विकसित करने में सहायक होता हैं। ज्ञान समस्त शिक्षा का आधार है। चाहे किसी भी प्रकार की शिक्षा हो औपचारिक, अनौपचारिक एवं निरौपचारिक (Formal, Informal and Non-formal)। ज्ञान एक साध्य एवं साधन दोनों ही रूपों में पाया जा सकता है। शिक्षा के कई उद्देश्यों में से ‘ज्ञान प्राप्ति एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। इसका अभिप्राय यह है कि ज्ञान, सूचनाएँ हैं। ये सूचनाएँ (Information’s) किसी भी वस्तु के बारे में हो सकती हैं जो हमें उस वस्तु की विशेषताओं के बारे में बताती है। इसी ज्ञान के कारण ही बालक हमारे समाज में प्रयोग की जाने वाली वस्तुओं को उसी नाम से पुकारते हैं जो नाम सम्पूर्ण समाज प्रयोग करता है। इस प्रकार से वस्तुओं की जानकारी हस्तान्तरित होती है।

ज्ञान किसी परिस्थिति और प्रक्रिया से सम्बन्धित तथ्य और सत्य है। हमारे समाज में विभिन्न प्रकार की परिस्थितियाँ (Circumstances) और वातावरण उपस्थित हैं। इन परिस्थितियों और वातावरण से सम्बन्धित कई प्रकार के तथ्य होते हैं जो सत्य पर आधारित होते हैं। इन परिस्थितियों और वातावरण की लक्ष्यपूर्ण जानकारी ज्ञान कहलाता है जो वर्तमान एवं भविष्य की पीढ़ियों के लिए सदैव परिमार्जित एवं परिशोधित रूप में हस्तान्तरित होता रहता है। ज्ञान, अनुभवों की समझ पर आधारित सूचनाएँ हैं। सभी को जीवन में अनुभव होते रहते हैं और इन अनुभवों का जब हम सामान्यीकरण (Generalisation) कर लेते हैं और एक सिद्धान्त और नियम के रूप में विकसित कर लेते हैं तो यह ज्ञान बन जाता है और यही ज्ञान सम्पूर्ण समाज के लिए उपयोगी सिद्ध हो जाता है। उदाहरण के लिए-महान वैज्ञानिक न्यूटन, आंइस्टीन, आर्कमिडीज आदि ने जो अनुभव किया उसके तथ्यों को सिद्धान्त के रूप में विकसित कर दिया गया जो आज विज्ञान के आधारभूत ज्ञान के रूप में विद्यमान है।

ज्ञान का अर्थ जागरूकता (Awareness) भी है। जागरूकता का अर्थ किसी भी वस्तु या परिस्थिति की सूचना हमारे मस्तिष्क में होने से है और यही मानसिक विद्यमान सूचनाएँ या तथ्य हमें जागरूक बनाते हैं। यही जागरूकता ज्ञान है क्योंकि जब तक कोई तथ्य हमारे मस्तिष्क में विद्यमान नहीं होता या प्रत्यक्षीकरण नहीं कर लिया जाता, तब तक वह मात्र सूचना होती है पर वही सूचना जब हमारे मस्तिष्क में प्रेषित (Transmitted) या ग्रहित (Acquired) हो जाती है तो यही हमारा ज्ञान बन जाती है।

सुकरात के अनुसार, “ज्ञान एक ऐसी शक्ति है जिसकी सहायता से कोई भी कार्य किया जाना सम्भव है।”

According to Socrates, “Knowledge is power by which things are done.”

आन्द्रे बुदरो के अनुसार, “ज्ञान को इस रूप में परिभाषित किया जा सकता है कि यह वो चीज है जो किसी प्रदत्त सन्दर्भ में सत्य पाया गया और यही सत्य किसी क्रिया को कराती है यदि कोई बाधा उपस्थित न हो तो।”

According to Andre Boudreau, “Knowledge is defined as things that are held to be true in a given context and that drive us to action if there were no impediments.”

कार्ल स्वेवी के अनुसार, ‘कुछ करने या क्रिया करने की क्षमता ही ज्ञान है।”

According to Karl Sveiby, “Knowledge is a capacity to act.”

नोनाटी व तेकेउची के अनुसार, “ज्ञान वो सत्य विश्वास है जिससे किसी प्रभावी क्रिया के लिए क्षमता में वृद्धि होती है।”

According to Nonatea and Takeuchi, “Knowledge is justified true belief that increases an entity’s capacity for effective action.”

लॉक के अनुसार, “ज्ञान लोगों की बुद्धि और योग्यता में विद्यमान ज्ञात और उपस्थित होने का योग है।”

According to Locke, “Knowledge is the sum of what is known and resides in the intelligence and competence of people.”

ज्ञान को सभी प्रकार की शिक्षा का प्रमुख आधार माना जाता है। इसका कारण यह है कि शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य ज्ञान देना ही है। ज्ञान संज्ञानात्मक स्तर पर दिया जाता है जैसे कि परिभाषाएँ, सिद्धान्त, नियम, पहचान, वर्गीकरण, तुलना, प्रक्रिया, चरण, व्याख्या, विश्लेषण, संश्लेषण और मूल्यांकन आदि। संज्ञानात्मक स्तर पर ज्ञान के सैद्धान्तिक पक्ष को सम्प्रेषित (Communicate) किया जाता है। इसका उद्देश्य बुद्धि को निश्चित दिशा में प्रयोग करने हेतु ज्ञानात्मक योग्यता विकसित करना होता है।

भावात्मक स्तर पर भी ज्ञान का महत्त्व है। भावनात्मक क्रियाएँ मनुष्य की वे प्राथमिक प्रवृत्तियाँ हैं जो हमें पशुओं से अलग करती हैं। मनुष्यों को दूसरे मनुष्यों के भावों को परखने, समझने एवं अपने भावों को समझकर अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने सम्बन्धी ज्ञान प्रदान करना भी शिक्षा का महत्त्वपूर्ण कार्य है। मूल्य एवं नैतिकता से सम्बन्धित भावों को विकसित करके मनुष्य को नियन्त्रित व्यवहार के लिए तैयार करने में भावात्मक ज्ञान उपयोगी होता है। क्रियात्मक स्तर का ज्ञान भी क्रियाओं को कुशलतापूर्वक करने में उपयोगी होता है। खेलकूद, मशीन, वस्तुओं के निर्माण, जीवन के लिए उपयोगी क्रियाओं से सम्बन्धित ज्ञान इस श्रेणी में आता है।

औपचारिक, अनौपचारिक एवं निरौपचारिक शिक्षा तीनों प्रकार की शिक्षा के लिए ज्ञान विभिन्न रूपों में दिखाई देता है। औपचारिक शिक्षा वह शिक्षा है जो निश्चित पाठ्यक्रम के माध्यम से निश्चित समय पर दी जाती है, जैसे- वर्तमान समय में 10+2+3 फार्मूले पर आधारित औपचारिक शिक्षा दी जाती है। इस प्रकार की शिक्षा के अन्तर्गत ज्ञान को औपचारिक विधि से दिया जाता है। इसमें ज्ञान का स्वरूप एवं मात्रा निश्चित होती है अर्थात् विभिन्न कक्षाओं के लिए ज्ञान की प्रकृति एवं मात्रा निर्धारित करके शिक्षा दी जाती है। इस प्रकार की शिक्षा प्रणाली में मनोवैज्ञानिक आधार पर ज्ञान की प्रकृति एवं मात्रा को निश्चित किया जाता है।

उदाहरणार्थ- विभिन्न कक्षाओं के लिए विषय-वस्तु को पाठ्यक्रम के रूप में परिभाषित एवं निर्धारित कर दिया जाता हैं।

अनौपचारिक शिक्षा के अन्तर्गत ज्ञान का स्वरूप व्यवस्थित नहीं होता बल्कि अनुभवों एवं प्रत्यक्षीकरण पर आधारित होता है। अनौपचारिक शिक्षा का स्वरूप इस प्रकार का होता है कि कोई व्यक्ति कभी भी, कहीं भी, कुछ भी ज्ञान के रूप में प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार की शिक्षा हमें परिवार, समुदाय और समाज इत्यादि से प्राप्त होती है अर्थात् असंचरित ज्ञान हमें बिना किसी अनौपचारिकता के ही मिल जाता है। उदाहरणार्थ- परिवार के द्वारा दिया जाने वाला ज्ञान अनौपचारिक रूप से ही दिया जाता है पर यह जीवन से सम्बन्धित कौशल (Life Skills) का ज्ञान प्रदान करता है। इसी प्रकार निरौपचारिक शिक्षा (Non-Formal Education) के अन्तर्गत भी ज्ञान का स्वरूप निश्चित मात्रा में, संतुलित एवं आवश्यकतानुसार होती है।

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