पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धान्त | Principles of Curriculum Construction in Hindi
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पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धान्त | Principles of Curriculum Construction in Hindi

पाठ्यचर्या निर्माण (CURRICULUM CONSTRUCTION)

शिक्षा एक उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है। पाठ्यचर्या, शिक्षा के उद्देश्यों को पूर्ण करने का एक व्यवस्थित तथा क्रमबद्ध माध्यम है। पाठ्यचर्या के भी कुछ उद्देश्य होते हैं तथा ये उद्देश्य मूल्यों पर आधारित होते हैं। पाठ्यचर्या में अनुभव, गुणवत्ता, हितग्राही ज्ञान, मूल्यों, सामाजिकता तथा नागरिकता के गुणों को सम्मिलित किया जाता है। पाठ्यचर्या निर्माण करते समय पाठ्यचर्या निर्माणकर्ता को कई विशेष बातों पर ध्यान देना होता है। इन्हीं बातों के अंतर्गत सामाजिक प्रकृति, व्यवस्था, उसके क्षेत्र आदि का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक हो जाता है। पाठ्यचर्या निर्माण के लिए सामाजिक अभिवृत्तियों, सम्भावित क्रियाओं आदि की सम्भावना का ज्ञान भी आवश्यक है। सामाजिक परिवर्तन भी पाठ्यचर्या के विकास के लिए आवश्यक तत्त्व है। पाठ्यचर्या निर्माण के कुछ नियम तथा सिद्धान्त होते हैं। शिक्षा व्यक्तिगत न होकर वैश्विक प्रक्रिया है अर्थात् समाज में उपस्थित विभिन्नताओं को मद्देनजर रखते हुए पाठ्यचर्या का निर्माण किया जाता है जिससे कि देश की आवश्यकताओं के लिए अच्छे व्यक्तित्त्वों का निर्माण हो सके।

पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धान्त (Principles of Curriculum Construction)

पाठ्यचर्या निर्माण में विभिन्न प्रवृत्तियों, विधियों, अभिक्रियाओं आदि के आधार पर कुछ सिद्धान्तों की उत्पत्ति हुई है। पाठ्यचर्या निर्माण में सिद्धान्त शिक्षा की आवश्यकताओं तथा लक्ष्यों की पूर्ति करते हैं। ये सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

1) शिक्षा के लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक- पाठ्यचर्या, शिक्षा प्राप्त करने का एक साधन एवं माध्यम है। पाठ्यचर्या निर्माण करते समय यह अति आवश्यक एवं विचारणीय पक्ष है जिसके विषय में शिक्षा के पूर्व निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु अनुशसा की गयी है। पाठ्यचर्या में ऐसे विषयों, प्रकरणों, अभिक्रियाओं को स्थान देना चाहिए जो शिक्षा के लक्ष्यों के अनुरूप तथा अनुकूल हो। आधुनिक युग में शिक्षा के नवीन लक्ष्यों का प्रतिपादन किया गया है, जैसे- व्यक्ति के सर्वांगीण विकास हेतु जीवन के प्रत्येक पक्ष को सम्मिलित किया गया है। साथ ही साथ, व्यवसाय, भाषा आदि को भी हितकारी बनाया गया है। अतः पाठ्यचर्या निर्माण के समय विशेषज्ञों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि पाठ्यचर्या में सदैव ऐसी पाठ्य-वस्तु तथा विषयों का संकलन एवं संगठन हो जिनके उपयोग से शिक्षा के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके।

2) बाल केन्द्रियता का सिद्धान्त- पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय छात्र को केन्द्र में रखकर विषय-वस्तुओं का पाठ्यचर्या हेतु चयन किया जाए। इसके अनुसार पाठ्यचर्या, बालकों की अभिरुचि, आवश्यकता, योग्यता, बौद्धिक एवं शारीरिक क्षमता, आयु के अनुरूप निर्मित किया जाना चाहिए। विशेष आवश्यकता वाले बालकों के लिए भिन्न पाठ्यचर्या का निर्माण करना चाहिए। पाठ्यचर्या का नियोजन विभिन्न वर्गों अथवा श्रेणियों में विभाजित कर किया जाना चाहिए। इसमें ऐसे विषयों तथा व्यावहारिक विषयों को सम्मिलित करना चाहिए जिसमें छात्रों की पूर्ण सहभागिता हो तथा अभिक्रियाओं को चयन करने का प्रयास एवं अनुभव छात्रों को प्राप्त हो। उन्हें इससे जो वास्तविक ज्ञान उपलब्ध होगा वह स्वयं के लिए नए द्वार खोलेगा। उनके भविष्य को एक स्थायित्व प्रदान करेगा।

3) उपादेयता का सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि शिक्षा की पाठ्यचर्या ऐसी हो जो बालकों के जीवन में उपयोगी बने। छात्रों के भावी जीवन के स्वरूप को निश्चित करना आवश्यक होता है तथा इस कार्य के लिए शिक्षा उत्तरदायी होती है। अतः जीवन के स्वरूप को निश्चित करने में पाठ्यचर्या एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कारक है। बालकों के जीवन में उपयोगी ज्ञान को बालक तक पहुँचाना ही शिक्षा का लक्ष्य होता है। इससे बालकों में देशप्रेम की भावना, आदर्शों के अनुकरण, मूल्यों की शिक्षा, मातृभाषा का महत्त्व, सामाजिकता, नागरिकता, सामाजिक क्रियाओं आदि की शिक्षा पाठ्यचर्या के माध्यम से प्रदान की जाती है। पाठ्यचर्या में सर्वाधिक उपयोगी पाठ्यवस्तु तथा प्रकरणों को प्राथमिकता के आधार पर स्थान मिलना अति आवश्यक है।

4) छात्रों में व्यक्तिगत विभिन्नता का सिद्धान्त- वर्तमान में प्रमाणिक रूप से यह सिद्ध हो चुका है कि प्रत्येक बालक एक-दूसरे से भिन्न होता है। बालक में उसके गुण, रुचियाँ, क्षमताएँ, योग्यताएँ आदि भी एक-दूसरे से भिन्न होती हैं। प्रत्येक बालक में अभिवृत्तियाँ भी अलग-अलग होती हैं। अतः पाठ्यचर्या भी हर बालक के अनुसार होना आवश्यक है। वर्तमान पाठ्यचर्या का सम्प्रत्यय प्रत्येक बालक के मनोविज्ञान को विचार करके ही निर्मित किया गया है। पाठ्यचर्या में ऐसे विषयों तथा पाठ्य-वस्तुओं का समावेश किया गया है जिससे प्रत्येक बालक की आवश्यकताएँ पूर्ण होना सम्भव हो सके। पाठ्यचर्या व्यक्तिगत भिन्नता के आधार पर बनाने हेतु उसमें विविधता का ध्यान रखना चाहिए। इसमें शिक्षकों के भी आवश्यक सुझावों को उचित महत्त्व मिलना चाहिए। इन सुझावों तथा अनुशंसाओं के आधार पर पाठ्यचर्या में आवश्यक प्रकरणों तथा विषयों को सम्मिलित किया जाना चाहिए।

5) सृजनात्मकता एवं अभिक्रिया का सिद्धान्त- छात्रों में सृजनात्मक अभिवृत्ति होना वाभाविक है जिसका उपयोग तथा दोहन होना अति आवश्यक है अन्यथा ऐसी प्रवृत्तियों का समय के साथ दमन हो जाता है तथा छात्र सामान्य ही रहता है। अतः छात्रों में निहित सृजनात्मक क्षमता का विकास करने के लिए पाठ्यचर्या में ऐसे अवसर उपलब्ध कराए जाए जिससे छात्र-छात्राओं में सृजनात्मकता का अधिक से अधिक उपयोग हो सके। बालकों में लुप्त अभिक्रियाओं एवं सृजन शक्ति को बाहर निकालने हेतु प्रोत्साहन अति उत्तम साधन है। बालकों को नई अभिक्रियाओं हेतु उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए जिसके लिए उन्हें सामान्य निर्देशन की आवश्यकता होती है तथा उसके अनुसार उनको उचित मार्ग प्रशस्त करना चाहिए जिससे उनकी सृजनात्मक क्षमता, विशिष्ट गुणों के साथ प्रकट हो सके।

6) मनोवैज्ञानिकता का सिद्धान्त- मनोवैज्ञानिकता के सिद्धान्त से यहाँ तात्पर्य है कि बालकों के मनोविज्ञान को समझना आवश्यक है। बालकों के मनोविज्ञान को समझ कर उनके व्यवहार के विषय में जानकारी प्राप्त करके, पाठ्यचर्या निर्माण प्रारम्भ करना चाहिए। इसके लिए अभिभावकों एवं शिक्षकों से एवं स्वयं छात्रों से उनकी आवश्यकताओं तथा अधिगम में आने वाली समस्याओं को ज्ञात किया जा सकता है। इस प्रकार प्रचलित पाठ्यचर्या में प्रश्नावली, समाजमीति, निरीक्षण, साक्षात्कार, मौखिक परीक्षण, लिखित परीक्षण आदि द्वारा उपयुक्त आँकड़े प्राप्त करके औचित्यपूर्णता के साथ उपयोगी सुधार किए जा सकते हैं जिनका लाभ छात्रों तथा शिक्षकों को प्राप्त होगा।

7) भविष्य में उपयोगिता का सिद्धान्त- पाठ्यचर्या में केवल उन्हीं विषयों एवं प्रकरणों को ही सम्मिलित करना चाहिए जो बालकों के भविष्य हेतु उपयोगी मार्ग प्रशस्त करें। बालकों के सफल जीवनयापन के लिए व्यवसायिक स्थायित्व होना अति आवश्यक है, इस स्थायित्व को बनाए रखने हेतु पाठ्यचर्या, शिक्षा का बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंग है। अतः पाठ्यचर्या ऐसा हो जिससे बालक अपने भावी जीवन में अनुकूलन तथा समायोजन करना सीखे तथा उसमें ऐसी अभिवृत्तियाँ विकसित हो ताकि वह स्वयं व परिवार तथा देश के लिए एक उदाहरण बन सके। वर्तमान परिस्थितियों को समझने में सक्षम बने एवं परिस्थिति जन्य या अन्य कारण से उत्पन्न होने वाली समस्याओं के समाधान को करने में सक्षम हो सके। इस प्रकार की योग्यता बालक में पाठ्यचर्या के विषयों का अध्ययन करके स्वतः ही विकसित होगी।

8) संस्कृति के प्रसार का सिद्धान्त- एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ज्ञान, अनुभव, तकनीकी, इतिहास, सांस्कृतिक तत्त्व, सभ्यता, भाषाएँ आदि को हस्तान्तरित करने का मुख्य साधन शिक्षा ही है एवं शिक्षा यह कार्य पाठ्यचर्या के माध्यम से पूर्ण करती है। पाठ्यचर्या निर्माण के समय इन बातों को स्पष्ट दृष्टिगत किया जाना चाहिए कि उसमें ऐसे विषयों को स्थान दिया जाए जो कि बालकों तक हमारी संस्कृति एवं सभ्यता का पहुँचाएं जिससे हमारी संस्कृति एवं सभ्यता का संरक्षण एवं विस्तार होगा। आज के युग के छात्र हमारे प्राचीनकाल से परिचित हो सकेंगे तथा अपनी संस्कृति एवं सभ्यता पर गौरवान्वित होंगे। भविष्य में भी संस्कृति एवं सभ्यता को संरक्षित करने का प्रयास करेंगे।

9) विकास का सिद्धान्त- पाठ्यचर्या निर्माण का सिद्धान्त विकास पर आधारित होता है। प्रत्येक देश की शिक्षा पर उसकी सामाजिक, राजनैतिक तथा आर्थिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। यह समयानुसार परिवर्तित भी होती रहती है। इस प्रकार सदैव एक ही प्रकार की पाठ्यचर्या उपयोगी नहीं रहती है। पाठ्यचर्या निर्माण एक सतत् परिवर्तनशील प्रक्रिया है। इसमें निरन्तरता तभी बनी रहती है जब समाज में आवश्यक परिवर्तन होते रहते हैं अतः पाठ्यचर्या के विकास के लिए इन परिवर्तनों की जानकारी होना अति आवश्यक है। इसमें सतत् एवं निरन्तरता रखने से पाठ्यचर्या समाज के समक्ष नवीन स्वरूप में आता रहेगा अन्यथा यह उपयोगी नहीं रह जायेगा तथा इसमें नीरसता आ जाएगी एवं पाठ्यचर्या के विषय शिक्षकों एवं छात्रों के लिए बोझिल हो जाएंगे।

10) सामाजिकता का सिद्धान्त- पाठ्यचर्या के निर्माण के समय पाठ्यचर्या निर्माताओं एवं विशेषज्ञों को सामाजिक परिस्थितियों एवं स्थानीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखना चाहिए। वे सभी मान्यताओं, आदर्शों, समस्याओं एवं आवश्यकताओं को पाठ्यचर्या में स्थान दे। सामाजिकता के सिद्धान्त के सन्दर्भ में कोठारी आयोग, मुदालियर आयोग, राष्ट्रीय शिक्षा नीति, नई शिक्षा नीति की सदैव ही सकारात्मक संस्तुति हमारे समक्ष उपस्थित है। उपरोक्त सभी आयोगों एवं शिक्षा नीतियों की अनुशंसा से पाठ्यचर्या में कई उचित सुधार किए गए हैं। माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार, “पाठ्यचर्या सामुदायिक जीवन के सजीव एवं अनिवार्य अंग के रूप में सम्बन्धित होना चाहिए।”

According to Secondary Education Commission Report, “Curriculum must be vitally and organically related to community life.”

11) अनुभवों पर आधारित सिद्धान्त- शिक्षा जगत के अतिरिक्त भी अन्य क्षेत्रों के व्यक्तियों के अनुभव अति मूल्यवान होते हैं। इसी प्रकार पाठ्यचर्या के विषय में मनुष्यों के अनुभवों का विश्लेषण आवश्यक है अथवा यह कहा जाना चाहिए कि पाठ्यचर्या में अनुभवों को स्थान मिलना आवश्यक है। आधुनिक समय में परम्परागत विषयों की महत्ता कम हुयी है क्योंकि इनका स्थान नवीन, विषयों ने ले लिया है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि उन विषयों के महत्त्व को विस्मृत कर दिया जाए। विद्यालय की क्रियाएँ, व्यावहारिकताएं, प्रयोगशालाएं, पुस्तकालयों, छात्रों, अभिभावकों, शिक्षकों के साथ औपचारिक एवं अनौपचारिक सम्बन्ध बनाए रखना एवं उनके अनुभवों को पाठ्यचर्या में स्थान देना चाहिए जिससे कि भविष्य के छात्रों को आवश्यक सूचनाएँ प्राप्त हो सके।

12) मूल्य आधारित सिद्धान्त- छात्रों के उत्तम जीवन के लिए मूल्य आधारित शिक्षा उपलब्ध कराना अति आवश्यक है। बालक के जीवन को सफल, व्यवहार कुशल, सामाजिक, आदर्श बनाने के लिए मूल्य आधारित प्रकरणों एवं विषयों को पाठ्यचर्या में सम्मिलित किया जाना चाहिए एवं पाठ्यचर्या में ऐतिहासिक चरित्रों, ऐतिहासिक घटनाओं, परोपकार की कहानियाँ, राष्ट्रीयता की शिक्षा आदि का समावेश करना चाहिए। पाठ्यचर्या में नैतिक शिक्षा को भी अनिवार्य किया जाना चाहिए।

13) नागरिकता का सिद्धान्त- शिक्षा का सर्वोत्तम लक्ष्य अच्छे नागरिकों का निर्माण होता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति पाठ्यचर्या के माध्यम से ही सम्भव है। अतः पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय विशेषज्ञों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि पाठ्यचर्या में ऐसी पाठ्यवस्तु एवं विषयों को सम्मिलित किया जाए जिससे बालकों में नागरिक कुशलता की भावना का विकास हो सके। नागरिक कुशलता से तात्पर्य यह है कि बालक नागरिकों के अधिकारों एवं कर्त्तव्यों को समझ सके एवं अपने गाँव, नगर एवं स्थानीय वातावरण को उत्कृष्ट बनाने में सहयोग करे। इस प्रकार छात्र उत्तम नागरिक बनेंगे।

14) जनतन्त्र पर आधारित सिद्धान्त- आधुनिक समय में हमारे देश में लोकतन्त्रीय व्यवस्था प्रचलित है। इस प्रणाली को और सुदृढ़ बनाने के लिए छात्रों में जनतन्त्रीय भावना का संचार करना अति आवश्यक है। यह उद्देश्य शिक्षा के माध्यम से पूर्ण होता है अतः पाठ्यचर्या में ऐसे विषयों को रखा जाए जिससे यह भावना विकसित हो। इसके लिए सबसे उपयुक्त स्थान विद्यालय के अतिरिक्त दूसरा नहीं हो सकता है। विद्यालय से सम्बद्ध प्रत्येक अभिक्रिया में जनतन्त्रीय भाव होना चाहिए, चाहे वह अध्ययन हो या अध्यापन हो। इस प्रक्रिया में शिक्षकों तथा अभिभावकों का भी योगदान होना चाहिए।

अतः उपरोक्त सिद्धान्तों द्वारा यह कहा जा सकता है कि शिक्षा में इन बातों को यदि दृष्टिगत रखकर पाठ्यचर्या का निर्माण किया जाए तो बालक का सर्वांगीण विकास भी होता है एवं शिक्षा के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सरलता हो जाती है। उपरोक्त सिद्धान्त शिक्षा में व्यावहारिक है जिन्हें लागू करने से शैक्षिक समस्याओं के समाधान में सहायता मिलती है। इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर पाठ्यचर्या का निर्माण किया जाता है। पाठ्यचर्या का निर्माण के पदों का वर्णन आगे किया जा रहा है।

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