ज्ञान के स्रोत | Sources of Knowledge in Hindi
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ज्ञान के स्रोत | Sources of Knowledge in Hindi

ज्ञान के स्रोत (Sources of Knowledge)

ज्ञान के स्रोतों को निम्न बिन्दुओं द्वारा भली-भाँति समझ सकते हैं-

1) प्राथमिक स्रोत (Primary Source)- इस प्रकार के स्रोतों के अन्तर्गत वे स्रोत आते हैं जो सर्वप्रथम हमारे सामने सूचनाओं को उपस्थित करते हैं। प्राथमिक स्रोत के माध्यम से प्राप्त सूचनाएँ पूर्णतया हमारे द्वारा सूचनाओं को पहचानने एवं समझने की योग्यता पर आधारित होती हैं इसी कारण इस प्रकार के स्रोत बहुत ज्यादा विश्वसनीय नहीं होते। यदि इन स्रोतों से प्राप्त ज्ञान का परीक्षण करके इसे शुद्ध न किया जाए तो ज्ञान की प्रकृति दूषित होने की सम्भावना रहती है। प्राथमिक स्रोत के रूप में इन्द्रियों को सम्मिलित किया जा सकता है। इन्द्रियाँ (Senses) जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन, सांख्य दर्शन, योग दर्शन, न्याय दर्शन एवं अद्वैत वेदान्त में इन्द्रियों को प्राथमिक साधन के रूप में माना गया है। अद्वैत वेदान्त ने इन्द्रियों को बाह्य साधन माना है।

2) द्वितीय स्रोत (Secondary Source) – प्राथमिक स्रोत के विपरीत द्वितीयक स्रोत के अन्तर्गत इन स्रोतों को सम्मिलित किया जा सकता है जो कि निम्नलिखित हैं-

i) सत्तात्मक स्रोत (Authoritative Sources)- इसके अन्तर्गत प्रमाणिक पुस्तकों, वेदों, साहित्यों, उपनिषदों, धार्मिक ग्रन्थों एवं पुस्तकों को सम्मिलित किया जाता है। इनसे प्राप्त ज्ञान को प्रमाणिक ज्ञान माना जाता है। इस प्रकार के ज्ञान वैध एवं विश्वसनीय होते हैं क्योंकि इनको काफी तर्क एवं सोच समझकर इसमें सम्मिलित किया जाता है। इस प्रकार के स्रोतों में प्रमाणिकता का मुख्य आधार इसमें व्याप्त मूल्य एवं उद्देश्यों की स्पष्टता होती है। इस प्रकार के साधनों के अन्तर्गत ही विद्यालय में पढ़ाए जाने वाले पुस्तकों को भी सम्मिलित किया जा सकता है क्योंकि ये पुस्तकें एवं इसमें निहित ज्ञान भी समुचित चिन्तन-मनन के बाद ही विषय-वस्तु के रूप में सम्मिलित किया जाता है।

ii) अप्रमाणिक स्रोत (Unauthenticated Sources)- इस प्रकार के द्वितीयक स्रोत के अन्तर्गत उन स्रोतों को सम्मिलित कर लिया जाता है जो कि ज्ञान तो प्रदान करते हैं पर इनके प्रमाणिक होने की संभावना अधिक नहीं होती। इस प्रकार के स्रोतों से एकत्रित सूचनाओं की जाँच पड़ताल करना आवश्यक होता है। इस प्रकार के स्रोत के रूप में निम्नलिखित स्रोतों को शामिल किया जा सकता है-

a) अनुभव जन्य ज्ञान (Experience Based Knowledge) – अनुभव से प्राप्त ज्ञान हमारे व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित होते हैं। इसलिए इस प्रकार का ज्ञान व्यक्तिनिष्ठ (Subjective) होता है। इसमें वस्तुनिष्ठता (Objectives) का अभाव हो सकता है।

b) इन्टरनेट से प्राप्त सामग्री (Internet Based Material)- इंटरनेट से प्राप्त सभी प्रकार के ज्ञान को हम प्रमाणिक नहीं मान सकते क्योंकि कई बार सूचनाएँ सही नहीं होती हैं। इसलिए इस प्रकार के ज्ञान के स्रोत को सावधानीपूर्वक विश्लेषण के बाद ही प्रमाणिक बनाया जा सकता है।

3) परम्पराओं एवं दन्त कथाओं से प्राप्त ज्ञान (Knowledge Derived from Traditions and Legends)- इस प्रकार के ज्ञान को हम परम्पराओं के नाम पर प्रयोग तो कर रहे होते हैं पर इनका कोई स्पष्ट आधार न होने के कारण ये प्रमाणिक नहीं माने जा सकते। अन्धविश्वास (Superstitions), जादू, टोने-टोटके आदि को हम इसी वर्ग में सम्मिलित कर सकते हैं।

4) तर्क-चिन्तन एवं बुद्धि (Logical Thinking and Intelligence) – बुद्धि का प्रयोग करके प्राप्त ज्ञान को तर्क चिन्तन के माध्यम से शुद्ध ज्ञान में परिवर्तित कर प्राप्त किया जा सकता है। तर्क के माध्यम से प्राप्त ज्ञान की यह विशेषता होती है कि या तो यह निगमन विधि (Deductive Method) पर आधारित होता है या आगमन विधि (Inductive Method) पर निधि के आधारित होता है। आगमन अन्तर्गत अनुभवों का सामान्यीकरण किया जाता है अर्थात् किसी एक व्यक्ति या घटना के आधार पर ज्ञान को सही ज्ञान नहीं माना जाता बल्कि बहुत सारे व्यक्तियों के अनुभवों या एक जैसी बहुत सारी घटनाओं का अवलोकन करके उनमें व्याप्त सामान्य (General) या एक जैसे (Similar) ज्ञान को सही ज्ञान के रूप में स्थापित किया जाता है। विज्ञान के द्वारा प्रदान किए गए सभी ज्ञान इसी श्रेणी में आते हैं। आगमन विधि का प्रयोग करके भी ज्ञान स्थापित किया जाता है। इस विधि के अन्तर्गत तात्कालिक ज्ञान को तर्क के आधार पर सिद्ध किया जाता है। यदि ज्ञान की प्रामाणिकता सिद्ध कर दी जाती है तब वह शुद्ध ज्ञान मान लिया जाता है यदि प्रामाणिकता सिद्ध नहीं हो पाती है तो इसको निष्कासित कर दिया जाता है।

5) अन्तःप्रज्ञा अथवा अन्तर्दृष्टि (Insight or Intuition) – इस प्रकार के ज्ञान के स्रोत से प्राप्त ज्ञान संयोग एवं अत्यधिक बुद्धि का परिणाम होते हैं। ज्यादातर विद्वानों ने इस प्रकार के स्रोत को आध्यात्मिक स्रोत माना है इस प्रकार के स्रोत से प्राप्त ज्ञान का कोई स्पष्ट आधार नहीं होता है परन्तु इसकी सार्थकता इसके प्रयोग किए जाने की सम्भावना पर निर्भर होती है। मनोवैज्ञानिकों की एक शाखा गेस्टाल्टवादियों ने अन्तर्दृष्टि को एक प्रमुख स्रोत के रूप में बताया है। इसकी उत्पत्ति में परिस्थितियों एवं बुद्धि का उचित मिश्रण पाया जाता है। इसकी एक प्रमुख विशेषता एकाएक उत्पन्न होना’ है। उदाहणार्थ- आर्किमिडीज़ का सिद्धान्त इसी प्रकार के स्रोत का परिणाम था।

6) सामाजिक अन्तःक्रिया (Social Interactions) – ड्यूवी महोदय का मानना था कि “समाज में रहते हुए दूसरे व्यक्तियों के साथ अन्तःक्रिया करते समय भी ज्ञान का सृजन होता है”। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित को सम्मिलित किया जा सकता है-

  1. समाज (Society)
  2. संस्कृति (Culture)

समाज के सदस्य एक दूसरे के साथ अन्तःक्रिया करते समय कई प्रकार के नए ज्ञान का सृजन एवं पुराने ज्ञान का आदान-प्रदान करते रहते हैं। संस्कृति भी ज्ञान का एक विशाल भण्डार है जो किसी समाज की धरोहर के रूप में व्याप्त होती है।

7) अन्तर्राष्ट्रीय अन्तःक्रिया (International Interactions) – सिर्फ समाज ही नहीं बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अब अन्तःक्रिया होने लगी है। आधुनिकता के कारण इस प्रकार की अन्तःक्रिया अधिक बढ़ गई है। इसके कारण ज्ञान को संसार के एक कोने से दूसरे कोने में फैलाया जा रहा है।

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