एक नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का मूल्यांकन
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एक नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का मूल्यांकन
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एक नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का मूल्यांकन
एक नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का मूल्यांकन

नमस्कार दोस्तों हमारी आज के post का शीर्षक है  एक नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का मूल्यांकन उम्मीद करतें हैं की यह आपकों अवश्य पसंद आयेगी | धन्यवाद |

मैकेन्जी ने अन्तः प्रज्ञावाद को दो रूपों में परिभाषा दी है। एक सामान्य अर्थ में उत्तर दूसरा संकुचित अर्थ में उनके अनुसार सामान्य अर्थ में अन्तः प्रज्ञावाद वह सिद्धान्त जिसके अनुसार कर्म अपनी आन्तरिक प्रकृति के अनुसार उचित या अनुचित होते हैं, न किन्हीं वाह्य साध्यों के कारण, जैसे सत्य बोलना एक कर्त्तव्य है, इसलिए नहीं कि वह कि वह सामाजिक कल्याण के लिए आवश्यक है, या कोई और बाहरी कारण है, बल्कि इसलिए कि वह स्वतः उचित है। संकुचित अर्थ में अन्तः प्रज्ञावाद वह सिद्धान्त है जो कर्मों पर निर्णय देने वाली अन्तः प्रज्ञा को एक ऐसी शक्ति के रूप में मानता है जिसके निर्णय का विरोध या जिसके निर्णय की अपील सम्भव नहीं है। इन दोनों अर्थों के अनुसार यही स्पष्ट होता है कि अन्तःप्रज्ञवाद वह सिद्धान्त है जिसके अनुसार मनुष्य के अन्दर अन्तः प्रज्ञा नामक ऐसी शक्ति विद्यमान है जो किसी कर्म को उचित, अनुचित का सहज और साक्षात् ज्ञान, बिना परिणाम और उद्देश्य का विचार किये ही प्राप्त कर लेता है।

यदि उपर्युक्त परिभाषा की व्याख्या की जाय तो स्पष्ट होगा कि मनुष्य प्रज्ञा-सम्पन्न प्राणी है। इसी प्रज्ञा को कुछ लोगों ने अन्त:करण, विवेकशक्ति, अन्तरात्मा अथवा नैतिक बुद्धि की संज्ञा दी है। इसी को छठीं इन्द्रिय और ‘ईश्वरीय आवाज’ तक भी कहा जाता है। प्रज्ञा या अन्त करण कर्मों के औचित्य और अनौचित्य को जानता है और तदनुकूल आचरण करने के लिए आदेश भी देता है अर्थात् उचित कर्म करने और अनुचित कर्म न करने का आदेश देता है। किसी कर्म के नैतिक निर्णय के लिए इसके न्यायलय रखने पर यह किसी विरोध या अपील को नहीं सुनता। अन्तःकरण के न्यायालय में कर्म का औचित्य-अनौचित्य सिद्ध करने के लिए किसी तर्क या प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। अन्तः प्रज्ञा को यह स्वतः और साक्षात् ज्ञान हो जाता है कि सत्य बोलना उचित है और झूठ बोलना अनुचित। इस शक्ति से आन्तरिक रूप में ज्ञान हो जाता है, इसे अन्त अनुभूतिवादू भी कहते र नियमों का ज्ञान साक्षात् रूप में बिना किसी अन्य माध्यम के होता है, इसलिए इसे अपरोक्ष ज्ञानवाद भी कठिनाई के सहजता से हो जाता है। चूंकि इस शक्ति से नैतिक-अनौतिक का ज्ञान बिना किसी इसलिए इसे महज ज्ञानवाद भी कहते हैं।

अनेक दार्शनिकों ने किसी-न-किसी रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का समर्थन किया है, सत्रहवीं शताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी तक इस मत का इतना महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है कि अधिकांश नैतिक विचारकों ने इसकी मान्यताओं को स्वीकार किया है। वडवर्थ, बलार्क, बोलोस्टन, रीड, शेफ्ट्सबरी, हचिसन, स्मिथ, मार्टिनो, बटलर, मूर, प्रिचर्ड एवं राँस आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। प्रायः सभी दार्शनिकों ने अन्तःप्रज्ञा को आन्तरिक शक्ति के रूप में स्वीकार किया है, जिससे नैतिक गुणों का ज्ञान होता है। अन्तःकरण के स्वरूप को लेकर इन दार्शनिकों में दो प्रकार के हो गये। एक अदार्शनिक दुसरा दार्शनिक अन्तः प्रज्ञावाद अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद के अनुसार अन्तःकरण एक इन्द्रिय की भांति है, जिससे बिना किसी तर्क-विचार के नैतिक गुणों का ज्ञान सहज हो जाता के है। दार्शनिक अन्तः प्रज्ञावाद के अनुसार अन्तःकरण का स्वरूप बौद्धिक है। अर्थात् कम के के नैतिक निर्णय में बुद्धि का भी योगदान रहता है। अनुमान और तर्क के आधार पर कर्मों के नैतिक गुणों का ज्ञान किया जाता है। अन्तःप्रज्ञा के स्वरूप पर मतभेद होते हुए भी अन्तःप्रज्ञावादी यह मानते हैं कि नैतिक ज्ञान का मुख्य आधार अन्तःप्रज्ञा है।

अन्तःप्रज्ञावाद की विशेषताएँ एवं सिद्धान्त –

अन्तःप्रज्ञाबाद की निम्नलिखित विशेषताएँ है –

अन्त प्रज्ञा सार्वजनीन है

अन्तःप्रज्ञा या अन्तःकरण सभी मनुष्यों में पाया जाता है। इसीलिए इसे सार्वजनीन कहा जाता है परन्तु ऐसा नहीं है कि सभी मनुष्यों में यह समान रूप से विद्यमान है। किसी में अधिक विकसित रूप में रहती है और किसी में कम |

अपरोक्ष और सहजज्ञान

अन्तः प्रज्ञा से कर्म के औचित्य और अनौचित्य का ज्ञान सहजता से प्रत्यक्ष रूप में होता है, क्योंकि इसमें अनुमान या तर्क की आवश्यकता नहीं होती। इसका ज्ञान अपरोक्ष होता है।

अन्तःकरण अव्युत्पन्न है

यह किसी शक्ति से उत्पन्न नहीं हुआ है और नहीं किसी सभ्यता या समाज के कारण पैदा हुआ है। इसीलिए यह जटिल नहीं सरल है।

प्रभुत्वसम्पन्नता

अन्तःकरण प्रभुत्व सम्पन्न होता है। इसका अर्थ यह है कि इसका आदेश सर्वोपरि होता है। इसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। इसका निर्णय और आदेश शंका से परे होता है। जिस कर्म को करने के लिए यह आदेश देता है वह उचित माना जाता है और जिसको न करने का आदेश देता है वह अनुचित होता है। आदेश देने की क्षमता के अर्थ में अन्तःकरण प्रभुत्त्व सम्पन्न है।

अन्तःकरण अभ्रान्त होता है

इसके निर्णय में कभी भूल नहीं होती अर्थात् इसका निर्णय असंदिग्ध होता है। यह ऐसा न्यायालय है जिसके निर्णय के विरोध में कभी अपील नहीं की जा सकती।

अन्तः प्रज्ञावाद एवं नैतिक गुण

अन्तःप्रज्ञावाद में निम्नलिखित नैतिक गुण हैं –

नैतिक गुण कर्म में समाहित होते हैं

नैतिक गुण किसी नियम पर निर्भर नहीं है। अर्थात कर्म की अच्छाई-बुराई कर्म में समाहित रहती है। कोई कर्म स्पष्टतः उचित या अनुचित होता है। किसी बाह्य परिणाम पर उसकी अच्छाई-बुराई निर्भर नहीं करती। जैसे ‘सत्य’ स्वयं में उचित है, किसी परिणाम के कारण नहीं।

नैतिक गुण मौलिक हैं

नैतिक गुण किसी नियम पर निर्भर नहीं है अर्थात् किसी नियम से उत्पन्न नहीं होते। इसीलिए इन्हें अव्युत्पन्न कहा जाता है। बुद्धि द्वारा इसे बदला नहीं जा सकता। उचित, उचित ही रहेगा। इसीलिए इसे अपरिवर्तनीय कहा जाता है।

नैतिक गुण प्राक्-अनुभविक होते हैं

नैतिक गुण अनुभव-निरपेक्ष होते हैं अर्थात् इन्हें अनुभव से नहीं प्राप्त किया जाता।

नैतिक गुण अद्वितीय होते हैं

नैतिक गुण अनुपम होते हैं। इनको किसी अन्य गुण में नहीं बदला जा सकता। नैतिक कर्म किसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए नहीं होते। यह स्वतः उचित या अनुचित होते हैं। किसी कारण या लक्ष्य से नहीं।

नैतिक गुण वस्तुनिष्ठ होते है

अन्तःप्रज्ञावाद के अनुसार नैतिक नियम और कर्म किसी व्यक्ति की भावना या मन पर निर्भर नहीं करते। नैतिक गुण स्वतः में अच्छे या बुरे होते हैं। किसी की इच्छानुसार अच्छे और बुरे नहीं कहे जा सकते। जिस प्रकार किसी वस्तु का गुण उसी में होता है अर्थात् हमसे स्वतन्त्र होता है, उसी प्रकार नैतिक गुण भी किसी के विचार या इच्छा से स्वतंत्र और वस्तुनिष्ठ होते हैं।

अन्तःप्रज्ञावाद की आलोचना

यह वस्तुतः सत्य है कि मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है। मनुष्य के अन्दर अव्यक्त रूप से विवेक या अन्तःकरण की एक शक्ति विद्यमान है, जिसके आधार पर ही वह सद् असद् का विवेचन करता है। मानवीय और पाशविक कर्मों का निर्णय इसी विवेक शक्ति पर निर्भर है। यदि यह कहा जाय कि नैतिकता का प्रश्न इसी शक्ति के रहते खड़ा होता है तो इसके अतिश्योक्ति नहीं होगी। सम्भवतः इसी गुण के कारण अन्तः प्रज्ञावाद को नीतिशास्त्र में अकाट्य सिद्धान्त के रूप में स्वीकार किया गया है। अन्तःप्रज्ञावाद सभी नैतिक सिद्धान्तों की जड़ में है। इसी के आधार पर मनुष्य के नैतिक चैतन्य की व्याख्या सम्भव कही जा सकती है परन्तु अन्तःप्रज्ञावाद का नीतिशास्त्र में इतना अधिक महत्त्व होते हुए भी हम यह नहीं कह सकते कि यह निर्दोष एवं समीचीन सिद्धान्त है, क्योंकि इसकी कुछ ऐसी आलोचनाएँ की गयी है जिसका समुचित उत्तर इसके पास नहीं है। इस सिद्धान्त में कुछ दोष है जो निम्नलिखित हैं –

अन्तः प्रज्ञा अव्युत्पन्न नहीं है

अन्तःप्रज्ञावादी कहते हैं कि अन्तःप्रज्ञा अव्य उत्पन्न है। कहीं से प्राप्त नहीं की जाती है। यह जन्मजात है, परन्तु विकासवाद के सिद्धान्त से इसका खण्डन हो जाता है। विकासवादी मत के अनुसार अन्तःकरण विकासशील है। सामाजिक परम्परा और रीतिरिवाज से अन्तःकरण में परिवर्तन होता रहता है। सती प्रथा कभी अन्तःकरण की आवाज मानी जाती रही, परन्तु अब इसे जघन्य अपराध समझा जाने लगा। अतः सिद्ध है कि अन्तःप्रज्ञा या अन्तःकरण समाज-परम्परा की देन है, यह अव्युत्पन्न नहीं है।

अन्तः प्रज्ञावाद का निर्णय अपरोक्ष और स्वयंसिद्ध नहीं है

अन्तः प्रज्ञावाद के समर्थक मानने है कि अन्तःकरण का निर्णय अपरोक्ष और स्वयं सिद्ध होता है जैसे सत्य बोलना चाहिये’ इसका ज्ञान अपरोक्ष होता है और स्वयं सिद्ध भी है, परन्तु सिजविक ने इसकी आलोचना की है। इसके अनुसार प्रज्ञा के निर्णय मध्यमवर्गीय स्वयं सिद्धियाँ है, क्योंकि ‘सत्य बोलना चाहिये’ का पालन सदैव नहीं किया जा सकता है |

अन्तः प्रज्ञावाद एकांगी सिद्धान्त है

अन्तःप्रज्ञावाद दो अर्थों में एकांगी सिद्ध होता है। एक तो अन्तः प्रज्ञा को मानव की सम्पूर्णता का द्योतक नहीं माना जा सकता। यह तो मानव का अंग विशेष है। मानव व्यक्तित्व में अनेक तत्त्व होते है, उनमें से एक प्रज्ञा भी है। प्रज्ञा के आदेश का पालन करने का अर्थ हुआ व्यक्तित्व के अंग विशेष का पालन। नैतिक शक्ति को सम्पूर्ण व्यक्तित्त्व का द्योतक होना चाहिए न कि अंग विशेष का। अतः इस अर्थ में प्रज्ञाबाद एकांगी है। दूसरे अर्थ में प्रज्ञावाद एकांगी इस लिए है यह नैतिक निर्णय देने में परिणाम निरपेक्ष दृष्टिकोण रखता है, अर्थात् भावना का नहीं, बुद्धि का समर्थन करता है, पन्तु नैतिक निर्णय में भावनाओं का प्रवेश अनिवार्य हो जाता है। अतः भावना को नैतिक निर्णय में स्थान न देने के कारण भी यह एकांगी प्रतीत होता है।

यद्यपि अन्तः प्रज्ञावाद में अनेक दोष है। फिर भी नीतिशास्त्र में इसका अपना विशिष्ट स्थान है, और यदि अन्त: प्रज्ञा के आदेश या निर्णय को एक आदर्श के रूप में मान लिया जाय तो इसके सभी दोषों का निराकरण सम्भव कहा जा सकता है क्योंकि आदर्श ही मानव व्यवहार की सबसे बड़ी कसौटी है। प्रज्ञा के आदेश उल्लंघनीय होते हुए भी मार्गदर्शन तो करते ही है। इसी अर्थ में मनुष्य की विवेकशीलता सार्थक होती है। अतः इसमें अनेक दोष होते हुए भी इसको नीतिशास्त्र का प्रमुख आधार मानते हैं। 

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