नीतिशास्त्र तथा धर्म के मध्य सम्बन्ध | relationship between ethics and religion in Hindi
नमस्कार दोस्तों हमारी आज के post का शीर्षक है नीतिशास्त्र तथा धर्म के मध्य सम्बन्ध उम्मीद करतें हैं की यह आपकों अवश्य पसंद आयेगी | धन्यवाद |
नीतिशास्त्र की परिभाषा
‘Ethics’ ग्रीक शब्द ‘Ethica’ से व्युत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ होता है रीति, प्रचलन या आदत। इसे नीति-विज्ञान भी कहा जाता है। ‘Morality’ शब्द की उत्पत्ति ‘Mores’ से हुई है। का भी अर्थ है प्रचलन या रीति। अतः नीतिशास्त्र का सम्बन्ध प्रचलन, रीति या आदत से है। रीति-रिवाज, प्रचलन या आदत मनुष्य के वैसे कर्म हैं, जिनका उसे अभ्यास हो गया है। ये सब मनुष्य के अभ्यास जन्य आचरण हैं।
मनुष्य की ऐच्छिक क्रियाओं को ही आचरण कहा जाता है। यों तो क्रियाएँ विश्व के सभी पदार्थ, जीव या निर्जीव में होती हैं, पर सभी आचरण नहीं कहा जाता। वैसी क्रियाएँ आचरण कहीं जाती हैं, जिन्हें किसी संकल्प या इच्छा से किया गया हो। मनुष्य की भी सभी क्रियाएँ ऐच्छिक नहीं होती, जैसे, छींकना, साँस लेना, आदि-आदि। तो नीतिशास्त्र का सम्बन्ध ऐच्छिक क्रिया या आचरण से है।
आचरण का भी अध्ययन दो दृष्टियों से सम्भव है। एक तो यह कि मनुष्य का आचरण कैसा होता है कैसे हम कोई काम करते हैं। दूसरे, इस दृष्टि से कि मनुष्य का आचरण कैसा होना चाहिए अर्थात् हमें कैसा काम करना चाहिए-हमारा कौन-सा आचरण उचित है और कौन-सा अनुचित । नीतिशास्त्र का सम्बन्ध आचरण के औचित्य और अनौचित्य से है। कैसे कर्म को उचित और किसे अनुचित कहा जाना चाहिए , यही इसकी समस्या है।
कर्मों के औचित्य-अनौचित्य को परखने के लिए कोई नियम आवश्यक है। बिना किसी मापदंड (नियम) के यह कैसे जाना जा सकता है कि अमुक कर्म कैसा है? बिना किसी नियम के किसी भी पदार्थ का मूल्यांकन सम्भव नहीं है। किसी भी पदार्थ वे सौन्दर्य को जब हम मापने लगते हैं तो ‘सुन्दरता’ के आदर्श की जो हमारी अवधारणा है उससे उसकी तुलना करते हैं।
यदि वह पदार्थ उस मानसिक तस्वीर के अनुकूल होता है तो उसे सुन्दर कहते हैं और यदि विपरीत तो कुरूप। सौन्दर्य मापने में हमें सौन्दर्य-सम्बन्धी आदर्श, मापदण्ड या नियम की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार कर्मों के औचित्य-अनौचित्य को मापने के लिए एक नैतिक मापदण्ड, आदर्श या नियम की आवश्यकता है, जिससे तुलना करके यह कहा जा सके कि वास्तव में कौन से कर्म उचित या अनुचित हैं।
यों तो सभी मनुष्य कर्मों के औचित्य-अनौचित्य का निर्णय कर लेते हैं, पर उन्हें उस नैतिक आदर्श का पता नहीं रहता, जिससे तुलना करके उन्होंने निर्णय किया है या वे उस नैतिक आदर्श की विवेचना नहीं करते। अतः नितिशास्त्र का लक्ष्य है जीवन का वास्तविक आदर्श क्या है या आचरण का नियम या मापदण्ड क्या है इसकी मीमांसा करना। नीतिशास्त्र को इसीलिए उचित आचरण या आचरण के आदर्श का विज्ञान कहा जाता। है।
मनुष्य का आचरण उसके चरित्र पर निर्भर है। जैसा चरित्र है, वैसा ही मनुष्य का आचरण होता है। चरित्र मनुष्य के संकल्प करने के अभ्यास (Habit of will) को कहा जाता है। चरित्र ही के कारण समान परिस्थितियों में दो मनुष्यों का दो प्रकार का आचरण हो जाता है। मान लें कि दो विद्यार्थियों को किसी शिक्षक ने अमुक समय पर बुलाया। उसी समय वर्षा होने लगी।
एक भोगता हुआ भी जाता है और दूसरा नहीं जाता भिन्न आचरण भिन्न चरित्र के कारण हुआ। मनुष्य का आचरण, इसीलिए उसके चरित्र को व्यक्त करता है। अच्छा आचरण उसी का होता है, जिसका चरित्र शुद्ध है। बुरे कर्म कलुषित चरित्रवाले करते हैं। चरित्र और आचरण का सम्बन्ध वृक्ष की जड़ और उसके फल के समान है। जैसी जड़ा वैसा फल। इसलिए जब नीतिशास्त्र को उचित आचरण। का विज्ञान कहा जाता है तो उसे चरित्र का विज्ञान भी कहा जा सकता है।
नीतिशास्त्र तथा धर्म में सम्बन्ध
धर्म तथा नीतिशास्त्र में परस्पर क्या और कितना सम्बन्ध है इस प्रश्न का कोई निश्चित उत्तर देना बहुत कठिन है, क्योंकि इस विषय में दार्शनिकों में अत्यधिक मदभेद हैं। कुछ दार्शनिक नीतिशास्त्र को धर्म का एक भाग मात्र मानकर उसका स्वतंत्र अस्तित्त्व ही स्वीकार नहीं करते। इसके विपरीत कुछ अन्य दार्शनिकों का विचार है कि नीतिशास्त्र का धर्म के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि इन दोनों के क्षेत्र तथा उद्देश्य में मौलिक अंतर है। यहाँ इन दोनों मतों पर संक्षेप में विचार करते हुए यह जानने का प्रयास किया जाएगा कि इनमें से कौन सा मत सत्य के अधिक निकट है।
यद्यपि धर्म को कोई निश्चित एवं सर्वमान्य परिभाषा देना लगभग असम्भव है, फिर भी यह कहा जा सकता है कि किसी दैवी शक्ति में मनुष्य की दृढ़ आस्था प्रायः धर्म का मूल आधार है और यह आस्था उसमें कुछ ऐसी भावना उत्पन्न करती है जिस से प्रेरित हो कर वह उस दैवी शक्ति की अराधना अथवा उपासना करता है तथा अपने समस्त कर्मों के लिए अपने आप को उसी के प्रति उत्तरदायी मानता है।
इस प्रकार ईश्वर अथवा किसी अन्य दैवी शक्ति में मानव को भावनात्मक आस्था धर्म के लिए सामान्यतः आवश्यक है, अतः धर्म का सम्बन्ध मानव की बुद्धि से न होकर मूलतः उसकी भावना से ही है। अधिकतर धर्म परायण व्यक्ति यह मानते हैं कि मनुष्य के समस्त कर्म-जिनमें उसके नैतिक कर्म भी सम्मिलित है-ईश्वर या किसी अन्य देवी शक्ति की इच्छा द्वारा ही शासित एवं निर्धारित होते हैं, उसको अपनी इच्छा द्वारा नहीं। इसी कारण सभी धर्मपरायण विचारकों ने नैतिकता को मानवीय इच्छा स्वातंत्र्य पर आधारित न मानकर केवल ईश्वरीय इच्छा पर ही निर्भर माना है।
मध्य युग में जब सम्पूर्ण मानव जीवन पर धर्म का अत्यधिक प्रभाव था, पादरियों, पंडितों अथवा मौलवियों के वचनों को ही ईश्वरीय वचन समझा जाता था और उनके अनुसार आचरण करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य माना जाता था, अतः उस काल में धर्म से भिन्न नैतिकता का कोई अस्तित्व नहीं था। यह मध्ययुगीन परम्परा आज भी पूर्णतः समाप्त नहीं हुई, क्योंकि वर्तमान शताब्दी में भी अनेक धर्मपरायण विचारक नैतिकता को धर्म से अलग नहीं मानते। इस सम्बन्ध में कार्ल बार्थ, एमिल चूनर तथा रेनहोल्ड नीबर के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ये सभी विचारक धर्म से पृथक् नीतिशास्त्र के स्वतंत्र अस्तित्त्व को स्वीकार नहीं करते। इस सम्बन्ध में कार्ल बाबर ने स्पष्ट कहा है –
“मैं तथाकथित नीतिशास्त्र को ईश्वरीय आदेश के रूप में ही देखता हूँ और इससे भिन्न रूप में उस पर विचार करना उचित नहीं समझता।”
नीतिशास्त्र के सम्बन्ध में यूनर भी बार्थ के उक्त मत का पूर्णतया समर्थन करते हैं। वे भी नीतिशास्त्र की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार नहीं करते और ईश्वरीय इच्छा को हो समस्त नैतिक कर्मों के मूल्यांकन का एकमात्र मानदंड मानते हैं। शुभ तथा अशुभ की परिभाषा देते हुए उन्होंने कहा है कि –
“ईश्वर जो कुछ करता तथा चाहता है वही शुभ है, , और जो कुछ ईश्वरीय इच्छा के विरुद्ध है वह अशुभ है। केवल ईश्वरीय इच्छा में रही शुभ का आधार एवं अस्तित्त्व निहित है। ..सदा ईश्वर की इच्छा अनुसार कर्म करना हो शुभ है।”
इस प्रकार धर्मपरायण दार्शनिकों के मतानुसार नैतिकता सम्बन्धी सम्पूर्ण ज्ञान और सत्य का मूल आधार केवल ईश्वर अथवा कोई अन्य दैवी शक्ति है जिस की सहायता तथा कृपा के बिना मनुष्य इस सत्य एवं ज्ञान को कभी प्राप्त नहीं कर सकता। जिस व्यक्ति पर ईश्वर की विशेष कृपा होती है यही नैतिकता सम्बन्धी सत्य को जान सकता है और नैतिकता का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि धर्मपरायण विचारक नीतिशास्त्र को एक स्वतंत्र विज्ञान न मानकर उसे धर्मशास्त्र का ही एक भाग मात्र मानते हैं।
इसके विपरीत बहुत से दार्शनिकों के मतानुसार नीतिशास्त्र का धर्म के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि दोनों के उद्देश्य में मौलिक भेद है। नैतिक दृष्टि से कर्म किसी न किसी रूप में दूसरे मनुष्यों को प्रभावित करने के कारण ही शुभ या अशुभ माने जाते हैं, जबकि धार्मिक दृष्टि से कर्मों को केवल इसलिए शुभ अथवा अशुभ माना जाता है कि वे दैवी इच्छा के अनुकूल प्रतिकूल हैं।
नीतिशास्त्र का मूल उद्देश्य मनुष्य को यह बताना है कि उसके लिए शुभ क्या है और अन्य व्यक्तियों के प्रति उसके कर्त्तव्य क्या है? शुभ तथा कर्त्तव्य के इस ज्ञान के लिए किसी देवो शक्ति में आस्था की आवश्यकता नहीं है जो धर्म का मूल आधार है। फिर अज तक कोई भी दार्शनिक निश्चित रूप से ईश्वर या किसी अन्य दैवी शक्ति सत्ता को प्रमाणित नहीं कर सका।
ऐसी स्थिति में ईश्वर को नैतिक कर्मों का मूल आधार मानना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता। वस्तुत: नैतिक शुभ के ज्ञान की प्राप्ति तथा अपने और दूसरों के प्रति नैतिक कर्त्तव्यों का पालन करने के लिए ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करना और उसमें आस्था रखना आवश्यक नहीं है। इसका कारण यह है कि मनुष्य की नैतिकता तथा ईश्वर में उसकी आस्था इन दोनों में कोई अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है।
अनेक महान विचारकों का आचरण और जीवन-दर्शन इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। कार्ल मार्क्स, बरट्रैन्ड रसल, गिल्बर्ट मरे, ज्या पाल सात्रं आदि महान दार्शनिक ईश्वर की सत्ता को स्वीकार न करते हुए भी मानव मात्र के प्रति अपने कर्तव्यों के सम्बन्ध में अत्यधिक सजग और संवेदनशील रहे हैं।
यह स्थिति केवल दार्शनिकों के लिए ही नहीं, जीवन और जगत् के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले सामान्य सुशिक्षित व्यक्तियों के लिए सम्भव है। ईश्वर के अस्तित्त्व में विश्वास न करते हुए भी विचारशील सामान्य व्यक्ति अपने समस्त नैतिक कर्तव्यों का भलीभांति पालन कर सकता है। ऐसी स्थिति में ईश्वर की इच्छा को नैतिकता का अनिवार्य आधार मानना किसी भी दृष्टि से उचित एवं तर्क संगत प्रतीत नहीं होता।
यहां यह उल्लेखनीय है कि नैतिकता को ईश्वरीय इच्छा पर निर्भर मान लेने से अनेक दार्शनिक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं। सबसे पहली कठिनाई तो यही है कि अभी तक ईश्वर की सत्ता ही संदिग्ध है। किन्तु यदि ईश्वर के अस्तित्त्व को मान भी लिया जाये तो भी नैतिकता और ईश्वरीय इच्छा के सम्बन्ध में ऐसे अनेक जटिल प्रश्न उठते हैं जिनका सर्वमान्य एवं निश्चित उत्तर देना असंभव है।
उदाहरणार्थ हम यह निश्चित रूप से कैसे जान सकते हैं कि हमारे नैतिक कर्तव्यों के सम्बन्ध में ईश्वर की वास्तविक इच्छा क्या है फिर यदि हमें ईश्वर की इच्छा का ठीक-ठीक ज्ञान हो भी जाय तो भी यह प्रश्न उठता है कि हम उसकी इच्छा के अनुसार आचरण क्यों करें यदि हम ईश्वर द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कार की आशा अथवा दंड के भय से प्रेरित होकर ही शुभ कर्म करते हैं तो , जैसा कि कान्ट ने कहा है , हमारा आचरण वास्तविक नैतिकता के विरुद्ध होगा, क्योंकि पुरस्कार का लोभ या दंड का भय सच्ची नैतिकता का मूल आधार कदापि नहीं हो सकता।
वास्तव में कान्ट का यह मत उचित ही प्रतीत होता है कि सच्ची नैतिकता ईश्वर अथवा किसी अन्य बाह्य शक्ति की इच्छा पर आधारित न हो कर सदैव आत्मारोपित होती है अर्थात् मनुष्य किसी बाह्य कारण से विवश न होकर स्वयं अपनी इच्छानुसार ही नैतिक नियमों का पालन करता है।
यहां यह कहा जा सकता है कि हमें ईश्वर की इच्छा के अनुसार इसलिए आचरण करना चाहिए कि वह शुभ है। यदि इस मत को स्वीकार कर लिया जाय तो नैतिकता का मूल आधार ईश्वर की इच्छा नहीं अपितु उसका शुभत्त्व हो माना जाएगा। इसका अर्थ यह होगा कि नैतिक शुभत्व ईश्वर की इच्छा से भिन्न और स्वतंत्र है।
ऐसी स्थिति में केवल ईश्वर का आदेश ही नैतिकता का मूल आधार नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त उक्त मत को स्वीकार कर लेने से हमें कम से कम दो महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का निश्चित उत्तर अवश्य देना होगा। पहला प्रश्न तो यह है कि ईश्वर की इच्छा के शुभ या अशुभ होने का वास्तविक मानदंड क्या है और इसे कौन तथा कैसे निश्चित कर सकता है। दूसरा प्रश्न यह है कि हुम ईश्वर की इच्छा के शुभ अथवा अशुभ होने का वास्तविक ज्ञान कैसे प्राप्त कर सकते और इस ज्ञान की सत्यता को परीक्षा कैसे कर सकते हैं।
वस्तुतः इन जटिल प्रश्नों के संतोषप्रद उत्तर के अभाव में नैतिकता को ईश्वरीय इच्छा अथवा आदेश पर आधारित नहीं माना जा सकता और इनका कोई सर्वमान्य एवं निश्चित उत्तर देना लगभग असम्भव है। जहां तक हमें ज्ञात है, किसी भी धर्मपरायण विचारक ने इन प्रश्नों का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया। यह कहा जा सकता है कि नैतिकता किसी भी दृष्टि से ईश्वरीय इच्छा अथवा आदेश पर निर्भर नहीं है, तथा नीतिशास्त्र धर्म से पूर्णतः भिन्न और स्वतंत्र विज्ञान है।
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नीतिशास्त्र की परिभाषा क्या है ?
‘Ethics’ ग्रीक शब्द ‘Ethica’ से व्युत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ होता है रीति, प्रचलन या आदत। इसे नीति-विज्ञान भी कहा जाता है।‘Morality’ शब्द की उत्पत्ति‘Mores’ से हुई है। का भी अर्थ है प्रचलन या रीति। अतः नीतिशास्त्र का सम्बन्ध प्रचलन, रीति या आदत से है। रीति-रिवाज, प्रचलन या आदत मनुष्य के वैसे कर्म हैं, जिनका उसे अभ्यास हो गया है।
नीतिशास्त्र तथा धर्म में क्या सम्बन्ध है ?
धर्म तथा नीतिशास्त्र में परस्पर क्या और कितना सम्बन्ध है इस प्रश्न का कोई निश्चित उत्तर देना बहुत कठिन है, क्योंकि इस विषय में दार्शनिकों में अत्यधिक मदभेद हैं। कुछ दार्शनिक नीतिशास्त्र को धर्म का एक भाग मात्र मानकर उसका स्वतंत्र अस्तित्त्व ही स्वीकार नहीं करते। इसके विपरीत कुछ अन्य दार्शनिकों का विचार है कि नीतिशास्त्र का धर्म के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि इन दोनों के क्षेत्र तथा उद्देश्य में मौलिक अंतर है। यहाँ इन दोनों मतों पर संक्षेप में विचार करते हुए यह जानने का प्रयास किया जाएगा कि इनमें से कौन सा मत सत्य के अधिक निकट है।
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क्या साध्य साधन को उचित ठहराता है?
नमस्कार दोस्तों हमारी आज के post का शीर्षक है क्या साध्य साधन को उचित ठहराता है? उम्मीद करतें हैं की यह आपकों अवश्य पसंद आयेगी | धन्यवाद |
क्या साध्य साधन के औचित्य को सिद्ध करता है?
क्या केवल प्रयोजन ही नैतिक निर्णय का विषय है? इस पर विचार करते समय हम लोगों ने देखा कि प्रयोजन (लक्ष्य या साध्य) के साथ साधन या उन उपायों पर भी नैतिक दृष्टि से विचार करना होगा, जिनसे कार्य या साध्य की सिद्धि होती है। अतः यह तो निश्चित हो गया कि साध्य और साधन दोनों नैतिक निर्णय के विषय है।
परन्तु साध्य साधन का प्रश्न बड़ा विवादास्पद है। इसके सम्बन्ध में दो मत हैं। एक मत के अनुसार साध्य साधन के औचित्य को सिद्ध करता है अर्थात् यदि साध्य अच्छा है तो साधन कैसा भी हो वह अच्छा माना जाएगा। दूसरे मत के अनुसार साधन ही साध्य के औचित्य को सिद्ध करता है।
अर्थात् साध्य साधन को औचित्य नहीं प्रदान करता साध्य के साथ-साथ साधन भी उचित और पवित्र होना चाहिए। यहीं पर एक प्रश्न और भी खड़ा होता है कि क्या साध्य कभी भी साधन के औचित्य को नहीं सिद्ध करता? यहाँ हम इस प्रश्न का उत्तर देंगे तथा साध्य-साधन के विवाद के दो विपरीत मतों की विवेचना करेंगे।
साध्य साधन के औचित्य को सिद्ध करता है
कुछ विचारकों के अनुसार यदि साध्य शुभ और पवित्र है तो वह साधन को भी पवित्र बना देता है। इसके अनुसार यदि साध्य नैतिक है तो साधन अपने आप नैतिक हो जाएगा। पवित्र साध्य को किसी भी साधन से प्राप्त किया जा सकता है। इनकी दृष्टि से ‘अन्त भला तो सब भला’ महत्त्वपूर्ण है। विशेष रूप से कार्लमार्क्स और उनके अनुयायी इसी मत के पोषक है।
मार्क्स ने साम्यवाद की स्थापना को साध्य माना और इसके लिए किसी भी साधन को काम में लाना उचित समझा। गरीबों के हित के लिए सर्वहारा वर्ग के सुखी जीवन के लिए, समाज में समता की स्थिति लाने के लिए, उन्होंने सशस्त्र क्रान्ति को साधन के रूप में प्रयुक्त किया, शान्ति के उपायों से समता नहीं लायी जा सकती है। मार्क्स की दृष्टि में साध्य साधन के औचित्य को सिद्ध करता है। अर्थात् यदि साध्य अशुभ और अनैतिक है तो शुभ और अच्छा साधन भी अशुभ और अनैतिक हो जाएगा।
पूँजीपति गरीबों का शोषण करने के लिए उनको धार्मिक उपदेश सुनाते हैं, दान देते हैं, मन्दिर का निर्माण करते हैं। ऊपर से देखने में तो ये सभी साधन शुभ, पवित्र और नैतिक लगते हैं, परन्तु क्या इन्हें वास्तव में नैतिक कहा जा सकता है? नहीं। यह स्पष्ट है कि पूंजीपतियों का साध्य हो अनैतिक है अतः उसकी सिद्धि के लिए प्रयुक्त पवित्र साधन भी अपवित्र हो जाता है।
अतः सिद्ध है कि साध्य हो साधन के औचित्य को सिद्ध करता है अर्थात् साध्य के नैतिक होने पर साधन स्वतः नैतिक हो जाएगा। हमारे देश के पौराणिक ग्रन्थों में ऐसे अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं, जिनमें अच्छे साध्य के लिए अनेक निकृष्ट उपायों को काम में लाया गया है। छल, कपट, झूठ आदि अनेक उपायों से स्वयं भगवान् कहे जाने वाले पुरुषों ने भी अपने साध्य की सिद्धि की है।
सामान्य और व्यक्तिगत हित के लिए अधिकांश रूप में यही दृष्टिकोण अपनाया जाता है, चुनानों में विजय होने या प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए भौतिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए भी कितने लोग इस मत का समर्थन करते हैं।
क्या साधन, के औचित्य को प्रमाणित करता है?
ऊपर के मत के ठीक विपरीत यह दूसरा मत है जिस पर अध्यात्मवादी विचारक विशेष रूप से बल देते हैं। गाँधी, बिनोवा, टालस्टाय और श्री अरविन्द इस मत को स्वीकार करते हैं कि साधन ही साध्य का औचित्य सिद्ध करता है। गाँधी जी ‘हिन्द स्वराज्य’ में लिखते हैं कि ‘साधन बीज है और साध्य वृक्ष, इसलिए जो सम्बन्ध बीज और वृक्ष में है वही सम्बन्ध साधन और साध्य में है। ‘हम जैसा करते हैं वैसा फल पाते हैं।
जैसा साधन वैसा साध्य । अर्थात् यदि बीज खराब बोया गया तो वृक्ष भी खराब हो जाता है। वैसे ही बुरे और खराब साधन से साध्य भी बुरा हो जाता है। गाँधी जी का दृष्टिकोण था कि परम साध्य के विषय में स्पष्ट और निश्चित ज्ञान नहीं किया जा सकता। ऐसी स्थिति में साध्य नहीं साधन ही हमारे हाथ में है। हम अच्छे साधन से ही अच्छे साध्य को प्राप्ति कर सकते हैं। साधन को पवित्रता से साध्य की पवित्रता सिद्ध होती है।
सत्याग्रह और अहिंसा को उन्होंने साधन के रूप में ही ग्रहण किया था। उनका कहना था कि यदि भारत की स्वतंत्रता हिंसा से प्राप्त की जाएगी तो हिंसा के द्वारा समाप्त भी होगी। अतः साधन की पवित्रता का परिणाम पवित्र साध्य ही होता है। इसी तरह संत विनोवा ने आर्थिक और सामाजिक क्रान्ति के लिए सर्वोदय और अहिंसा को ही स्वीकार किया। इस सम्बन्ध में श्री अरविन्द की यही विचारधारा है।
उनके अनुसार, ‘हमारे साधन उतने ही महान् होने चाहिए जितना हमारा साध्य।’ इन से यही सिद्ध होता है कि साधन ही साध्य के औचित्य को प्रमाणित करता है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि यदि अच्छा साधन होगा तो साध्य भी अच्छा होगा इस प्रकार दोनों ही पक्ष अपने समर्थन में प्रवल तर्क प्रस्तुत करते हैं, परन्तु निष्पक्ष रूप में विचार करने पर इनकी कमियाँ भी स्पष्ट होती हैं।
आलोचना
एकांगी
साध्य-साधन के इस विवाद को देखकर पता चलता है कि दोनों ही मत एकांगी है क्योंकि समस्त स्थितियों में इनको सत्य नहीं कहा जा सकता।
अनीति का समर्थन करना
यदि प्रथम विचारधारा को सत्य माना जाय अर्थात् यदि यह सिद्ध किया जाय कि साध्य साधन के औचित्य को सिद्ध करता है तो इससे अनीति का समर्थन होता है। भले-बुरे दोनों व्यक्तियों का साध्य तो एक हो सकता है परन्तु उनके साधन भिन्न-भिन्न हो सकते हैं।
यदि यह नियम मान लिया जाय तो फिर नैतिक-अनैतिक का भेद करना संभव नहीं होगा। फिर तो संत विनोबा और डाकू मानसिंह में अन्तर नहीं किया जा सकता, क्योंकि दोनों का साध्य गरीबों की भलाई करना है परन्तु उनके साधन अलग-अलग है। एक अमीरों में दान में प्राप्त धन से गरीबों की सेवा करता है। दूसरा लूट और हिंसा के धन से सेवा करता है। अतः इस मत को मानना अनीति का समर्थन करना होगा।
न्याय का आधार समाप्त हो जाएगा
यदि इस मत का समर्थन किया जायेगा तो न्याय का कोई आधार ही नहीं रह पाएगा, तब तो एक अपराधी या हत्यारा मृत्युदण्ड से छुटकारा की माँग कर सकता है। वह यह तर्क दे सकता है कि उसका साध्य अच्छा था इसलिए उसका साधन भी अच्छा था। अतः साध्य साधन के औचित्य को नहीं सिद्ध कर सकता।
दूसरे मत की आलोचना करने पर पता चलता है कि वह भी प्रत्येक दशा में उचित नहीं सिद्ध किया जा सकता। अर्थात् आवश्यक नहीं है कि अच्छे साधन से सदा ही साध्य की प्राप्ति की जा सकती है। साध्य की सिद्धि के लिए हमें कभी-कभी बुरे साधनों का भी उपयोग करना पड़ता है। साधन साध्य के औचित्य को सिद्ध करता है, इसके विरोध में निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं, जिनसे इस प्रश्न का भी उत्तर प्राप्त किया जा सकता है कि क्या साध्य साधन को कभी भी प्रमाणित नहीं करता?
साध्य से होने वाला लाभ और उसकी अच्छाई
यदि साध्य से प्राप्त साधन से मिलने वाले कष्ट और हानि से कई गुना अच्छा और अधिक हो तो साध्य साधन को प्रमाणित करता है। उदाहरण के लिए यदि किसी रोगी के एक सड़ते हुए पैर को डॉक्टर काटकर निकाल नहीं देता तो उसके जीवित रहने की संभावना समाप्त हो जाती है। ऐसी स्थिति में जीवन रक्षा के उद्देश्य से उस पैर को काटकर निकाल देना उचित और अच्छा कहा जाएगा। या पिता अपने पुत्र के भावी जीवन को सुखमय बनाने के लिए यदि उसे गलत कार्य करने और सुधार लाने के लिए पौटता है, तो पीटना बुरा साधन होते हुए भी लक्ष्य की अच्छाई के कारण साधन को भी अच्छा माना जाएगा।
अतः सिद्ध है कि कभी-कभी साध्य साधन के औचित्य को सिद्ध करता है।
केवल एक ही साधन होने पर
यदि किसी साध्य की प्राप्ति के लिए केवल एक ही साधन बचता है तो ऐसी स्थिति में साध्य साधन के औचित्य को सिद्ध करता है। जैसे यदि जीवन-रक्षा के लिए यदि एक मात्र उपाय सड़ते हुए पैर को काटना ही है तो इस बुरे साधन को उचित कहा जाएगा। ऐसी विवशता में साध्य साधन के औचित्य को सिद्ध करता है। जहाँ एक साध्य का एक ही साधन हो वहाँ साधन की अपवित्रता पर ध्यान नहीं दिया जाता। अपवित्र साधन भी पवित्र हो जाता |
साध्य के प्रति आन्तरिक प्रेम और निष्ठा
यदि कर्म अपने साध्य के प्रति आन्तरिक प्रेम के कारण घृणा या विद्वेष के कारण नहीं, कोई कार्य करता है और उसके लिए बुरे साधन का प्रयोग करता है तो भी वह बुरा साधन उचित ही कहा जाएगा। जैसे पिता आन्तरिक प्रेमवश हो पुत्र को सुधारने और उसके हित के लिए पीटता है। इसलिए उसका पौटना अनुचित नहीं कहा जाएगा। अतः इन उपर्युक्त तकों से यह भी निष्कर्ष निकलता है कि हम यह नहीं कह सकते कि साध्य साधन के औचित्य को कभी भी सिद्ध नहीं करता। अर्थात् कुछ अपवाद स्वरूप ऐसी परिस्थितियाँ हैं जिसमें साध्य साधन को औचित्य प्रदान करता है।
निष्कर्ष यह है कि सामान्यतः साध्य साधन को औचित्य प्रदान नहीं करता। इस मत को हम सामान्य नियम नहीं बना सकते। साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि सदैव अच्छे साधन ही प्रयोग में नहीं लाए जा सकते अर्थात् साधन साध्य को प्रभावित भी नहीं करता। दोनों को परिस्थिति विशेष में विवेक और शुद्धबुद्धि निर्णीत करना पड़ेगा। साध्य और साधन दोनों ही नैतिक निर्णय के विषय हैं।
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क्या केवल प्रयोजन ही नैतिक निर्णय का विषय है? इस पर विचार करते समय हम लोगों ने देखा कि प्रयोजन (लक्ष्य या साध्य) के साथ साधन या उन उपायों पर भी नैतिक दृष्टि से विचार करना होगा, जिनसे कार्य या साध्य की सिद्धि होती है।
क्या साधन, के औचित्य को प्रमाणित करता है?
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बौद्ध दर्शन के निवार्ण के स्वरूप की व्याख्या
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बौद्ध दर्शन के निर्वाण का स्वरूप
उत्तर द्वितीय आर्य-सत्य में बुद्ध ने दुःख के कारण को माना है। इससे प्रमाणित होता है कि यदि दुःख के कारण का अन्त हो जाय तो दुःख का भी अन्त अवश्य होगा। जब कारण का ही आभाव होगा, तब कार्य की उत्पत्ति कैसे होगी? वह अवस्था जिसमें दुःखों का अन्त होता है ‘दुःख निरोध’ कही जाती है।
दुःख निरोध को बुद्ध ने निर्वाण कहा है। ‘निर्वाण’ को पाली में ‘निब्बान’ कहा जाता है। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक होगा कि भारत के अन्य दर्शनों में जिस सत्ता को मोक्ष कहा गया है उसी सत्ता को बौद्ध-दर्शन में निर्वाण की संज्ञा से विभूषित किया गया है। इस प्रकार निर्वाण और मोक्ष समानार्थक हैं। बौद्ध दर्शन में निर्वाण शब्द अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसे जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है। यही बौद्ध धर्म का मूलाधार है। तृतीय आर्य सत्य में निर्वाण की विशेषताओं का उल्लेख है।
निर्वाण की प्राप्ति इस जीवन में भी सम्भव है। एक मानव इस जीवन में भी अपने दुःखों का निरोध कर सकता है। एक व्यक्ति यदि अपने जीवनकाल में ही राग, द्वेष, मोह आसक्ति, अहंकार इत्यादि पर विजय पा लेता है, तब वह मुक्त हो जाता है। वह संसार में रहकर भी सांसारिकता से निर्लिप्त रहता है। मुक्त व्यक्ति को अर्हत् कहा जाता है।
अर्हत् बौद्ध दर्शन में एक आदरणीय सम्बोधन है। महात्मा बुद्ध ने पैतीस वर्ष की अवस्था में बोधि को प्राप्त किया था। उसके बाद भी वे पैंतालिस वर्ष तक जीवित थे। बुद्ध की तरह दूसरे लोग भी निर्वाण को जीवनकाल में प्राप्त कर सकते हैं। निर्वाण-प्राप्ति के बाद शरीर कायम रहता है, क्योंकि शरीर पूर्व जन्म के कर्मों का फल है। जब तक वे कर्म समाप्त नहीं होते हैं, शरीर विद्यमान रहता है।
बुद्ध की यह धारणा उपनिषदों की जीवन-मुक्ति से मेल खाती है। बौद्ध दर्शन के कुछ अनुयायी जीवन-मुक्ति और विदेह-मुक्ति की तरह निर्वाण और परिनिर्वाण में भेद करते हैं। परिनिर्वाण का अर्थ है मृत्यु के उपरान्त निर्वाण की प्राप्ति बुद्ध को परिनिर्वाण की प्राप्ति अस्सी वर्ष की अवस्था में हुई जब उनका देहान्त हुआ। अतः निर्वाण का अर्थ जीवन का अन्त नहीं है, अपितु यह एक ऐसी अवस्था है जो जीवनकाल में ही प्राप्य है।
निर्वाण निष्क्रियता की अवस्था नहीं है। निर्वाण प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को सभी कर्मों का त्याग कर बुद्ध के चार आर्य-सत्यों को मनन करना पड़ता है। परन्तु जब ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है तब उसे अलग रहने की आवश्यकता नहीं महसूस होती। इसके विपरीत वह लोक कल्याण की भावना से प्रेरित होकर कार्यान्वित दीख पड़ता है। निर्वाण प्राप्ति के बाद महात्मा बुद्ध को अकर्मण्य रहने का विचार हुआ था।
परन्तु संसार के लोगों को दुःखों से पीड़ित देखकर उन्होंने अपने विचार को बदला। जिस नाव पर चढ़कर उन्होंने दुःख-समुद्र को पार किया था, उस नाव को तोड़ने के बजाय उन्होंने अन्य लोगों के हित के लिए रखना आवश्यक समझा। लोक-कल्याण की भावना से प्रेरित होकर बुद्ध ने घूम-घूमकर अपने उपदेशों को जनता के बीच रखा दुःखों से पीड़ित मानव को आशा का सन्देश दिया। उन्होंने अनेक संघों की स्थापना की। धर्म प्रचार के लिए अनेक शिष्यों को विदेशों में भेजा। इस प्रकार बुद्ध का सारा जीवन कर्म का अनोखा उदाहरण रहा है। अतः निर्वाण का अर्थ कर्म-संन्यास समझना प्रान्तिमूलक है।
यहाँ पर एक आक्षेप उपस्थित किया जा सकता है यदि निर्वाण प्राप्त व्यक्ति संसार के कर्मों में भाग लेता है तो किये गये कर्म संस्कार का निर्माण कर उस व्यक्ति को बन्धन को अवस्था में क्यों नहीं बाँधते? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है बुद्ध ने दो प्रकार के कर्मों को माना है। एक प्रकार का कर्म वह है जो राग, द्वेष तथा मोह से संचालित होता है। इस प्रकार के कर्म को आसक्त कर्म कहा जाता है। ऐसे कर्म मानव को बन्धन की आवस्था में बाँधते हैं जिसके फलस्वरूप मानव को जन्म ग्रहण करना पड़ता है।
दूसरे प्रकार का कर्म वह है जो राग, द्वेष एवं मोह से रहित होकर तथा संसार को अनित्य समझकर किया जाता है। इस प्रकार के कर्म को अनासक्त कर्म कहा जाता है। जो व्यक्ति अनासक्त भाव से कर्म करता है वह जन्म ग्रहण नहीं करता।
इस प्रकार के कर्मों की तुलना बुद्ध ने भूंजे हुए बीज से की है जो पौधे की उत्पत्ति में असमर्थ होता है। आसक्त कर्म की तुलना बुद्ध ने उत्पादक बीज से की है जिसके वपन से पौधे की उत्पत्ति होती है। जो व्यक्ति निर्वाण को अपनाते हैं, उनके कर्म अनाशक्ति की भावना से संचालित होते हैं। इसलिए कर्म करने के बावजूद उन्हें कर्म के फलों से छुटकारा मिल जाता है। बुद्ध की अनासक्त-कर्म-भावना गीता की निष्काम कर्म भावना से मिलती-जुलती है।
बुद्ध ने निर्वाण के सम्बन्ध में कुछ नहीं बतलाया। उनसे जब भी निर्वाण के स्वरूप के सम्बन्ध में कोई प्रश्न पूछा जाता था तब वे मौन रहकर प्रश्नकर्ता को हतोत्साहित करते थे। उनके मौन रहने के फलस्वरूप निर्वाण के सम्बन्ध में विभिन्न धारणाएँ विकसित हुई।
कुछ विद्वानों ने निर्वाण का शाब्दिक अर्थ बुझा हुआ लिया। कुछ अन्य विद्वानों ने निर्वाण का अर्थ शीतलता लिया। इस प्रकार निर्वाण के शाब्दिक अर्थ को लेकर विद्वानों के दो दल हो गये। इन दो दलों के साथ-ही-साथ निर्वाण के समबन्ध में दो मत हो गए। जिन लोगों ने निर्वाण का अर्थ बुझा हुआ समझा उन लोगों ने निर्वाण के सम्बन्ध में जो मत दिया, उसे निषेधात्मक मत कहा जाता है। जिन लोगों ने निर्वाण का शाब्दिक अर्थ शीतलता समझा उन लोगों ने निर्वाण के सम्बन्ध में जो मत दिया उसे भावात्मक मत कहा जाता है। सर्वप्रथम हम निर्माण के निषेधात्मक मत पर प्रकाश डालेंगे।
निषेधात्मक मत के समर्थकों ने निर्वाण का अर्थ बुझा हुआ समझा है। उन लोगों ने निर्वाण की तुलना दीपक के बुझ जाने से की है। जिस प्रकार दीपक के बुझ जाने से उसके प्रकाश का अन्त हो जाता है उसी प्रकार निर्वाण प्राप्त करने के बाद व्यक्ति के समस्त दुःख मिट जाते हैं। निर्माण के इस अर्थ को प्रभावित होकर कुछ बौद्ध अनुयायी एवं अन्य विद्वानों ने निर्वाण का अर्थ पूर्ण विनाश समझा है।
इन लोगों के कथनानुसार निर्वाण प्राप्त करने के बाद व्यक्ति के अस्तित्त्व का विनाश हो जाता है। अतः इन लोगों ने निर्वाण का अर्थ जीवन का अन्त समझा है। इस मत के समर्थकों ने ओल्डनबर्ग, बौद्ध धर्म के हीनयान सम्प्रदाय और पौल दहल के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। निर्वाण का यह निषेधात्मक मत तर्कसंगत नहीं है।
यदि निर्वाण का अर्थ पूर्ण-विनाश अर्थात् जीवन का अन्त माना जाय, तब यह नहीं कहा जा सकता है कि मृत्यु के पूर्व बुद्ध ने निर्वाण को अपनाया बुद्ध के सारे उपदेश इस बात के प्रमाण हैं कि इन्होंने मृत्यु के पूर्व ही निर्वाण को अपनाया था। यदि इस विचार का खंडन किया जाय, तब बुद्ध के सारे उपदेश एवं उनके निर्वाण प्राप्ति के विचार कल्पनामात्र हो जाते हैं। अतः निर्वाण का अर्थ जीवन का अन्त समझना भ्रमात्मक है।
क्या निर्वाण प्राप्त व्यक्ति का अस्तित्त्व मृत्यु के पश्चात् रहता है? बुद्ध से जब यह प्रश्न पूछा जाता था तो वे मौन हो जाते थे। उनके मौन रहने के कारण कुछ लोगों ने यह अर्थ निकाला कि निर्वाण प्राप्त करने के बाद व्यक्ति का अस्तित्त्व नहीं रहता है। परन्तु बुद्ध के मौन रहने का यह अर्थ निकालना उनके साथ अन्याय करना है। उनके मौन रहने का सम्भवतः यह अर्थ होगा कि निर्वाण प्राप्त व्यक्ति की अवस्था अवर्णनीय है।
प्रो० मैक्समूलर और चाइलडर्स ने निर्वाण-विषयक वाक्यों का सतर्क अध्ययन करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला है कि निर्वाण का अर्थ कहीं भी पूर्ण विनाश नहीं है। यह सोचना कि निर्वाण व्यक्तित्त्व-प्रणाश की अवस्था है बुद्ध के अनुसार एक दुष्टतापूर्ण विमुखता है। यह जान लेने के बाद कि निर्वाण अस्तित्त्व का उच्छेद नहीं है, निर्वाण सम्बन्धी भावात्मक मत की काद व्याख्या करना परमावश्यक है।
भावात्मक मत के समर्थकों ने निर्वाण का अर्थ शीतलता लिया है। बौद्ध दर्शन में वासना, , क्रोध, मोह, भ्रम, दुःख इत्यादि को अग्नि के तुल्य माना गया है। निर्वाण का अर्थ वासना एवं दुःख रूपी आग का ठण्डा हो जाना है। निर्वाण के इस अर्थ पर जोर देने के फलस्वरूप कुछ विद्वानों ने निर्वाण को आनन्द की अवस्था कहा है। इस मत के मानने का वालों में प्रो० मैक्समूलर, चाइलडर्स्, श्रीमती रायज डेविड्स, डॉक्टर राधाकृष्णन्, पूसिन इत्यादि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
रायज डेविड्स ने निर्वाण को इस प्रकार व्यक्त किया है –
“निर्वाण मन की पापहीन शान्तावस्था के समरूप है जिसे सबसे अच्छी तरह पवित्रता, क पूर्ण शान्ति, शिवत्त्व और प्रज्ञा कहा जा सकता है।”
पूसिन ने निर्वाण को –
“पर, द्वीप, अत्यन्त, अमृत, अमृतपद और निःश्रेयस् कहा है।”
डॉक्टर राधाकृष्णन् के शब्दों में –
” निर्वाण , जो आध्यात्मिक संघर्ष की सिरि है , भावात्मक आनन्द की अवस्था है।”
इन विद्वानों तरिक्त पाली ग्रन्थों में भी निर्वाण को आनन्द की अवस्था माना गया है। के अतिरिक्त धम्मपद में निर्वाण को आनन्द, चरम सुख, पूर्ण शान्ति तथा लोभ, घृणा और भ्रम से रहिव अवस्था कहा गया है। (निब्बानं परमं सुखम्)। अंगुत्तर निकाय में निर्वाण को आनन्द एवं अवस्था के रूप में चित्रित किया गया है।
निर्वाण को आनन्दमय अवस्था मानने के फलस्वरूप पवित्रता के कुछ विद्वानों ने बौद्ध दर्शन पर पर सुखवाद का आरोप लगाया है। निर्वाण को आनन्द को अवस्था मानने के कारण बुद्ध को सुखवादी कहना भ्रमात्मक अनुभूति सुख की अनुभूति से भिन्न है। सुख की अनुभूति अस्थायी और दुःखप्रद है, परन्तु क्योंकि आनन्द की आनन्द की अनुभूति आमृत तुल्य है।
निर्वाण का मुख्य स्वरूप यह है कि वह अनिर्वचनीय है तक और विचार के माध्यम से इस अवस्था को चित्रित करना असम्भव है। डॉक्टर दास गुप्त ने कहा है-लौकिक अनुभव के रूप में निर्वाण का निर्वाचन मुझे एक असाध्य कार्य प्रतीत होता है यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ सभी लौकिक अनुभव निषिद्ध हो जाते हैं, इसका विवेचन भावात्मक प्रणाली से शायद ही सम्भव है। डॉक्टर कीथ ने भी इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए कहा है सभी व्यावहारिक शब्द अवर्णनीय का वर्णन करने में असमर्थ है।
बौद्ध धर्म के प्रमुख धर्मोपदेशक नागसेन ने यूनान के राजा मिलिन्द के सम्मुख निर्वाण की व्याख्या उपमाओं की सहायता से की है। निर्वाण को उन्होंने सागर की तह गहरा, पर्वत की तरह ऊँचा और मधु की तरह मधुर कहा है। इसके साथ ही साथ उन्होंने यह भी कहा है कि निवार्ण के स्वरूप का ज्ञान उसे ही हो सकता है जिसे इसकी अनुभूति प्राप्त है। जिस प्रकार अन्धे को रंग का ज्ञान कराना सम्भव नहीं है उसी प्रकार जिसे निर्वाण की अनुभूति अप्राप्य है, उसे निर्वाण का ज्ञान कराना सम्भव नहीं है। अतः निर्वाण की जितनी परिभाषाएँ दी गई हैं वे निर्वाण के यथार्थ स्वरूप बतलाने में असफल हैं।
निर्वाण की प्राप्ति मानव के लिए लाभप्रद होती है। इससे मुख्यत: तीन लाभ प्राप्त होते हैं।
निर्वाण से सर्वप्रथम लाभ
यह है कि इससे समस्त दुःखों का अन्त हो जाता है। दुःखों के समस्त कारणों का अन्त कर निर्वाण मानव को दुःखों से मुक्ति दिलाता है।
निर्वाण का दूसरा लाभ
यह है कि इससे पुनर्जन्म की सम्भावना का अन्त हो जाता है। जन्म-ग्रहण के कारण नष्ट हो जाने से निर्वाण प्राप्त व्यक्ति जन्म-ग्रहण के बन्धन से छुटकारा पा जाता है। कुछ विद्वानों ने निर्वाण के शाब्दिक विश्लेषण से यह प्रमाणित किया है कि निर्वाण पुनर्जन्म का अन्त है।‘निर्वाण’ शब्द‘निर्’ और वाण शब्द के सम्मिश्रण से बना है। ‘निर्’ का है अर्थ है ‘नहीं’ और ‘वाण’ का अर्थ है ‘पुनर्जन्म-पथ’। अतः निर्वाण का अर्थ पुनर्जन्म रूपी पथ का अन्त हो जाना है।
निर्वाण का तीसरा लाभ
यह है कि निर्वाण प्राप्त व्यक्ति का शेष जीवन शान्ति से बीतता है। निर्वाण से प्राप्त शान्ति और सांसारिक वस्तुओं से प्राप्त शान्ति में अन्तर है। सांसारिक वस्तुओं से जो शान्ति प्राप्त होती है वह अस्थायी एवं दुःखदायी है। परन्तु निर्वाण से प्राप्त शान्ति आनन्ददायक होती है। निर्वाण के ये भावात्मक लाभ हैं, जबकि अन्य दो वर्णित लाभ निषेधात्मक हैं।
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बौद्ध दर्शन के निर्वाण का स्वरूप क्या है ?
द्वितीय आर्य-सत्य में बुद्ध ने दुःख के कारण को माना है। इससे प्रमाणित होता है कि यदि दुःख के कारण का अन्त हो जाय तो दुःख का भी अन्त अवश्य होगा। जब कारण का ही आभाव होगा, तब कार्य की उत्पत्ति कैसे होगी? वह अवस्था जिसमें दुःखों का अन्त होता है ‘दुःख निरोध’ कही जाती है। दुःख निरोध को बुद्ध ने निर्वाण कहा है।
निर्वाण से सर्वप्रथम लाभ क्या होता है ?
यह है कि इससे समस्त दुःखों का अन्त हो जाता है। दुःखों के समस्त कारणों का अन्त कर निर्वाण मानव को दुःखों से मुक्ति दिलाता है।
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शंकराचार्य के अनुसार माया के स्वरूप एवं कार्य
नमस्कार दोस्तों हमारी आज के post का शीर्षक है शंकराचार्य के अनुसार माया के स्वरूप एवं कार्य उम्मीद करतें हैं की यह आपकों अवश्य पसंद आयेगी | धन्यवाद |
उपनिषदों में एक और सृष्टि का वर्णन किया गया है, दूसरी ओर विषयरूपी संसार को मिथ्या कहा गया है। यह कैसे सम्भव है? शंकर इसका समाधान बताते हुए कहते हैं यदि संसार की तुलना एक स्वप्न या भ्रम से की जाय तो उसकी सृष्टि और पीछे तत्त्व ज्ञान हो जाने पर उसका तिरोभाव। ये दोनों बातें समझ में आ सकती हैं। ऋग्वेद में भी कहा जाता है कि एक इन्द्रिय माया के प्रभाव से नाना रूपों में प्रकट होती है। श्वेताश्वेतर में भी कहा गया है कि ब्रह्म की माया ही प्रकृति है।
माया और ईश्वर
माया ईश्वर की शक्ति है। जिस तरह अग्नि की दाहकता अग्नि है अभिन्न है, उसी तरह माया भी ईश्वर से अभिन्न है। माया के द्वारा मायावी ईश्वर वैचित्र्यक सृष्टि की लीला दिखाते हैं जिसे अज्ञानी सत्य समझ लेते हैं किंतु तत्त्वदर्शियों को मायावी संसार में ब्रह्म मात्र ही सत्य जान पड़ता है।
भ्रम और अविद्या
साधारणतः वास्तविक आधार पर अधिष्ठान का ज्ञान न रहने पर ही भ्रम उत्पन्न होता है जैसे-रस्सी का यथार्थ ज्ञान न होने पर सर्प का भ्रम और यह भ्रम अविद्या के कारण ही उत्पन्न होता है। यह अविद्या केवल अधिष्ठान का आवरण ही नहीं करती बल्कि उस पर विशेष भी कर देती है। आवरण का अर्थ है यथार्थ स्वरूप को ढक देना और‘विक्षेप’ का अर्थ है उस पर दूसरी वस्तु का आरोप कर देना। वे दोनों अविद्याजन्य हैं जिनसे हमारे मन में प्रम पैदा होता है।
अविद्या और माया
अविद्या और माया एक ही तत्त्व के आत्मगत और वस्तुगत पक्ष हैं। अविद्या जीव में है और वह उसकी बुद्धि का गुण है। माया जगत् के नाम रूपात्मक प्रपंच की सत्य शक्ति है। ज्ञान हो जाने पर अविद्या का नाश हो जाता है परन्तु माया ब्रह्म के समान अनादि है।
अविद्या रूप और अनादि है। जिस प्रकार आत्मा और ब्रह्म में तादात्म्य है, उसी प्रकार और अविद्या एक ही है। वास्तव में शंकर माया, अविद्या, अध्यास, अध्यारोप, विवर्तति भ्रम, बीज, शक्ति मूल प्रकृति इत्यादि शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग किया है किन्तु शंकर बाद के कुछ वेदान्तियों ने अविद्या और माया में भेद किया है। उनके अनुसार अविद्या संघात्मक और जीवगत है और माया स्वीकारात्मक और विभु है।
शंकर के अनुसार माया ब्रह्म की शक्ति है किन्तु यह शक्ति ब्रह्म का नित्य स्वरूप नहीं है, बल्कि एक इच्छा मात्र है जिसका परित्याग किया जा सकता है जो ज्ञानी है, संसार की मृग मरीचिका के चक्कर में नहीं पड़ते हैं वे ईश्वर को मायावी शक्ति नहीं समझते। जिस प्रकार कोई जादूगर जादू का खेल दिखाकर हमें भ्रम में डाल देता है।
किन्तु इस भ्रम से केवल दर्शक ही प्रभावित होता है स्वयं जादूगर नहीं क्योंकि जादूगर की दृष्टि भ्रम केवल माया करने की शक्ति है। ईश्वर के लिए वह केवल लीला की इच्छा है। ईश्वर स्वयं उस लीला से मुग्ध नहीं जीता वह माया हमारे अज्ञान के कारण ही भ्रम का कारण है। माया के दो कार्य हैं- ब्रह्म का यथार्थ स्वरूप देना और उसे जगत् के रूप में भासित करना।
अतः जब शंकर प्रकृति को माया कहते हैं, तब उनका अर्थ यही होता है कि यह रचनात्मिका शक्ति उन लोगों के लिए संसार की प्रकृति हैं जो इसे देख रहे हैं। इस तरह ब्रह्म वास्तविक परिवर्तन से परे है। ईश्वर माया से ही जगत् की सृष्टि करता है।
माया के गुण
शंकर ने माया अथवा अविद्या के निम्नलिखित गुण बताये हैं –
अनादि
माया अनादि है क्योंकि माया ईश्वर की शक्ति है। अतः वह ईश्वर के समान हो सदा से है और प्रलय के समान सदा से है और प्रलय के पश्चात् भी बीजरूप में ईश्वर में विद्यमान रहती है।
ईश्वर की शक्ति
माया ईश्वर से अपृथक् और ईश्वर पर निर्भर है। माया और ईश्वर में तादात्म्य है।
ब्रह्म के स्वभाव के विरुद्ध
माया ब्रह्म के स्वभाव से उसी प्रकार विपरीत है जिस प्रकार सांख्य की प्रकृति पुरुष से भिन्न है।
भावरूप
माया भावरूप है, परन्तु वह यथार्थ नहीं है। वास्तव में माया के दो पक्ष हैं। निषेधात्मक पक्ष में वह सवस्तु का आवरण है और भावात्मक पक्ष में वह ब्रह्म के विशेष रूप में जगत् की सृष्टि करती है।
विज्ञान निरस्या
ज्ञान होने पर माया दूर हो जाती है। जिस प्रकार रस्सी का ज्ञान होने पर सर्प नहीं रहता, उसी प्रकार ब्रह्मभाव होने पर मायारूपी नामरूपात्मक जगत् का अस्तित्व नहीं रहता।
व्यावहारिक
माया व्यावहारिक और ब्रह्म विवर्तमात्र है।
अनिवर्चनीय
माया अनिर्वचनीय है। सदसत् के द्वारा उसका निर्वाचन सम्भव नहीं वह मिथ्या किन्तु सनातन है।
अध्यास रूप
माया अथवा अविद्या के कारण ही अध्यास होता है। जिस प्रकार रस्सी में सर्प का मिथ्यारोप किया जाता है, उसी प्रकार मायावश जीव निर्गुण ब्रह्म को नाना नाम अध्यात्मक जगत् के रूप में देखता है।
माया ब्रह्म को प्रभावित नहीं करती
माया का आश्रम और विषय ब्रह्म है तथापि जिस तरह जादूगर अपने जादू से स्वयं प्रभावित नहीं होता उसी प्रकार ब्रह्म पर माया का प्रभाव नहीं पड़ता।
अविद्या
माया अविद्या है। अविद्या अव्यक्त और ईश्वर पर आधारित है। समस्त भेद अविद्या के कारण है। अविद्या का स्वभाव ही आवरण डालना है। वह तीन प्रकार से कार्य करती है –
- मिथ्या ज्ञान रूप में
- सन्देह के रूप में
- अज्ञान के रूप में
परन्तु उसका ब्रह्म पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अविद्या सद्सत से परे अनिवर्चनीय है। बुद्धि द्वारा ब्रह्म का पूर्ण ज्ञान कभी नहीं हो सकता। ब्रह्म अनुभूति का विषय है। वास्तव में जगत् और ब्रह्म में तादात्म्य है। जगत् ब्रह्म का विवर्त मात्र है। विवर्त की अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।‘माया’ शब्द मानव के ज्ञान की सीमाओं की परिचायक है। उसका ज्ञान जगत तक ही सीमित है। आदि ब्रह्म का विषय अनुभूति का तत्त्व है।
क्या माया भ्रममात्र है?
जगत् असत् है- शंकर के अनुसार एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है, अतः जगत् ब्रह्म से भिन्न होने के कारण मिथ्या कहा गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि शंकर ने जगत् को स्वप्न या मानसिक प्रत्यय मात्र समझा है। मायावाद का यथार्थ स्वरूप‘विवर्त’ को सम्यक रूप से समझने से स्पष्ट हो जायेगा। जगत् असत् है, उसे सत् में स्थान नहीं दिया जा सकता फिर भी अपत् की श्रेणियाँ हैं। शंकर के अनुसार सभी प्रकार के सामान्य विषय तीन कोटियों में विभाजित किये जा सकते हैं –
प्रातिभासिक
जो कि केवल स्वप्न या भ्रम में क्षण भर के लिए प्रकट होते हैं। किन्तु जाग्रत अवस्था के अनुभवों से बाधित होते हैं।
व्यावहारिक
ये स्वाभाविक जाग्रत अवस्था में प्रकट होते हैं किन्तु तार्किक दृष्टि से बाधित होने की सम्भावना के कारण पूर्ण सत्य नहीं कहे जा सकते।
पारमार्थिक
ब्रह्म पारमार्थिक दृष्टि से पूर्णतः सत्य है। वह एकमात्र सत्य कहा जाता है। ब्रह्म स्वयं ज्ञान है। वह प्रकाश की तरह ज्योतिर्मय है। इसलिए ब्रह्म को स्वयं प्रकाश कम गया है। ब्रह्म का ज्ञान उसके स्वरूप का ज्ञान है।
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माया और ईश्वर में क्या अंतर है ?
माया ईश्वर की शक्ति है। जिस तरह अग्नि की दाहकता अग्नि है अभिन्न है, उसी तरह माया भी ईश्वर से अभिन्न है। माया के द्वारा मायावी ईश्वर वैचित्र्यक सृष्टि की लीला दिखाते हैं जिसे अज्ञानी सत्य समझ लेते हैं किंतु तत्त्वदर्शियों को मायावी संसार में ब्रह्म मात्र ही सत्य जान पड़ता है।
क्या माया भ्रममात्र है?
जगत् असत् है- शंकर के अनुसार एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है, अतः जगत् ब्रह्म से भिन्न होने के कारण मिथ्या कहा गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि शंकर ने जगत् को स्वप्न या मानसिक प्रत्यय मात्र समझा है। मायावाद का यथार्थ स्वरूप‘विवर्त’ को सम्यक रूप से समझने से स्पष्ट हो जायेगा। जगत् असत् है, उसे सत् में स्थान नहीं दिया जा सकता फिर भी अपत् की श्रेणियाँ हैं।
भ्रम और अविद्या में क्या अंतर है ?
अविद्या और माया एक ही तत्त्व के आत्मगत और वस्तुगत पक्ष हैं। अविद्या जीव में है और वह उसकी बुद्धि का गुण है। माया जगत् के नाम रूपात्मक प्रपंच की सत्य शक्ति है। ज्ञान हो जाने पर अविद्या का नाश हो जाता है परन्तु माया ब्रह्म के समान अनादि है।
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