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विद्यार्थी और अनुशासन
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Table of Contents
रूपरेखा
- प्रस्तावना
- विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता
- अनुशासनहीनता के कारण
- अनुशासन स्थापना के उपाय
- उपसंहार
प्रस्तावना
प्रासाद की चिरस्थिरता और उसकी दृढ़ता जिस प्रकार आधारशिला की दृढ़ता पर आधारित है, लघु पादपों का विशाल वृक्षत्व जिस प्रकार बाल्यावस्था के सिंचन और संरक्षण पर आश्रित होता है, उसी प्रकार युवक की सुख-शान्तिमय समृद्धि का संसार छात्रावस्था पर आधारित होता है।
यह अवस्था नवीन वृक्ष की वह मृदु और कोमल शाखा है, जिसे अपनी मनचाही अवस्था में सरलता से मोड़ा जा सकता है और एक बार जिधर आप मोड़ देंगे जीवन भर उधर ही रहेगी।
अवस्था प्राप्त विशाल वृक्षों की शाखायें चाहे टूट भले ही जाएँ पर मुड़ती नहीं, क्योंकि समय, अनुभव और जीवन के सुख-दुःख उन्हें कठोर बना देते हैं।
अतः मानव जीवन की इस प्रारम्भिक अवस्था को सच्चरित्रता और सदाचारिता आदि उपायों से सुरक्षित रखना प्रत्येक मनुष्य का परम कर्तव्य है।
छात्रावस्था अबोधावस्था होती है, इसमें न बुद्धि परिष्कृत होती है और न विचार माता-पिता तथा गुरुजनों के दबाव से पहले वह कर्त्तव्य पालन करना सीखता है।
माता-पिता तथा गुरुजनों की आज्ञाएँ ज्यों की त्यों स्वीकार करना ही अनुशासन कहा जाता है। अनुशासन का शाब्दिक अर्थ शासन के पीछे चलना है, अर्थात् गुरुजनों और अपने पथ-प्रदर्शकों के नियन्त्रण में रहकर नियमबद्ध जीवनयापन करना तथा उनकी आज्ञाओं का पालन करना ही अनुशासन कहा जा सकता है।
अनुशासन विद्यार्थी जीवन का प्राण है। अनुशासनहीन विद्यार्थी न तो देश का सभ्य नागरिक बन सकता है और न अपने व्यक्तिगत जीवन में ही सफल हो सकता है।
वैसे तो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुशासन परमावश्यक है, परन्तु विद्यार्थी जीवन के लिये यह सफलता की एकमात्र कुंजी है।
विद्यार्थियों में अनुशासनहीनता
आज विद्यार्थियों की अनुशासनहीनता अपनी चरम सीमा पर है क्या घर क्या स्कूल, क्या बाजार, क्या मेले और क्या उत्सव, क्या गालियाँ और क्या सड़कें, आज का विद्यार्थी घर में माता-पिता की आज्ञा नहीं मानता, उनके सदु का आदर करता, उनके बताये हुये मार्ग पर नहीं चलता।
उदाहरणस्वरूप पिता जी ने कहा बेटा। शाम को घूम कर जल्दी लौट आना, पर कुँवर साहब दस बजे का शो देखकर ही लौटेंगे।
माता-पिता के मना करने पर भी आज का बालक उसी के साथ उठता-बैठता है, जिसके साथ उसकी तबियत आती है।
परिणाम यह होता है कि उसमें कुसंगतिजन्य दूषित संस्कार उत्पन्न हो जाते हैं। कॉलेज की चारदीवारी में विद्यार्थियों के लिये अनुशासन जैसी कोई वस्तु है ही नहीं।
कक्षा में पढ़ाई हो रही है, आप बाहर गेट पर, पनवाड़ी की दुकान पर खड़े खड़े सिगरेट में दम लगा रहे हैं।
जब मन में आया कक्षा में आ बैठे और जब मन में आया उठकर चले आये, अगर तबियत इतने पर भी मचली तो साईकिल उठाई और सिनेमा तक हो आये तस्वीरों को देखकर मन तो बहल हो जाता है।
अगर अध्यापक ने कुछ कहा, तो उस पर बिना उचित-अनुचित का विचार किये जो मन में आया कह दिया, अगर ज्यादा बात बढ़ी तो फिर आगे के कुकृत्यों की कुमन्त्रणायें होने लगा।
अनुशासनहीनता का नग्न नृत्य उस समय देखिये, जब कोई सभा हो, मीटिंग हो, कवि सम्मेलन या कोई एकांकी नाटक आदि सांस्कृतिक कार्यक्रम हो रहा हो।
विद्यार्थियों की उद्दण्डता और उच्छ श्रृंखलता के कारण कोई भी सामूहिक कार्यक्रम आप सफलतापूर्वक नहीं कर सकते।
परीक्षा आजकल अध्यापक की जान लेने वाली बन गई है, या तो विद्यार्थी को मनचाही नकल कर लेने दीजिये या फिर हाथापाई को तैयार हो जाइये।
सामूहिक मेलों और उत्सवों में विद्यार्थियों की चरित्रहीनता स्पष्ट दिखाई पड़ती है। किसी भी महिला के साथ अभद्र एवं अशोभनीय व्यवहार करना साधारण-सी बात है।
पुलिस की मार से चोरियों में जब नाम खुलते हैं तो उनमें दो-चार विद्यार्थियों के नाम भी होते हैं। यही हाल डकैतियों का है।
रेलों में बिना टिकट सफर करने में छात्र अपना गौरव समझते हैं। शहर के किसी कोने में जहाँ आप चाहें दंगा करवा लीजिये।
लूटमार करवा लीजिए। किसी को बीच चौराहे पर खड़ा होकर पिटवा लीजिये। कहाँ गया गुरु और शिष्य का वह पवित्र स्नेह और कहाँ गई वह सच्चरित्रता ?
देश के भावों नागरिक अगर ऐसे हो रहे, तो निश्चित ही भारतवर्ष आज नहीं तो कल और कल नहीं तो परसों गड्ढे में जा गिरेगा और ऐसा गिरेगा कि युगों तक फिर न निकल सकेगा।
अनुशासनहीनता के कारण
अनुशासनहीनता का मुख्य कारण माता-पिता को ढिलाई है। माता-पिता के संस्कार ही बच्चे पर पड़ते हैं। बच्चे की प्राथमिक पाठशाला घर होती है।
वह पहले घर में ही शिक्षा लेता है, उसके बाद वह स्कूल और कॉलेज में जाता है, उसके संस्कार घर में खराब हो जाते हैं।
पहले तो प्यार के कारण माता-पिता कुछ कहते नहीं वह जहाँ चाहे बैठे और जहाँ चाहे खेले, जो मन में आये वह करे पर जब हाथी के दाँत बाहर निकल आते हैं, तब उन्हें चिन्ता होती है, फिर वे अध्यापक और कॉलेजों की आलोचना करना आरम्भ करते हैं।
दूसरा कारण आज की अपनी शिक्षा प्रणाली है। इसमें नैतिक या चारित्रिक शिक्षा को कोई महत्व नहीं दिया जाता है। पहिले विद्यार्थियों को दण्ड का भय बना रहता था, क्योंकि-
“भय बिन होय न प्रीति”।
पर अब आप विद्यार्थियों को हाथ नहीं लगा सकते, क्योंकि शारीरिक दण्ड अवैध है। केवल जबानी जमा खर्च कर सकते हैं।
इसमें विद्यार्थी बहुत तेज होता है, आप एक कहेंगे वह आपको चार सुनायेगा। शिक्षा संस्थाओं का कुप्रबन्ध भी छात्रों को अनुशासनहीन बनाता है।
परिणामस्वरूप कभी वे विद्यालय के अधिकारियों की आज्ञाओं का उल्लंघन करते हैं और कभी अध्यापकों की अवज्ञा।
अधिकांश कक्षा भवन छोटे होते हैं और छात्रों की संख्या सीमा से अधिक होती है। कॉलेजों में तो एक-एक कक्षा में सौ-सौ विद्यार्थी होते हैं।
ऐसी दशा में न तो अध्ययन होता है और न अध्यापन। कभी-कभी राजनीतिक तत्व विद्यार्थियों को भड़काकर नगर और कॉलेजों में उपद्रव खड़ा करवा देते हैं।
“खाली दिमाग शैतान की घर” वाली कहावत् बिल्कुल ठीक है। कॉलेजों में छात्रों के दैनिक कार्य पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता।
यदि उनके रोजाना के पढ़ने-लिखने की देखभाल हो और उसी पर उनको वार्षिक उन्नति आधारित हो तो विद्यार्थी के पास इतना समय ही नहीं रहेगा कि वह व्यर्थ की बातों में अपना समय खर्च करे।
दूसरी बात यह है कि कक्षाओं में छात्रों पर व्यक्तिगत ध्यान नहीं दिया जाता और न ही उनकी कार्यपद्धति पर कोई नियन्त्रण होता है।
अनुशासन स्थापना के उपाय
विद्यार्थी जीवन में अनुशासन की पुनः स्थापना करने के लिये यह आवश्यक है कि हमारी शिक्षा-व्यवस्था में आधारभूत परिवर्तन हो और विद्यार्थी की नैतिक और चारित्रिक शिक्षा पर विशेष बल दिया जाना जाए, जिससे छात्र को अपने कर्त्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान हो सके।
नैतिक शिक्षा का समावेश हाई स्कूली पाठ्यक्रम में सब राज्यों में किया जा रहा है। यह बहुत ही सराहनीय प्रयास है।
हमारी शिक्षा प्रणाली में कक्षा 1 से लेकर एम० ए० तक के विद्यार्थियों के नैतिक उत्थान की शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी, सिवाय इसके कि वे कबीर और रहीम के नीति दोहे पढ़ लें, वह भी परीक्षा में अर्थ लिखने की दृष्टि से दूसरी बात यह है कि शारीरिक दण्ड का अधिकार होना चाहिये, क्योंकि बालक तो माता-पिता की तरह गुरु के भय से ही अपने कर्तव्य का पालन करता है।
तीसरी बात यह है कि माता-पिता को बचपन से ही अपने बच्चों के कार्यों पर कड़ी दृष्टि रखनी चाहिए, क्योंकि गुण और दोष संसर्ग से ही उत्पन्न होते हैं।
“संसर्गजा दोष गुणा: भवन्ति।”
हमारी शिक्षा पद्धति में भी परिवर्तन की आवश्यकता है। माध्यमिक शिक्षा के छात्रों के लिए व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए।
आज का विद्यार्थी हाई स्कूल पास कर लेने पर कहीं का भी नहीं रह जाता। न वह अपना निर्वाह कर सकता है और न ही अपने परिवार के व्यक्तियों का।
जो विद्यार्थी कॉलेज की ऊँची शिक्षा प्राप्त करना नहीं चाहते, उनके लिए रोजगार की उचित व्यवस्था होनी चाहिए। रोजगार के अभाव में वह देश में अनुशासनहीनता फैलाता है।
उपसंहार
अतः शासन को देश के उद्योग-धन्धों को आगे बढ़ाना चाहिए तथा उद्योग-धन्धों के संचालन की भी उचित शिक्षा देनी चाहिए।
विद्यार्थियों को अध्ययन और इसके अतिरिक्त अन्य शिष्ट एवं कल्याणप्रद कार्यों में भी व्यस्त रखना चाहिए और मास में एक परीक्षा अवश्य होनी चाहिए, वार्षिक परीक्षा बन्द कर देनी चाहिए और मासिक परीक्षाओं के परिणाम के आधार पर ही छात्र को वार्षिक उन्नति मिलनी चाहिए।
इस प्रकार वह पूरे वर्ष पढ़ता रहेगा। अब तो वह परीक्षा से तीन-चार दिन पहले गैस पेपर खरीदता है और परीक्षा में बैठकर पास हो जाता है।
क्या आवश्यकता है आज अध्यापक की? उसके अध्यापक तो “गैस पेपर और सरल अध्ययन” हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि देश के विद्यार्थियों में अनुशासन स्थापित किये बिना देश का कल्याण नहीं हो सकता।
आज का विद्यार्थी कल का सभ्य नागरिक नहीं हो सकता, इसके लिए हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करने होंगे।
देश के नागरिकों का निर्माण अध्यापकों के हाथों में है। उन्हें भी अपने कर्तव्य का पालन करना होगा।
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