हिन्दी साहित्य में उपन्यासों का उद्भव और विकास
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हिन्दी साहित्य में उपन्यासों का उद्भव और विकास

नमस्कार मित्रों आज हम आपके लिए नई post में – हिन्दी साहित्य में उपन्यासों का उद्भव और विकास , हिंदी उपन्यास की विकास यात्रा का विवेचन कीजिए , हिंदी उपन्यास के विकास में प्रेमचंद का योगदान निबंध लेकर आए हैं |

रूपरेखा

  • प्रस्तावना
  • प्रेमचंद पूर्व युग
  • प्रेमचंद युग
  • प्रेमचंद उत्तर युग
  • उपसंहार 

प्रस्तावना

19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में समय की कठोर आवश्यकताओं ने जहाँ गद्य के विकास में योग दिया, वहीं उपन्यास साहित्य की भी श्रीवृद्धि हुई।

अंग्रेजी तथा उससे प्रभावित बंगाली तथा मराठी उपन्यासों ने हिन्दी साहित्यकारों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया।

 भारतेन्दु जी के समय में अनेकों अन्य भाषा के उपन्यासों का हिन्दी में अनुवाद किया गया, मौलिक उपन्यासों की रचनायें भी हुईं।

मौलिक व सामाजिक उपन्यासों में श्रीनिवासदास के ‘परीक्षा गुरु, राधाकृष्णदास का “निःसहाय हिन्दू” तथा बालकृष्ण भट्ट का “सौ अजान एक सुजान” और “नूतन ब्रह्मचारी” समाज में विशेष आदृत हुए। भारतेन्दु जी ने भी एक उपन्यास लिखना आरम्भ किया था, वह दुर्भाग्यवश पूरा न हो सका।

बंगला आदि से अनूदित upanyaso में ‘दुर्गेश नन्दिनी’, ‘सरोजिनी’, ‘दीप निर्वाण आदि प्रसिद्ध थे, इसी प्रकार अंग्रेजी या मराठी भाषाओं हिन्दी साहित्य में upnyaso का से भी कई upanyaso का अनुवाद हुआ।

 तिलस्मी ऐय्यारी के उपन्यास लिखे जाने लगे। इस क्षेत्र में बाबू देवकीनन्दन खत्री को विशेष सफलता प्राप्त हुई। इन upanyaso ने हिन्दी upanyaso के पाठक और लेखक दोनों ही पैदा किये।

 प्रेमाख्यानक upanyaso में किशोरीलाल गोस्वामी और जासूसी उपन्यासकारों में . गोपालराम गहमरी मुख्य थे। इन दोनों के upanyaso ने बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त की।

 इसके अतिरिक्त उस काल में कुछ ऐतिहासिक उपन्यासों की भी रचना हुई, जिसमें किशोरीलाल गोस्वामी का ‘ रजिया बेगम ‘ तथा मिश्र बन्धुओं का “वीरमणि “ उल्लेखनीय हैं। इस प्रकार बींसवी शताब्दी के दूसरे दशक तक सभी विषयों के उपन्यास हिन्दी के क्षेत्र में आ चुके थे , परन्तु उनमें उच्चकोटि के साहित्य का प्रायः अभाव था , कृत्रिमता अधिक थी।

प्रेमचन्द पूर्व युग

प्रेमचन्द से पूर्व का युग सन्1870 से 1916 तक माना जाता है। इस युग के upanyaso को हम पाँच भागों में विभाजित कर सकते हैं- सामाजिक upanyas , तिलस्मी तथा ऐय्यारी के उपन्यास , जासूसी upanyas , प्रेमाख्यात्मक और ऐतिहासिक upanyas सामाजिक upanyaso में श्रद्धाराम फिल्लौरी का “भाग्यवती” सामाजिक समस्या को लेकर लिखा हुआ सबसे प्रथम मौलिक उपन्यास था।

इसकी रचना 1877 में हुई थी। यह अपने समय में बहुत लोकप्रिय रहा। श्रीनिवासदास का “ परीक्षा गुरु ” भी मौलिक सामाजिक upanyas है, परन्तु इसका वस्तु- -विन्यास अधिक सुन्दर नहीं है, स्थान-स्थान पर अंग्रेजी, फारसी और संस्कृत के नीतिपूर्ण उद्धरणों के कारण पाठक का हृदय ऊबने लगता है।

बालकृष्ण भट्ट का ‘ नूतन ब्रह्मचारी ‘, किशोरी लाल गोस्वामी का “हृदयहारिणी”, लज्जा राम मेहता का “परतन्त्र लक्ष्मी”, कार्तिक प्रसाद का ‘दीनानाथ’, हनुमन्तसिंह का ‘चन्द्रकला’, राधाकृष्णदास का ‘निःसहाय हिन्दू’ अच्छे सामाजिक upanyas थे।

कुछ और भी upanyas लिखे गये थे जिनमें सामाजिक कुरीतियों पर प्रकाश डाला गया था, परन्तु उनमें उपदेश वृत्ति इतनी अधिक है कि upanyas की रोचकता नष्ट हो जाती है।

हिन्दी में तिलस्मी और ऐय्यारी का भाव फारसी कहानियां

हिन्दी में तिलस्मी और ऐय्यारी का भाव फारसी कहानियों के अनुकरण से आया। सन् 1891 में देवकीनन्दन खत्री ने ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकांता संतति’ नामक दो upanyas लिखे। ये ऐय्यारी की रचनायें इतनी लोकप्रिय हुईं कि जो हिन्दी पढ़ना भी नहीं जानते थे उन्होंने केवल इन upnyas को पढ़ने के लिए ही हिन्दी पढ़ना सीखा। इससे प्रभावित होकर अन्य उपन्यासकारों ने भी तिलस्मी और ऐय्यारी का प्रयोग किया।

किशोरीलाल गोस्वामी जैसे प्रसिद्ध लेखक भी अपने ‘स्वर्गीय कुसुम’ और ‘लवंगलता’ नामक upanyaso में इस बीमारी से बच न सके। देवकीनन्दन खत्री के अतिरिक्त देवीप्रसाद शर्मा ने सुन्दर सरोजनी, हरे कृष्ण जौहर ने ‘भयानक भ्रम’, जगन्नाथ’ प्रसाद चतुर्वेदी ने ‘बसन्त मालती’ आदि upnyas लिखकर हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में इस प्रकार के upanyaso का एक ढेर-सा लगा दिया।

हिन्दी के उपन्यासकारों को जासूसी upnyas की प्रेरणा, पश्चिम की पुलिस खोजों से भरे हुए upanyaso से प्राप्त हुई। इस शाखा के सबसे प्रमुख लेखक गोपालराम गहमरी थे। इनके कथानक स्वाभाविक होते थे। ‘जासूस की चोरी’, ‘जासूसों पर जासूस’, ‘किले में खून’, ‘खून का भेद’,‘खूनी खोज’ आदि आपके प्रसिद्ध upanyas थे। चन्द्रशेखर के ‘अमीर अली ठग’, ‘शशिबाला’, किशोरीलाल गोस्वामी का ‘जिन्दे की लाश’ आदि इस कोटि के upanyas हैं।

सामाजिक upanyaso को छोड़कर अधिकांश अन्य सभी upanyaso का विषय प्रेम ही होता था। तिलस्मी और ऐय्यारी के upanyaso में भी प्रेम के अतिरिक्त रूप के दर्शन होते हैं। इनके अतिरिक्त किशोरीलाल गोस्वामी ने भी ‘लीलावती’, ‘चन्द्रावती’, ‘तरुण तपस्विनी’ आदि upanyaso में भी प्रेम का ही आश्रय लिया है।

ऐतिहासिक upanyas भी इस युग में लिखे गये, परन्तु उनमें ऐतिहासिक अनुसंधान के आधार पर राजनीतिक एवम् आर्थिक परिस्थितियों के चित्रण का अभाव है। ब्रजनन्दन सहाय ने ‘लाल चीन’ जिसमें गयासुद्दीन बलबन के एक गुलाम की कहानी है, लिखा। मिश्र बन्धुओं का ‘वीरमणि’, किशोरीलाल गोस्वामी का ‘राजकुमारी’, ‘तारा’, ‘चपला’, ‘लखनऊ की कब’ इस प्रकार के upanyas हैं।

प्रेमचन्द के पूर्ववर्ती upanyaso में औपन्यासिक तत्वों के समुचित सामंजस्य का अभाव था। अधिकांश upanyas घटना प्रधान, मनोरंजन या कौतूहलवर्धक होते थे। फिर भी आगे के युग के लिये upanyas के पाठकों को तैयार करने का श्रेय इन्हीं upanyaso एवं उपन्यासकारों को है। देवकीनन्दन खत्री की व्यावहारिक भाषा को ही प्रेमचन्द ने अपना आधार बनाया।

प्रेमचन्द युग

प्रेमचन्द युग सन्1917 से1936 तक माना जाता है। प्रेमचन्द ने हिन्दी कथा साहित्य को एक नया मोड़ प्रदान किया, अपनी कृतियों से अपने समकालीन अन्यं साहित्यकारों को प्रेरणा दी।

प्रेमचन्द जी के लिखने के समय देश में राष्ट्रीय आन्दोलन आरम्भ हो गये थे। आर्य समाज का सुधार आन्दोलन तेजी से चल रहा था। प्रेमचन्द जी के upanyaso पर तत्कालीन सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है।

उन्होंने upanyas को तिलस्मी और प्रेमाख्यान की दलदलों से निकालकर मानव जीवन की दृढ़ नींव पर लाकर खड़ा कर दिया। उनके upanyaso की कथावस्तु कल्पना-प्रसून न होकर मानव जीवन की वास्तविकता से ओत-प्रोत है। चरित्र चित्रण के क्षेत्र में प्रेमचन्द जी ने नवीन परिवर्तन उपस्थित किया।

उसमें उन्होंने स्वाभाविकता की प्रतिष्ठा की। उनकी सूक्ष्म दृष्टि महलों से लेकर झोपड़ियों तक, खेतों और खलियानों से लेकर बड़ी बड़ी मिलों तक समान रूप से पड़ी। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि कोरा यथार्थवाद या कोरा आदर्शवाद जन-कल्याण नहीं कर सकता। अतः उनका साहित्य आदर्शोन्मुख यथार्थवादी ही रहा।

उन्होंने इस तथ्य का उद्घाटन किया कि मनुष्य का चरित्र कोई स्थिर वस्तु नहीं, संगति और सम्पर्क से उसमें परिवर्तन होता रहता है। भले आदमी बुरे बन सकते हैं और बुरे आदमी भले। जो लोग यह चिल्लाते हैं कि कला, कला के लिये है उनका उन्होंने खूब विरोध किया। उनका विचार था कि कला वह है, जिससे हमारी सुरुचि जाग्रत हो, हमें आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति प्राप्त हो, हममें शक्ति और गति आये।

यही कारण है कि उन्होंने सभी समस्याओं के विषय में चाहे वह राजनीतिक हों या सामाजिक, आर्थिक हों या धार्मिक, अपना पृथक् दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। यह निश्चित है कि कहीं-कहीं वे साहित्यकार न रहकर एक उपदेशक का रूप ग्रहण कर लेते हैं, परन्तु समाज में फैली कुरीतियों का स्पष्ट दिग्दर्शन कराने में वे पूर्ण सफल हुए हैं।

स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यास साहित्य की विकास यात्रा

सेवा सदन ‘ में उस भयंकर सामाजिक दोष का चित्रण किया गया है, जिससे विवश होकर हमारी कुल कन्यायें और कुल वधुएँ वेश्या बन जाती हैं। ‘प्रेमाश्रम’ में एक ओर भारतीय किसान की “निर्धनता और विवशता तथा दूसरी ओर विधवाओं की समस्या दिखाई गई है।

‘निर्मला ‘ वृद्ध विवाह और दहेज प्रथा के दुष्परिणामों का भंडाफोड़ करता है। ‘गवन’ में यह दिखाया गया है कि स्त्रियों का आभूषण-प्रेम, हरी-भरी गृहस्थी को किस प्रकार ध्वस्त कर देता है। ‘ गोदान ‘ में किसान की विवशता तथा कर्मभूमि में जमींदार किसान सम्बन्ध, अछूतोद्धार, मन्दिर प्रवेश, म्युनिसिपल कमेटी आदि सामाजिक समस्याओं पर प्रकाश डाला गया है।

प्रेमचन्द जी ने हिन्दी में ग्यारह upanyas लिखे हैं जिसमें-सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कर्म-भूमि, कायाकल्प, निर्मला, गबन और गोदान प्रमुख हैं। प्रेमचन्द युग के अन्य प्रतिभा सम्पन्न उपन्यासकारों में जयशंकर प्रसाद, विशम्भर नाथ कौशिक, बेचन शर्मा उम्र, ऋषभचरण जैन तथा वृन्दावन लाल वर्मा आदि प्रमुख हैं। 

जयशंकर प्रसाद जी के upanyaso में सुधार का मूल मन्त्र निहित है। ‘कंकाल’, ‘तितली’, ‘इरावती’ (अपूर्ण) में ‘कंकाल’ आपकी सर्वश्रेष्ठ रचना है। उपन्यासकार प्रसाद की भाषा न दुरूह है और न दार्शनिकता से युक्त। वह स्वाभाविक है, फिर भी प्रेमचन्द की सी नहीं। विशम्भरनाथ कौशिक upanyas लेखन में प्रेमचन्द जी के अनुयायी थे।

उनके वर्णन, कथोपकथन, पात्रों का चरित्र चित्रण सभी कुछ प्रेमचन्द के समान थे। परन्तु मन को आन्दोलित करने की जितनी क्षमता कौशिक जी में है, उतनी प्रेमचन्द में नहीं। ‘माँ’ और ‘भिखारिणी’ इनके दो upanyas हैं।

बेचन शर्मा उम्र, ऋषभचरण जैन तथा चतुरसेन शास्त्री आदि उपन्यासकार प्रेमचन्द युग के ऐसे उपन्यासकार हैं, जिन्होंने केवल यथार्थ के नग्न चित्रण पर ही अपनी दृष्टि डाली।

इनकी दृष्टि केवल वैश्यालय और मदिरालयों के चारों ओर चक्कर लगाकर ही लौट जाती है। वृन्दावन लाल वर्मा ने इस युग में हिन्दी upanyas के एक विशेष अभाव की पूर्ति की। प्रेमचन्द के पहले और बहुत से ऐतिहासिक upanyas लिखे गये थे, परन्तु उनमें न लेखकों का ऐतिहासिक ज्ञान प्रकट होता था और न तत्कालीन चित्रण इतिहास के आवरण में केवल प्रेम कथाएँ होती थीं।

वृन्दावन लाल वर्मा ने ‘ गढ़ कुण्डार ‘ और ‘ विराटा की पद्मनी ‘ upanyas लिखकर इस दिशा को एक नया मोड़ दिया। भगवती चरण वर्मा का ‘ चित्रलेखा ‘ इस युग का महत्त्वपूर्ण upanyas है। इसमें ‘ पाप क्या वस्तु है ‘ इसका व्यक्तिगत ढंग से बहुत सुन्दर विवेचन किया गया है।

प्रेमचन्द उत्तर युग

 सन् 1936 के उपरान्त प्रेमचन्द के उत्तर युग में upanyas क्षेत्र में व्यक्ति के मनोविश्लेषण की प्रवृत्ति बढ़ी। एक पात्र को विभिन्न परिस्थितियों में डालकर उसके हृदयगत भावों, प्रेरणाओं, रहस्यों का उद्घाटन और विश्लेषण करना ही उपन्यासकारों का उद्देश्य हो गया। सामाजिक समस्यायें अब भी upanyas में होती हैं, परन्तु लक्ष्य व्यक्ति ही होता है, समाज नहीं, समाज को गौण स्थान दिया जा रहा है।

इस नवीन धारा के प्रवर्तक श्री जैनेन्द्र जी ने ‘परख’, ‘तपोभूमि’, ‘सुनीता’, ‘कल्याणी’, ‘त्याग-पत्र’ आदि upanyas लिखे हैं। इलाचन्द्र जोशी ने कथा-क्षेत्र में फ्राइड और एडरर के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का प्रयोग किया है। ‘संन्यासी’ इनका सर्वोत्तम upanyas है।

‘शेखर’ एक जीवनी अज्ञेय जी का upanyas के क्षेत्र में एक नवीन प्रयोग है। कथावस्तु की दृष्टि से न उसमें कोई कथा है और न घटनाओं का तारतम्य । इसलिये इसमें कोई मनोरंजन की सामग्री भी नहीं है, केवल व्यक्ति विशेष द्वारा अतीत की घटनाओं का विश्लेषण मात्र है।

यशपाल के उपन्यासों में मार्क्सवादी सिद्धान्तों का प्रचार है।‘दादा कामरेड’, ‘देश विद्रोही’, ‘पार्टी कामरेड’, ‘मनुष्य के रूप´ आपके upanyas हैं। इन upanyaso में लेखक ने कांग्रेस कार्यक्रम की अपेक्षा कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यक्रम को अधिक उपयोगी सिद्ध करने का प्रयत्न किया है।

रामेश्वर शुक्ल अंचल ने ‘चढ़ती धूप’, ‘उल्का’, ‘नई इमारत’ और ‘मरु प्रदीप’ upanyas लिखे हैं। सामाजिक जीवन में परिवर्तन और क्रान्ति के लिए उनके उपन्यासों में विशेष प्रेरणा है।

श्री राहुल सांकृत्यायन ने ‘जय-यौधेय’ और ‘सिंह सेनापति’ उपन्यासों में भारत के बहुत पुराने गणतन्त्रों की पृष्ठभूमि बनाकर कल्पित पात्रों का आश्रय लेकर ऐतिहासिक उपन्यासधारा को एक विशेष दृष्टिकोण से देखने का प्रयत्न किया है। वृन्दावन लाल वर्मा ने तो इस युग ऐतिहासिक उपन्यासों की में झड़ी-सी लगा दी। उनकी ‘झाँसी की रानी’ तथा‘मृगनयनी’ उपन्यासों ने सर्वाधिक ख्याति प्राप्त की है। यशपाल की ‘दिव्या’ भी ऐतिहासिक उपन्यास है।

ऐतिहासिक वातावरण की दृष्टि में लेखक पर्याप्त सफल हुआ है। चतुरसेन शास्त्री की ‘वैशाली की नगर वधू’ सर्वोत्तम ऐतिहासिक कृति है। गोविन्दबल्लभ पन्त के ‘अमिताभ’ नामक upanyas में गौतम बुद्ध की जीवन गाथा वर्णित है। यह upanyas और जीवन चरित्र के बीच की रचना है।

इसके अतिरिक्त भगवतीचरण वर्मा के‘टेढ़े-मेढ़े रास्ते’, ‘तीन वर्ष’, प्रताप नारायण श्रीवास्तव के‘विदा’, ‘विकास’, ‘विसर्जन’, ‘विजय’, निराला जी का‘अप्सरा’, ‘अल्का’, ‘चोटी की पकड़’, भगवती प्रसाद वाजपेयी का‘प्रेम पथ’, ‘लालिमा’, ‘पिपासा’, ‘पतिता को साधना’, उपेन्द्रनाथ अश्क की‘गिरती दीवारें’, ‘सितारों का खेल जयशंकर भट्ट की‘वह जो मैंने देखा’, रांगेय राघवका ‘घरोंदे, सियारामशरण गुप्त की ‘गोद’, ‘अमित आशा’, ‘नारी’, ‘झूझ’ कंचनलता सब्बरवालका ‘मूक तपस्वी’, ‘भोली भूल’ आदि upanyasआज के युग के महत्त्वपूर्ण upanyas है। के

उपसंहार

आज के स्वतन्त्र भारत में हिन्दी साहित्य के upanyas अंग की जितनी वृद्धि हो रही है उतनी किसी और अंग को नहीं। धड़ाधड़ upanyas लिखे जा रहे हैं। हिन्दी के राष्ट्र-भाषा घोषित हो जाने के कारण अन्य भाषा-भाषी विद्वान् भी हिन्दी की ओर आकृष्ट हो रहे हैं।

भारतेन्दु युग उपन्यासों में के अनुवादों की धारा बड़ी तीव्रता से प्रवाहित हुई थी, वह प्रेमचन्द युग आकर कुछ मंद पड़ में गई थी। लोगों में मौलिक upanyas लिखने की प्रवृत्ति जागृत हो गई थी।

आज के युग में फिर अनुवादों की धारा तीव्र गति से प्रारम्भ हो रही है। विभिन्न भाषाओं के उपन्यासों के हिन्दी में अनुवाद किये जा रहे हैं।

कितना सुन्दर होता कि यदि भारतीय विद्वान् अपनी मौलिक कृतियों से हिन्दी साहित्य के कलेवर की श्रीवृद्धि करते; परन्तु फिर भी upanyas साहित्य बड़ी तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है।

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परीक्षागुरू

हिंदी का प्रथम उपन्यास के लेखक कौन है

श्रीनिवासदास का “ परीक्षा गुरु ” भी मौलिक सामाजिक upanyas है,

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