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मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक | Factors Affecting Mental Health in Hindi
मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक | Factors Affecting Mental Health in Hindi
मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक | Factors Affecting Mental Health in Hindi
मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक | Factors Affecting Mental Health in Hindi

मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Mental Health)

जीवन में बहुत सारी घटनाएँ अनुकूल या प्रतिकूल रूप से व्यक्ति के मन को प्रभावित करती हैं। व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारकों को निम्नलिखित शीर्षकों में विभक्त किया गया है-

1) छात्रों / बालकों के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Mental Health of Students/Children) –

छात्रों/बालकों के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं-

i) वंशानुक्रम (Heredity)- कई मानसिक रोग वंशानुगत होते हैं। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि यदि किसी परिवार का कोई सदस्य मानसिक रोग से ग्रस्त होता हैं तो वह सदस्य उस परिवार के बालक के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। अतः दोषपूर्ण वंशानुक्रम के कारण ही बालक में मानसिक दुर्बलता की कमी के रोग पाए जाते हैं।

ii) शारीरिक स्वास्थ्य (Physical Health)- शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य का अंतरंग सम्बन्ध हैं। जो बालक शारीरिक रूप से कमजोर अथवा दोष का शिकार है तो उसका मानसिक स्वास्थ्य भी उत्तम नहीं होगा।

iii) समाज का प्रभाव (Impact of Society)- बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर समाज के संगठन एवं वातावरण का भी प्रभाव पड़ता हैं। वह समाज जो संगठित नहीं होता है, वहाँ पर बालकों का मानसिक स्वास्थ्य अच्छा नहीं रह सकता हैं।

iv) शारीरिक दोष या विकार का प्रभाव (Impact of Physical Disorder or Defect)-शारीरिक विकार बालक में दुर्घटना या बीमारी के कारण आ सकता हैं। शारीरिक दोष के कारण बालक में हीनता की भावना विकसित हो जाती हैं जो बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव डालती हैं।

v) पारिवारिक कारक (Family Factor)- परिवार का बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर बहुमुखी प्रभाव पड़ता हैं। परिवार में जिस प्रकार का व्यवहार किया जाता हैं। जैसे- डांटना, मारना, लड़ाई, झगड़ा, प्रेम, स्नेह आदि इन सभी व्यवहार का असर बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता हैं।

vi) शैक्षणिक कारक (Academic Factor)- समाज एवं परिवार की तरह स्कूल भी मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाला प्रमुख कारक हैं। स्कूल में पक्षपातपूर्ण, वैयक्तिक मूल्यों की अवहेलना, मनोरंजन एवं पुस्तकालय के अभाव तथा सहगामी क्रियाओं का आयोजन न होने से बालक का विकास नहीं होता हैं जिसके फलस्वरूप उसका मानसिक स्वास्थ्य दूषित हो जाता हैं।

vii) मनोवैज्ञानिक कारक (Psychological Factor)- मानसिक स्वास्थ्य में कुछ ऐसे मनोवैज्ञानिक कारक भी आते हैं जो मानसिक विकार उत्पन्न करने में सहायक हैं, जिन्हें मानसिक संघर्ष, चिन्ता, थकान आदि कहा जाता हैं। इन सभी कारकों का प्रभाव मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता हैं।

2) शिक्षकों के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Mental Health of Teachers) –

शिक्षकों के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं-

i) नौकरी की सुरक्षा का अभाव (Lack of Job Security) – आजकल सहायता प्राप्त विद्यालयों में अध्यापकों की अवस्था बड़ी दयनीय हो गयी है। उनका व्यवसायिक भविष्य अन्धकारमय हो गया है। अध्यापकों की नौकरी में कोई सुरक्षा नहीं होती है। सरकार के द्वारा नौकरी में कुछ सुरक्षा प्रदान की गयी है, लेकिन बहुत से प्रबन्धकों ने अभी तक इस पर पूर्ण रूप से ध्यान नहीं दिया हैं।

ii) शैक्षिक उपकरणों का अभाव (Lack of Teaching Materials) – विद्यालय में शिक्षण सहायता के लिए उपयुक्त सहायक सामग्री की व्यवस्था की अत्यधिक आवश्यकता है। शिक्षण सामग्री के अभाव में शिक्षक को अधिक बोलना व समझाना पड़ता है। इससे वह मानसिक रूप से अत्यधिक व्यस्त रहते हैं और इसका उनके मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है।

iii) अपर्याप्त वेतन (Insufficient Wages) – अध्यापकों की मानसिक अस्वस्थता का प्रमुख कारण है कि उन्हें पर्याप्त वेतन नहीं मिलता है, इसके परिणामस्वरूप उनकी आर्थिक दशा ठीक नहीं रहती। आवश्यकताओं की पूर्ति न होने पर उनका मानसिक स्वास्थ्य खराब हो जाता है।

iv) अधिक कार्यभार (Excessive Workload) – विद्यालय में अध्यापकों को अधिक कार्यभार का वहन करना पड़ता है। उन्हें कक्षा में अनुशासन, अध्यापन हेतु पाठ तैयार करना, लिखित कार्य देना एवं उसको चेक करना, उपस्थिति रजिस्टर तैयार करना, परीक्षा पुस्तिकाओं की जाँच एवं रिपोर्ट-कार्ड बनाना इत्यादि कार्य करने पड़ते हैं। प्रायः अत्यधिक कार्यभार पड़ने से उसे सामंजस्य स्थापित करने में कठिनाई होती है। अतः अत्यधिक कार्य भार उसके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है।

v) पारिवारिक कठिनाइयाँ (Family Problems) – शिक्षक के ऊपर अपने परिवार के भरण-पोषण का भी भार रहता है उसको विद्यालय से पर्याप्त वेतन प्राप्त न होने के कारण वह अपने परिवार की आवश्यकताएँ पूर्ण करने में असमर्थ रहता है। जिस कारण पारिवारिक कलह उत्पन्न होती है जो उसके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती है। अतः वह उचित रूप से शिक्षण कार्य नही कर पाता है।

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मानसिक स्वास्थ्य को उन्नत करने के उपाय | Measures to Improve Mental Health in Hindi
मानसिक स्वास्थ्य को उन्नत करने के उपाय | Measures to Improve Mental Health in Hindi
मानसिक स्वास्थ्य को उन्नत करने के उपाय | Measures to Improve Mental Health in Hindi
मानसिक स्वास्थ्य को उन्नत करने के उपाय | Measures to Improve Mental Health in Hindi

मानसिक स्वास्थ्य को उन्नत करने के उपाय (Measures to Improve Mental Health)

आधुनिक समय में व्यक्ति शारीरिक रोगों की अपेक्षा मानसिक रोगों से अधिक ग्रसित है। ऐसे में मानसिक स्वास्थ्य के ज्ञान के साथ-साथ उसकी रोकथाम की भी उतनी ही आवश्यकता है। मानसिक स्वास्थ्य को उन्नत करने के कुछ उपाय निम्नलिखित हैं-

  1. छात्रों/बालकों के मानसिक स्वास्थ्य को उन्नत करने के उपाय
  2. शिक्षकों के मानसिक स्वास्थ्य को उन्नत करने के उपाय

छात्रों/बालकों के मानसिक स्वास्थ्य को उन्नत करने के उपाय (Measures to Improve Mental Health of Students/Children)

बालक के मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा करने का उत्तरदायित्व परिवार, विद्यालय तथा समाज का हैं। ये कारक न केवल बालक की असमायोजन से रक्षा करते हैं। वरन् उसकी समायोजन क्षमता को बढ़ाते हैं। ये कारक निम्नलिखित हैं-

1) पारिवारिक कारक (Family Factors) – परिवार मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने में अग्रलिखित रूप से सहायक हो सकता है-

i) माता-पिता का व्यवहार (Parental Behaviour) – माता-पिता के उचित व्यवहार का असर सबसे ज्यादा बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता हैं। वह परिवार जहाँ माँ अपने बच्चों को प्रेम और सुरक्षा प्रदान करती है तथा पिता अपने बच्चों के साथ अपना समय व्यतीत करते हैं तो उन परिवार के बालकों का मानसिक स्वास्थ्य उत्तम रहता है। अतः माता-पिता का व्यवहार बालक के मानसिक स्वास्थ्य में सहयोग देता है।

ii) परिवार का वातावरण (Home Environment) – बालक के मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए परिवार तथा परिवार के सदस्यों को शान्तपूर्ण वातावरण बनाए रखना चाहिए। यदि परिवार का वातावरण उत्तम होगा तो इसका बालक के मानसिक स्वास्थ पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा।

iii) विकास के लिए आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करना (Providing Essential Facilities for Development) – मानसिक रूप से स्वतन्त्रता, आत्मविश्वास और उत्तरदायित्व की भावना बालक में 6 वर्ष की आयु तक विकसित हो जाती है। परिवार को बालक के मानसिक योग्यता एवं स्वास्थ्य के विकास के लिए पूर्ण अवसर, सुविधा और वातावरण प्रदान करना चाहिए।

2) विद्यालय के कारक (School Factors) – बालक के व्यक्तित्व का विकास परिवार से शुरू होते हुए विद्यालय तक चलता है, तथा विद्यालय में विभिन्न साधनों के द्वारा यह कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न पन्न किया जाता है। अतः विद्यालय में मानसिक स्वास्थ्य की उन्नति के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए-

i) अच्छा वातावरण (Healthy Environment) – विद्यालय के वातावरण का बालक के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर बहुत प्रभाव पड़ता है। यदि विद्यालय में सभी क्रियाएँ पूर्ण एवं उचित साधनों द्वारा होती हैं तो यह बालक के मानसिक स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव डालती हैं।

ii) अनुशासन (Discipline) – बालक में आत्मानुशासन की भावना जागृत करने का उत्तरदायित्व विद्यालय का होता है। विद्यालय का अनुशासन जनतन्त्रीय सिद्धान्तों पर आधारित नहीं होना चाहिए।

iii) सन्तुलित और उपयुक्त पाठ्यक्रम (Balanced and Appropriate Curriculum) – पाठ्यक्रम बालक की आयु, रुचि और आवश्यकता के अनुकूल होना चाहिए। अतः पाठ्यक्रम में ऐसे विषयों का चयन करना उपयुक्त होगा जो बालक के विकास तथा मानसिक स्वास्थ्य में योगदान देते हो।

iv) शिक्षकों का स्नेहपूर्ण व्यवहार (Affectionate Behaviour of Teachers)- शिक्षक को बालकों से नम्र, शिष्ट और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करना चाहिए क्योंकि यदि शिक्षक बालक से स्नेहपूर्ण व्यवहार करेगा तो यह उसके मानसिक स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव डालेगा।

v) अच्छी नागरिकता की शिक्षा (Education of Good Citizenship) – बालकों को अच्छा नागरिक बनाने की शिक्षा विद्यालय से प्रारम्भ हो जाती है। बालकों में अच्छे गुणों के विकास के द्वारा उन्हें एक अच्छा नागरिक बनने में सहायता की जा सकती है।

शिक्षकों के मानसिक स्वास्थ्य को उन्नत करने के उपाय (Measures to Improve Mental Health of Teachers)

शिक्षकों के मानसिक स्वास्थ्य को उन्नत करने के उपाय निम्नलिखित हैं-

1) कार्यभार में कमी (Reduced Work Load) – यदि शिक्षकों के कार्य भार को कुछ कम कर दिया जाए तो वह कम समय में अधिक एवं अच्छा कार्य करेंगे जिससे उनका मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य का स्तर ऊपर उठेगा।

2) उचित वेतन (Appropriate Wages) – अध्यापकों के मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य के स्तर को उन्नत करने के लिए यह आवश्यक है कि अध्यापकों को नियमित रुप से उचित वेतन दिया जाए। जिससे उनकी पारिवारिक एवं आर्थिक सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके अतः उचित वेतन प्राप्ति से वह तनावमुक्त रहेंगे व अधिक रूचि से कार्य करेंगे।

3) नौकरी की सुरक्षा (Job Security) – अध्यापकों को उनकी सेवाएं सुरक्षित प्राप्त हों अर्थात् अल्पावधि की न हो और सेवानिवृत्ति के पश्चात् उन्हें पेंशन देने की उचित व्यवस्था की जाए। ये सुविधायें उसको भविष्य चिंता से मुक्त रखेंगी।

4) विद्यालय का वातावरण (Healthy Atmosphere in School) – विद्यालय में किसी भी अध्यापक के साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए तथा सभी के साथ समान एवं उचित व्यवहार होना चाहिए। विद्यालय का अनुकूल वातावरण शिक्षक के मानसिक स्वास्थ्य के स्तर में वृद्धि करता है।

5) प्रशिक्षण संस्थाओं का सहयोग (Cooperation of Training Institutions) – अध्यापकों के मानसिक स्वास्थ्य स्तर को ऊँचा उठाने में प्रशिक्षण संस्थाओं का विशेष महत्व है। ये प्रशिक्षण संस्थाएँ विद्यार्थियों को उचित शिक्षा प्रदान करने में अध्यापक की सहायता करती है।

6) आत्मविश्वास में वृद्धि (Boosting Self-Confidence) – अध्यापकों को स्वयं के आत्मविश्वास में वृद्धि करना चाहिए ताकि वह विषम परिस्थितियों में धैर्य रखे और उनका सामना स्वयं कर सके। गेट्स एवं अन्य के अनुसार, यदि शिक्षक स्वयं को भली भांति समझ ले और स्वयं को वैसा ही मान ले, जैसा वह है। यदि वह उत्साहपूर्वक अपने जीवन निर्देशन में सक्रिय भाग ले, यदि वह स्वयं को वैसा ही मापे जैसा कि वह अपने जीवन को सही निर्देशन देने हेतु पूर्ण उत्साहित है और सक्रियता से भाग लेता है, तो वह अपने खुद के मानसिक स्वास्थ्य में सुधार कर सकता है।

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विवेकानन्द के राष्ट्रवाद के धार्मिक या आध्यात्मिक विचार
विवेकानन्द के राष्ट्रवाद के धार्मिक या आध्यात्मिक विचार
विवेकानन्द के राष्ट्रवाद के धार्मिक या आध्यात्मिक विचार
विवेकानन्द के राष्ट्रवाद के धार्मिक या आध्यात्मिक विचार

विवेकानन्द के राष्ट्रवाद के धार्मिक या आध्यात्मिक विचारों की व्याख्या कीजिए ।

राजनीति में विवेकानन्द का कोई विश्वास न था और न ही उन्होंने किन्ही राजनीतिक कार्य-कलापों में कभी भाग लिया। उन्होंने स्वयं कहा था कि “मैं न राजनीतिक हूँ, न राजनीतिक आन्दोलनकारी। मैं केवल आत्म-तत्व की चिन्ता करता हूँ। जब वह ठीक रहेगा तो सब काम अपने आप ठीक हो जायेंगे।” फिर भी उनके भाषणों और विचारों में राजनीति का जो दर्शन मिलता है वह उन्हें पश्चिम के व्यावसायिक राजनीतिक चिन्तकों से कहीं आगे ले जाता है। विवेकानन्द ने राष्ट्रवाद के एक धार्मिक सिद्धान्त नींव का निर्माण किया। वे समझते थे कि आगे चलकर धर्म ही भारत के राष्ट्रीय जीवन का मेरुदण्ड बनेगा। उनका कहना था कि राष्ट्र की भावी महानता का निर्माण उसके अतीत की महत्ता की नींव पर ही किया जा सकता है। अतीत की उपेक्षा करना राष्ट्र के जीवन का ही निषेध करने के समान है। इसीलिए भारतीय राष्ट्रवाद का निर्माण अतीत की ऐतिहासिक विरासत की सुदृढ़ नींव पर ही करना होगा।

विवेकानन्द हीगल की तरह राष्ट्र की महत्ता के प्रतिपादक थे। उनके मतानुसार भारत को अपने अध्यात्म से पश्चिम को विजित करना होगा। उनका कहना था “एक बार पुनः भारत को विश्व की विजय करनी है। उसे पचिश्म पर आध्यात्मिक विजय करनी है।”

तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों में राष्ट्रवाद को विवेकानन्द इसी रूप में प्रस्तुत कर सकते थे। चूँकि वे एक संन्यासी थे इसीलिए राजनीतिक विवादों से दूर रहना चाहते थे और यदि खुलकर राजनीतिक स्वतंत्रता का समर्थन करते तो ब्रिटिश सरकार उन्हें कारागार में बन्द कर देती जिसका परिणाम यह होता कि उनकी शक्ति व्यर्थ में नष्ट होती और देशवासियों के धार्मिक और नैतिक पुनरुत्थान का जो काम उन्हें सबसे अधिक प्रिय था उसमें विघ्न पड़ता। विवेकानन्द भारतीय राष्ट्रवाद के सन्देशवाहक थे। जब उन्होंने देशवासियों को कहा- “बंकिमचन्द्र को पढ़ो तथा उनके सनातन धर्म और उनकी देशभक्ति को ग्रहण करो” “जन्मभूमि की सेवा को अपना सबसे बड़ा कर्तव्य समझो।”

(2) स्वन्त्रता सम्बन्धी धारणा- विवेकानन्द का स्वतन्त्रता विषयक दृष्टिकोण बहुत व्यापक था। उनका कहना था कि सम्पूर्ण विश्व अपनी अनवरत गति के द्वारा मुख्यतः स्वतन्त्रता को हो खोज कर रहा है। उन्होंने कहा, “जीवन सुख और समृद्धि की एकमात्र शर्त – चिन्तन और कार्य में स्वतन्त्रता है। जिस क्षेत्र में यह नहीं है, उस क्षेत्र में मनुष्य जाति और राष्ट्र का पतन होगा।” उन्हीं के शब्दों में, “शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वतन्त्रता की ओर अग्रसर होना तथा दूसरों को उनकी ओर अग्रसर होने में सहायता देना मनुष्य का सबसे बड़ा पुरस्कार हैं। जो सामाजिक नियम इस स्वतन्त्रता के विकास में बाधा डालते हैं वे हानिकारक हैं और उन्हें शीघ्र नष्ट करने के लिये प्रयत्न करना चाहिये। उन संस्थाओं को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए जिनके द्वारा मनुष्य स्वतन्त्रता के मार्ग पर आगे बढ़ता है।”

विवेकानन्द ने स्वतन्त्रता को मनुष्य का प्राकृतिक अधिकार माना और यह इच्छा व्यक्त की कि समाज में सभी सदस्यों को यह अवसर समान रूप से प्राप्त होना चाहिये। उन्हीं के शब्दों में, “प्राकृतिक अधिकार का अर्थ यह है कि हमें अपने शरीर, बुद्धि और धर्म का प्रयोग अपनी इच्छानुसार करने दिया जाये और हम दूसरों को कोई हानि नहीं पहुँचायें और समाज के सभी सदस्यों को धन, शिक्षा तथा ज्ञान प्राप्त करने का समान अधिकार हो।”

विवेकानन्द के मतानुसार स्वतन्त्रता उपनिषदों का मुख्य सिद्धान्त था, उपनिषद्कारों ने शारीरिक मानसिक एवं आध्यात्मिक आदि स्वतन्त्रता के सभी पक्षों का डटकर समर्थन किया था। स्वामीजी ने स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में अपने एक जोशीले देशभक्तिपूर्ण और उच्च भावनायें उत्पन्न करने वाले व्याख्यान में अपने देश को इस प्रकार सम्बोधित किया था, “हे भारत, क्या तू दूसरों की संस्थाओं की नकल पर निर्भर रहेगा और दूसरों की प्रशंसा पाने के लिए व्यग्र रहेगा और पद के अधिकार के लिये मूढ़ दासता, घृणित नृशंसता में फँसा रहेगा ? क्या तू इस प्रकार की निर्लज्ज कायरता से वह स्वतन्त्रता प्राप्त कर सकता है, जिसके योग्य केवल वीर होते हैं? यह न भूल कि तेरा समाज महानता की भ्रान्ति में भूला हुआ है। अपने गिरे हुए गरीब, अज्ञ, भंगी, मेहतर को न भूल, वे तेरे रक्त-मांस हैं, वे तेरे भाई हैं। हे वीर, सहाय कर, गर्वित हो कि तू भारतीय है और बड़े वर्ग के साथ यह कह कि, मैं भारतीय हूँ और हरेक भारतीय मेरा भाई है, भारत की भूमि मेरे लिए सर्वोच्च स्वर्ग है भारत की भलाई मेरी भलाई है।”

(3) शक्ति और निर्भयता का सन्देश- विवेकानन्द ने भारतवासियों को शक्ति और निर्भयता का सन्देश दिया और उनके हृदय में यह भावना भरने की कोशिश की कि बिना शक्ति के हम अपने अस्तित्व को कायम नहीं रख सकते और न अपने अधिकार की रक्षा करने में ही समर्थ हो सकते हैं। विवेकानन्द ने अप्रत्यक्ष रूप से यह सन्देश दिया कि भारतवासी शक्ति, निर्भीकता और आत्मबल के आधार पर ही विदेशी सत्ता से लोहा ले सकते हैं और अपनी राष्ट्रीय स्वाधीनता प्राप्त कर सकते हैं।

(4) व्यक्ति की गरिमा- विवेकानन्द के अनुसार राष्ट्र व्यक्तियों से ही बनता है अतः सब व्यक्तियों को अपने में पुरुषत्व, मानव गरिमा तथा सम्मान की भावना आदि श्रेष्ठ गुणों का विकास करना चाहिये। उन्हीं के शब्दों में, “आवश्यकता इस बात की है कि व्यक्ति अपने अहं का देश और राष्ट्र की आत्मा के साथ तादात्म्य कर दे।”

(5) अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों पर बल- विवेकानन्द ने अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों को महत्व दिया। वे चाहते थे कि सभी व्यक्ति और समूह अपने कर्तव्यों और दायित्वों के पालन में ईमानदार हों। मानवप्राणी का गौरव इस बात में नहीं है कि वह अपने तथा अपने अधिकारों के लिये आग्रह करे, उसकी गरिमा इस बात में है कि वह सार्वभौम शुभ की सिद्धि हेतु अपना उत्सर्ग कर दे। इसलिये यद्यपि विवेकानन्द स्वयं भिक्षु और संन्यासी थे, किन्तु उन्होंने निष्काम भाव से अपना कर्तव्य करने वाले गृहस्थ को सर्वोच्च स्थान दिया।

(6) आदर्श राज्य की धारणा- विवेकानन्द के अनुसार, मानवीय समाज पर चार वर्ण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र (मजदूर) बारी-बारी से राज्य करते हैं। ब्राह्मण पुरोहित ज्ञान के शासन और विज्ञानों की प्रगति के लिये है। क्षत्रिय राज्य क्रूर और अन्यायी होता है और इस काल में कला एवं सामाजिक शिष्टता उन्नति के शिखर पर पहुँच जाती है। उसके बाद वैश्य राज्य आता है। उनमें कुचलने और खून चूसने की मौन शक्ति अत्यन्त भीषण होती है। अन्त में आयेगा मजदूरों का राज्य । उसका लाभ होगा भौतिक सुखों का समान वितरण और उससे हानि होगी। सभ्यता का निम्न स्तर पर गिर जाना। साधारण शिक्षा का बहुत प्रचार होगा परन्तु असामान्य प्रतिभाशाली व्यक्ति कम होते जायेंगे।

विवेकानन्द के अनुसार यदि ऐसा राज्य स्थापित करना सम्भव हो जिसमें ब्राह्मण काल का ज्ञान, क्षत्रिय काल की सभ्यता, वैश्य काल का प्रचार-भाव और शूद्र काल की समानता रखी जा सके तो वह आदर्श राज्य होगा।

(7) अन्तर्राष्ट्रीयतावाद एवं विश्वबन्धुत्व- विवेकानन्द उग्र राष्ट्रवाद के बजाय अन्तर्राष्ट्रीयतावादी थे। उनके अन्तर्राष्ट्रीयतावादी और विश्वबन्धुत्व के बारे में शिकागो धर्म संसद के समाप्त होने के बाद कहा गया, “जहाँ अन्य सब प्रतिनिधि अपने-अपने धर्म में ईश्वर की चर्चा करते रहे वहाँ केवल विवेकानन्द ने ही सबके ईश्वर की बात की।” वे मानव-मानव के भेद को अस्वीकार करते थे, वे हिन्दू धर्म तथा भारत से असीस प्यार करते थे किन्तु अन्य किसी राष्ट्र से उन्हें घृणा नहीं थी। उन्होंने एक बार कहा था, “निस्सन्देह मुझे भारत से प्यार है पर प्रत्येक दिन मेरी दृष्टि निर्मल होती जाती है। हमारे लिये भारत या इंग्लैण्ड या अमेरिका क्या है? हम तो उस ईश्वर के सेवक है जिसे ब्रह्म कहते हैं। जड़ में पानी देने वाला क्या सारे वृक्ष को नहीं सोचता है।”

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उत्तर बाल्यावस्था | Late Childhood (School Going Stage) in Hindi
उत्तर बाल्यावस्था | Late Childhood (School Going Stage) in Hindi
उत्तर बाल्यावस्था | Late Childhood (School Going Stage) in Hindi
उत्तर बाल्यावस्था | Late Childhood (School Going Stage) in Hindi

उत्तर बाल्यावस्था [ Late Childhood (School Going Stage) ]

यह अवस्था 6 वर्ष की उम्र से शुरू होकर 10 साल या 12 साल तक चलती है। बालकों में 6-12 वर्ष तथा बालिकाओं में 6-10 वर्ष की अवस्था उत्तर बाल्यावस्था कहलाती है।

इस अवस्था में ये स्कूल जाने लगते हैं तथा इस अवस्था को (School Going Stage/Elementary School Stage) – प्रारम्भिक स्कूल अवस्था कहते हैं। इस अवस्था में बच्चे घर से बाहर निकलते हैं इनका दायरा परिवार की चहारदीवारी से विस्तृत हो जाता है और ये बाहर विद्यालय में मित्र के साथ समूह बनाते हैं ।

इस अवस्था में बच्चे माता-पिता से अधिक अपने समूह की बात को अधिक मानते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने इस अवस्था को गिरोह अवस्था (Gang Stage) का नाम दिया है। इस अवस्था में बच्चे माता-पिता की बात नहीं मानते तथा कई प्रकार के अनावश्यक, अवांछित कार्य करते हैं। जिसके कारण माता-पिता द्वारा इस अवस्था को उत्पाती अवस्था कहा जाता है।

उत्तर बाल्यावस्था की विशेषताएँ (Characteristics of Late Childhood)

इस अवस्था की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1) प्रारम्भिक शिक्षा हेतु विद्यालय में प्रवेश- शिक्षकों द्वारा उत्तर बाल्यावस्था को प्रारम्भिक स्कूली अवस्था कहा गया है।

2) समूह तथा मित्रों का अधिक प्रभाव – उत्तर बाल्यावस्था में बालक अपनी ही उम्र के साथियों के समूह द्वारा स्वीकृति पाने के लिए काफी लालायित रहता है।

3) लड़ाई-झगड़े की अधिक प्रवृत्ति- उत्तर बाल्यावस्था में बालकों में लड़ाई-झगड़ा करने की प्रवृत्ति भी अधिक होती है।

4) उत्पात करने की अधिक प्रवृत्ति- उत्तर बाल्यावस्था को माता-पिता द्वारा एक उत्पाती या उधमी अवस्था कहा गया है।

5) सृजनात्मक कार्यों में रुचि – उत्तर बाल्यावस्था में बालकों में सृजनात्मक क्रियाओं की ओर अधिक झुकाव होता है।

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बाल्यावस्था में विभिन्न संस्थाओं का प्रभाव | Effect of Different Institutions in Childhood in Hindi
बाल्यावस्था में विभिन्न संस्थाओं का प्रभाव | Effect of Different Institutions in Childhood in Hindi
बाल्यावस्था में विभिन्न संस्थाओं का प्रभाव | Effect of Different Institutions in Childhood in Hindi
बाल्यावस्था में विभिन्न संस्थाओं का प्रभाव | Effect of Different Institutions in Childhood in Hindi

बाल्यावस्था में विभिन्न संस्थाओं का प्रभाव (Effect of Different Institutions in Childhood)

बालक का विकास कई अभिकरणों से प्रभावित होता है। सांसारिक अनुभवों से दूर जन्म के समय बालक केवल एक मांस का पिण्ड होता है। बचपन में बालक सामाजिक ताने-बाने से अनभिज्ञ रहता है इसलिए परिवार एवं विद्यालय में रहकर ही उसका सामाजिक प्राणी के रूप में विकास होता है। इसके पश्चात् पास-पड़ोस, समुदाय एवं समाज, बालक को प्रभावित करते हैं। बाल्यावस्था बालक का निर्माणकाल होता है अतः जैसा वातावरण उसे बचपन में मिलेगा वही उसके जीवन पर्यन्त व्यवहार में परिलक्षित होगा। स्किनर और हैरीमन के अनुसार, “वातावरण एवं संगठित सामाजिक संस्थाओं के कुछ विशेष कारक बालक के विकास की दशा व दिशा निश्चित करते है।” बालक पर विभिन्न संस्थाओं के प्रभाव का निम्न बिन्दुओं के तहत अध्ययन किया गया है-

1) परिवार का प्रभाव (Effect of Family) – बाल्यावस्था में बालक का जीवन एक कोरे कागज के समान होता है। परिवार बालक की पहली सामाजिक संस्था है। गर्भावस्था से ही बालक के विकास में उसकी माता के रहन-सहन और खान-पान का असर पड़ने लग जाता है। बाल्यावस्था में बालक का उसकी माता के प्रति एक विशेष प्रेम एवं स्नेह का रिश्ता रहता है। नवजात बालक में सामाजिकता नाम की कोई चीज नहीं होती है। उसे अपने दैनिक कार्यों के लिए परिवार के सदस्यों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। भाषा का विकास होते ही दूसरों से सम्पर्क स्थापित करने से सामाजिक योग्यता में अभिवृद्धि होती है। परिवार में बालक सहयोग, सहनशीलता आदि गुणों को सीखता है। परिवार के बड़े-बुजुर्ग सदस्यों से बालकों में सामाजिक भावना का विकास होता हैं। उनके अनुकरण से बालक समाज से आदर्श व्यवहार करना सीखता है।

इस अवस्था में बालक अपने भाई-बहनों के साथ सामूहिक खेलों में रुचि लेना प्रारम्भ कर देता है इससे उनमें सामूहिकता की भावना का विकास होता है। छोटे बालक अपने बड़े भाई-बहनों की अपेक्षा शीघ्र सीखते हैं। परिवार के सदस्य बालक का प्यार-दुलार से लालन-पालन करते है इससे उनमें अनुशासन का संचार होता है जो आदर्श व्यक्तित्व के लिए एक प्रमुख तत्व है। यदि किसी बालक को अच्छा पारिवारिक वातावरण नहीं मिला तो उसे भविष्य में सामाजिक रूप से समायोजन करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। बाल्यकाल की समस्त घटनाओं का प्रभाव व्यक्ति के भावी जीवन पर पड़ता है।

बाल्यावस्था में जिज्ञासा की प्रबलता के कारण बालक नवीन वातावरण को जानने का प्रयास स्वयं करता हैं। ऐसे में पारिवारिक सदस्य ही उसकी जिज्ञासा व ज्ञान पिपासा को शांत करते हैं। परिवार बालक को विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं से बचाता है और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करता है। परिवार में रहकर ही बालकों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं की पूर्ति हो सकती है। परिवार उसमें संग्रह करने की प्रवृति का विकास करता है। थोर्प एवं शमलर के अनुसार, “परिवार बालक को ऐसे अनुभव प्रदान करता है जो उसके व्यक्तित्व विकास की दिशा तय करते हैं। परिवार बालक पर सामाजिक नियंत्रण स्थापित करता है। भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं का परिचालन सर्वप्रथम परिवार के माध्यम से ही होता है। बच्चे में सभी अच्छी आदतों का विकास बचपन में परिवार में रहकर ही होता है। परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का भी बालक पर प्रभाव देखा जा सकता है। गरीब परिवार के सदस्य जल्दी स्वावलम्बी बनते है।

2) विद्यालय का प्रभाव (Effect of School)- बालक के समाजीकरण में अगली कड़ी विद्यालय की होती है। बालक को विद्यालय में घर के बाद बड़ा परिवार मिलता है। यह ज्ञानार्जन की एक औपचारिक संस्था है। विद्यालय में अलग-अलग आयु स्तर के छात्र भिन्न-भिन्न सामाजिक व आर्थिक समूह से आते हैं। विद्यालय की विशेषताएँ अनेक होती हैं किन्तु सभी विद्यार्थी एक समान उद्देश्य के लिए यहाँ एकत्रित होते हैं। विद्यालय के नवीन वातावरण में बालक कई बार सही तरीके से समायोजित नहीं हो पाता है और वह सांवेगिक संतुलन खो बैठता है ऐसे में अध्यापक बालकों को संवेग पर नियंत्रण करना सिखाते हैं। विद्यालय में सामाजिक भावना का विकास होता है और बालक लोकतांत्रिक व्यवहार सीखता है। विद्यालय के स्वस्थ वातावरण, व्यवस्था, पर्यवेक्षण एवं साधन-सुविधाओं से अधिगम प्रभावी होता है। विद्यालय में बालक ज्ञान व कौशलों का अर्जन करते हैं इससे उनकी बौद्धिक क्षमता का विकास होता है।

विद्यालय बालक के तानाशाही व्यवहार पर रोक लगाकर उसे देश हित की भावना से प्रेरित करते हैं। साहस, शौर्य, त्याग और देशभक्ति की भावना विद्यालय में ही सीखी जा सकती है। विद्यालय में अध्यापक बालक के सामने विभिन्न प्रकार के आदर्श प्रस्तुत करते हैं जिससे उसका समुचित विकास संभव हो पाता है। अध्यापक बालक में सामूहिक चेतना का विकास करते हैं। विद्यालय में बालक की सहगामी क्रियाओं से सहयोग, प्रतिस्पर्धा आदि गुणों में विस्तार होता है। निरन्तर खेलों का आयोजन होने से बालक शारीरिक रूप से स्वस्थ रहते हैं। विद्यालय में छात्र का विकास अध्यापक की कुशलता पर निर्भर करता है। विद्यालय में बालक के संवेगों की जानकारी प्राप्त कर स्वानुशासन स्थापित करने पर जोर दिया जाता है। उनकी विभिन्न जिज्ञासाओं को शांत कर समय-समय पर प्रगति का मूल्यांकन किया जाता है ऐसे में बालक स्वयं के बारे जागरूक रहता है।

3) आस-पड़ोस का प्रभाव (Effect of Neighbourhood ) – घर से बाहर कदम रखते ही अड़ोस-पड़ोस शुरू हो जाता है। अड़ोस-पड़ोस से बालक में सहानुभूति, प्रेम, निष्ठा, सहकारिता और कर्तव्यपरायणता जैसे गुणों का विकास होता है। अडोस-पड़ोस में अन्य बालकों के साथ खेलने से बालकों की मित्र मंडली बन जाती है। इससे छोटे-छोटे दलों का निर्माण होता है और उनमें दलों का नेतृत्व करने की क्षमता का विकास होता है। अडोस-पड़ोस के बच्चे आपस में मिलकर खेल खेलते हैं जिसका मुख्य उद्देश्य मनोरंजन है लेकिन खेल-खेल में बालक उत्तरदायित्व की भावना सीख लेता है। खेलों से बालकों का शारीरिक विकास होता है। इससे बालकों की नकारात्मक उर्जा बाहर निकलती है। कई बार अड़ोस-पड़ोस से बालक गंदी आदतों का शिकार भी हो जाता है। जिनका समय पर समाधान आवश्यक है।

4) समुदाय का प्रभाव (Effect of Community) – मानव एक सामाजिक प्राणी है। बालक का सर्वांगीण विकास समुदाय में रहकर ही हो सकता है। समुदाय समाज की एक छोटी इकाई है जो समूह के रूप में बालक के विकास को निरन्तर प्रभावित करता है। समूह में रहकर ही बालक नैतिक आचरण करना सीखता है। इससे बालक में कल्पना शक्ति, निर्णय लेने की क्षमता और बौद्धिक क्षमता का विकास होता है। मुजाफेर शेरिफ ने बताया कि समुदाय एक सामाजिक इकाई है जिसमें सदस्य परस्पर सम्बन्धित रहकर निश्चित कार्यों को सम्पन्न करते हैं। समुदाय अपने मानक स्वयं तय करता है और सभी सदस्यों को उनका अनुकरण करना आवश्यक होता है।

समुदाय के सभी सदस्यों में परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया होती है जिससे बालक के अधिगम में सकारात्मक असर पड़ता है। समुदाय से बालक में सम्बद्धता और आत्मीयता की भावना विकसित होती है। समुदाय में रहकर बालक सद्भाव का गुण सीखता है। समुदाय बालक के लिए धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा की व्यवस्था भी करता है। समुदाय संस्कारों एवं परम्पराओं का वाहक है जो बालक के लिए भारतीय दर्शन प्रस्तुत करता है। यहाँ सभी धर्मों के पर्व मनाये जाते हैं जिससे बालक में धार्मिक सहिष्णुता का भाव जागृत होता है। हरलॉक के अनुसार जन्म के समय कोई भी बालक सामाजिक नहीं होता है। दूसरों के साथ होते हुए भी वह अकेला होता है। इस दौरान वह समाज के लोगों के सम्पर्क में आकर ही समायोजन की प्रक्रिया सीखता है। समुदाय में विभिन्न सामाजिक एवं धार्मिक आयोजनों से लोग एक दूसरे से मिलते हैं इससे बालक में सामुदायिक एवं जन कल्याण की भावना का विकास होता है। समुदाय के लोकप्रिय नेता का प्रभाव सभी पर पड़ता है ऐसे में बालकों में नेता बनने के गुणों का विकास हाता है।

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बाल्यावस्था का अर्थ एवं परिभाषाएँ | बाल्यावस्था की विशेषताएँ | बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप | बाल्यावस्था का वर्गीकरण
बाल्यावस्था का अर्थ एवं परिभाषाएँ | बाल्यावस्था की विशेषताएँ | बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप | बाल्यावस्था का वर्गीकरण
बाल्यावस्था का अर्थ एवं परिभाषाएँ | बाल्यावस्था की विशेषताएँ | बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप | बाल्यावस्था का वर्गीकरण
बाल्यावस्था का अर्थ एवं परिभाषाएँ | बाल्यावस्था की विशेषताएँ | बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप | बाल्यावस्था का वर्गीकरण

बाल्यावस्था का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Childhood)

शैशवावस्था एवं किशोरावस्था के मध्य की अवस्था बाल्यावस्था कहलाती है। शैशवावस्था पूर्ण करने के पश्चात् बालक बाल्यावस्था में प्रवेश करता है। कोल और ब्रुस ने इस अवस्था को जीवन का ‘अनोखा काल’ बताते हुए लिखा है कि बाल्यावस्था को समझना सबसे कठिन कार्य है। यह अवस्था बालक के व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। अतः इसे निर्माणकारी काल भी कहा गया है।

रॉस ने बाल्यावस्था को ‘मिथ्या परिपक्वता का काल कहा है। बाल्यावस्था वैचारिक क्रिया अवस्था है, इसमें बालक अपनी प्रत्येक क्रिया पर विचार करता है।

किलपैट्रिक ने बाल्यावस्था को प्रतिद्वंदिता का काल माना है।

कुप्पूस्वामी के अनुसार, “बाल्यावस्था में अनेक अनोखे परिवर्तन देखे जा सकते हैं। “

शैशवावस्था एवं किशोरावस्था के मध्य की अवस्था बाल्यावस्था कहलाती है। शैशवावस्था पूर्ण करने के पश्चात् बालक बाल्यावस्था में प्रवेश करता है। कोल और ब्रुस ने इस अवस्था को जीवन का ‘अनोखा काल’ बताते हुए लिखा है कि बाल्यावस्था को समझना सबसे कठिन कार्य है ।

यह अवस्था बालक के व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। अतः इसे निर्माणकारी काल भी कहा गया है।

रॉस ने बाल्यावस्था को ‘मिथ्या परिपक्वता’ का काल कहा है। बाल्यावस्था वैचारिक क्रिया अवस्था है, इसमें बालक अपनी प्रत्येक क्रिया पर विचार करता है।

किलपैट्रिक ने बाल्यावस्था को प्रतिद्वंदिता का काल माना है।

कुप्पूस्वामी के अनुसार, “बाल्यावस्था में अनेक अनोखे परिवर्तन देखे जा सकते हैं।”

बाल्यावस्था की विशेषताएँ (Characteristics of Childhood)

बाल्यावस्था की विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

1) शारीरिक तथा मानसिक विकास स्थिरता (Stability in Physical and Mental Development ) – इस काल में शैशवावस्था की अपेक्षा मानसिक एवं शारीरिक विकास की गति में स्थिरता आ जाती है। इस अवस्था में ऐसा प्रतीत होता है कि मस्तिष्क पूर्ण परिपक्व हो गया है। इसलिए रॉस ने बाल्यावस्था को मिथ्या परिपक्वता का काल कहा है।

2) यथार्थवादी दृष्टिकोण (Realistic Point of View) – बाल्यावस्था में बालक का दृष्टिकोण यथार्थवादी होता है। अब बालक कल्पना जगत से वास्तविक संसार में प्रवेश करने लगता है।

3) जिज्ञासा की प्रबलता (Intensity in Curiosity)- बाल्यावस्था में जिज्ञासा की प्रबलता के कारण बालक नवीन वातावरण को जानने का प्रयास स्वयं करता है। उसमें स्मरण करने की शक्ति का भी विकास हो जाता है।

4) मानसिक योग्यताओं में वृद्धि (Growth in Mental Abilities) इस काल में मानसिक विकास की तीव्रता के कारण बालक तर्क करना प्रारम्भ कर देता है। बाल्यावस्था में प्रत्यक्षीकरण और ध्यान केन्द्रित करने की शक्ति का विकास होता है।

5) सामूहिक भावना का विकास (Development of Team Spirit) – बाल्यावस्था में सहयोग, सहनशीलता आदि गुणों का विकास हो जाने पर बालकों में सामाजिक भावना पनपने लगती है। इस अवस्था में बालक सामूहिक खेलों में रुचि लेना प्रारम्भ कर देते हैं।

6) रचनात्मक कार्यों में रुचि (Interest in Creative Work) – बाल्यावस्था में रचनात्मक प्रवृत्ति का विकास हो जाता है। इस उम्र में लड़के खिलौने जोड़ने लग जाते हैं और लड़कियां गुड़िया बनाना प्रारम्भ कर देती हैं।

7) संवेगों पर नियंत्रण (Control over Emotions) – इस अवस्था में बालक उचित – अनुचित में अंतर करने लगता है। बाल्यावस्था में बालक सामाजिक एवं पारिवारिक व्यवहार के लिए अपनी भावनाओं पर दमन और संवेगों पर नियंत्रण स्थापित करना सीख जाता है।

8) संग्रह प्रवृत्ति का विकास (Development of Acquisition Instinct ) – बाल्यावस्था में संग्रह करने की प्रवृत्ति का विकास हो जाता है। बालक विशेष रूप से अपने पुराने खिलौने, मशीन के कलपुर्जे, पत्थर के टुकड़े तथा बालिकाएं विशेष रूप से अपनी गुड़िया, कपड़े के टुकड़े आदि संग्रह करती दिखाई देती हैं।

9) प्रतिस्पर्धा की भावना (Spirit of Competition ) – बाल्यावस्था में प्रतिस्पर्धा की भावना आ जाती है। बालक अपने भाई-बहन से भी झगड़ा करने लग जाता है।

10) औपचारिक शिक्षा का प्रारंभ (Beginning of Formal Education ) – इस अवस्था में बालक की भाषा विकास के साथ-साथ औपचारिक शिक्षा प्रारम्भ हो जाती है और वह स्कूल जाना शुरू कर देता है। इसके साथ बालक में निरुद्देश्य भ्रमण करने की आदत पड़ जाती है।

11) अनुकरण की प्रवृत्ति का अधिक विकास (More Growth in the Tendency to Follow Others)— बाल्यावस्था में अनुकरण की प्रवृत्ति का अधिक विकास होता है। इस उम्र में चोरी करने और झूठ बोलने की आदत भी पड़ जाती है।

12) सम- लिंग भावना का विकास (Development of Same Gender Spirit) – इस अवस्था में समलिंगीय भावना का विकास होता है और लड़को में नेता बनने की चाह घर करने लगती है । बाल्यावस्था में काम प्रवृत्ति की न्यूनता पाई जाती है।

13) बहिर्मुखी प्रवृत्ति का विकास (Development of Extrovert Tendency)— बाल्यावस्था में बालक के बहिर्मुखी व्यक्तित्व का विकास होता है। ब्लेयर और सिम्पसन के अनुसार, “इस अवस्था में जीवन के बुनियादी दृष्टिकोण और स्थायी आदर्श व मूल्यों का निर्धारण हो जाता है। बाल्यावस्था में बालक की रुचियों में निरन्तर परिवर्तन देखा जा सकता है।”

बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप (Nature of Education in Childhood)

बाल्यावस्था में बालक औपचारिक रूप से पाठशाला जाना शुरू कर देता है। इस उम्र में बालक में सर्वाधिक परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। यह अवस्था बालक के व्यक्तित्व में निर्णायक भूमिका अदा करती है।

अतः बाल्यावस्था में बालकों को शिक्षा प्रदान करते समय निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए-

1) जिज्ञासा की संतुष्टि (Satisfaction of Curiosity)- इस अवस्था में बालकों की रुचि लगातार बदलती रहती है। ऐसे में बालकों की विषय सामग्री विनोद, साहस, मनोरंजन से भरपूर व रोचकता से पूर्ण होनी चाहिए। अध्यापन में बालकों की जिज्ञासा की संतुष्टि करना आवश्यक होता है।

2) भाषा विकास पर ध्यान (Focus on Language Development )- बाल्यावस्था में भाषा का विकास होता है। इसलिए भाषा के ज्ञान के साथ-साथ अन्य विषयों का भी अध्ययन कराना चाहिए, जो जीवन में लाभप्रद हो। बालकों के मानसिक विकास के लिए शिक्षण विधियों में भी परिवर्तन करते रहना चाहिए ।

3) इन्द्रियों का समुचित विकास (Proper Development of Senses ) – बाल्यावस्था में बालकों की इन्द्रियों के समुचित विकास के लिए क्रियाओं पर आधारित, अधिगम पर बल देना चाहिए। इसके लिए विद्यालय की पाठ्यचर्या में पर्यटन, खेल-कूद और सहगामी क्रियाओं की भी व्यवस्था होनी चाहिए।

4) रचनात्मक प्रवृत्ति के विकास पर ध्यान देना (To Pay Attention towards the Development of Creative Tendencies) – बाल्यावस्था में बालक कठोर अनुशासन पंसद नहीं करते। इसलिए उनकी शिक्षा डांट-फटकार की अपेक्षा प्रेम और सहानुभूति पर आधारित होनी चाहिए। इससे बालकों में रचनात्मक कार्य करने को भी बल मिलेगा ।

5) नैतिक मूल्यों का विकास ( Development of Moral Values) – बाल्यावस्था में बालक नैतिक एवं अनैतिक में भेद करना सीख जाता है। व्यक्तित्व निर्माण के लिए बालकों को उचित मूल्यों पर आधारित नैतिक शिक्षा प्रदान करनी चाहिए।

कॉलसेनिक के अनुसार, “मनोरंजन से भरपूर आनंद का अनुभव कराने वाली सरल कहानियों के माध्यम से नैतिक शिक्षा देनी चाहिए।”

6) संचय की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना (To Encourage the Habit of Accumulation)— बाल्यावस्था में संग्रह करने की प्रवृत्ति पायी जाती है। इस कारण शिक्षा प्रदान करते समय बच्चों को ज्ञान के संचय एवं धन की बचत करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।

7) सामूहिक प्रवृत्ति की संतुष्टि (Satisfaction of Team or Group Tendency) – इस अवस्था के बालकों में समूह में रहने की प्रवृत्ति देखी गई है। सामूहिक भावना के विकास के लिए विद्यालय में बालसभा, सामूहिक खेल व सामुदायिक कार्यों का आयोजन करना चाहिए।

8) संवेगात्मक विकास पर ध्यान (Focus on Emotional Development)— बाल्यावस्था में जीवन के अनेक पक्षों से संबंधित पहलुओं में परिवर्तन आता है। मानसिक और संवेगात्मक विकास के लिए उनके संवेगों पर नियत्रंण की अपेक्षा प्रदर्शन पर बल देना चाहिए।

9) सामाजिक गुणों का विकास (Development of Social Qualities) – बालकों में अनुशासन, सहयोग, स्वस्थ प्रतिस्पर्धा जैसे सामाजिक गुणों के विकास के लिए सामाजिक शिक्षा का प्रावधान होना चाहिए।

बाल्यावस्था का वर्गीकरण (Classification of Childhood)

2 वर्ष से 10 या 12 वर्ष तक की अवस्था बाल्यावस्था कहलाती है। बाल्यावस्था को शैशवावस्था एवं किशोरावस्था के मध्य की अवस्था भी कहा जाता है। शैशवावस्था पूर्ण करने के पश्चात् बालक बाल्यावस्था में प्रवेश करता है।

कोल और ब्रुस ने इस अवस्था को जीवन का ‘अनोखा काल’ बताते हुए लिखा है कि, “बाल्यावस्था को समझना सबसे कठिन कार्य है। यह अवस्था बालक के व्यक्तित्व निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। अतः इसे निर्माणकारी काल भी कहा गया है।”

According to Cole and Bruce, “This is indeed a difficult period of child development for parents to understand.”

रॉस ने बाल्यावस्था को ‘मिथ्या परिपक्वता का काल कहा है। बाल्यावस्था वैचारिक क्रिया अवस्था है, इसमें बालक अपनी प्रत्येक क्रिया पर विचार करता है।

किल्पैट्रिक ने बाल्यावस्था को प्रतिद्वंदिता का काल माना है।

कुप्पूस्वामी के अनुसार, “बाल्यावस्था में अनेक अनोखे परिवर्तन देखे जा सकते हैं।” इस अवस्था को दो भागों में बाँटा जा सकता हैं-

1) प्रारम्भिक बाल्यावस्था – 2 वर्ष से 6 वर्ष तक ।

2) उत्तर बाल्यावस्था – 6 वर्ष से 10 या 12 वर्ष तक ।

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प्रारम्भिक बाल्यावस्था का अर्थ एंव विशेषताएँ | Meaning and characteristics of Early Childhood in Hindi
प्रारम्भिक बाल्यावस्था का अर्थ एंव विशेषताएँ | Meaning and characteristics of Early Childhood in Hindi
प्रारम्भिक बाल्यावस्था का अर्थ एंव विशेषताएँ | Meaning and characteristics of Early Childhood in Hindi
प्रारम्भिक बाल्यावस्था का अर्थ एंव विशेषताएँ | Meaning and characteristics of Early Childhood in Hindi

प्रारम्भिक बाल्यावस्था (Early Childhood)

इस अवस्था को प्राक्स्कूल (Preschool) अवस्था कहते हैं। यह 2 वर्ष से प्रारम्भ हो कर 16 वर्ष तक चलती है। इस अवस्था को प्राक्टोली अवस्था (Pregang Stage) कहते हैं क्योंकि इसमें बालक समूहों में खेलना तथा अन्य क्रिया-कलाप आदि करते हैं। यह अवस्था बालकों के शारीरिक विकास में महत्वपूर्ण परिवर्तन की अवस्था है। बालकों का संज्ञानात्मक, बौद्धिक, सामाजिक, सांवेगिक एवं भाषायी विकास इसी अवस्था में होता है।

प्रारम्भिक बाल्यावस्था की विशेषताएँ (Characteristics of Early Childhood)

इस अवस्था की मुख्य विशेषताएँ निम्नवत् हैं-

1) यह एक समस्या की अवस्था होती है – इस अवस्था में बालक स्वतन्त्र रूप से कार्य करने का अधिक प्रयास करते हैं। व्यवहार से वे झक्की, जिद्दी, हठी, आज्ञा को न मानने वाले होते हैं। इनका यह व्यवहार समस्या बन जाता है इसी कारण इस अवस्था को समस्या अवस्था (Problem Stage) कहते हैं।

2) खेल एवं खिलौनों में अभिरुचि- इस अवस्था में बालकों की अभिरुचि खिलौनों से खेलने में अधिक होती है।

3) उत्सुकता की अधिकता- इस अवस्था में बालक अपने आस-पास के प्रत्येक वस्तु या घटना के विषय में जानने को उत्सुक रहते हैं। क्या, क्यों, कैसे आदि प्रश्नावाचक शब्दों का प्रयोग कर प्रश्न पूछकर अपनी उत्सुकता का परिचय देते हैं ।

4) अनुकरण की प्रवृत्ति – इस अवस्था में बालक माता-पिता एवं परिवार के सदस्यों द्वारा किए गए व्यवहार तथा क्रिया कलापों का अनुकरण करते हैं। यहाँ तक कि बच्चे खाने पीने तथा पहनावे में भी घर वालों तथा सगे-सम्बन्धियों का अनुकरण करते हैं।

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मानव अभिवृद्धि एवं विकास में होने वाले परिवर्तनों के प्रकार | Types of Changes in Human Growth and Development in Hindi
मानव अभिवृद्धि एवं विकास में होने वाले परिवर्तनों के प्रकार | Types of Changes in Human Growth and Development in Hindi
मानव अभिवृद्धि एवं विकास में होने वाले परिवर्तनों के प्रकार | Types of Changes in Human Growth and Development in Hindi
मानव अभिवृद्धि एवं विकास में होने वाले परिवर्तनों के प्रकार | Types of Changes in Human Growth and Development in Hindi

मानव अभिवृद्धि एवं विकास में होने वाले परिवर्तनों के प्रकार (Types of Changes in Human Growth and Development)

बालक के विकास में निरन्तर होने वाले परिवर्तन उसके शरीर तथा मन दोनों से सम्बन्धित होते हैं। हरलॉक (Hurlock) ने विकास में होने वाले परिवर्तनों को निम्नलिखित रूपों में व्यक्त किया है-

1) आकार में परिवर्तन (Change in Size) 

यह परिवर्तन शारीरिक तथा मानसिक दोनों प्रकार के विकास में दिखाई देता हैं। शारीरिक विकास से तात्पर्य भार, ऊंचाई, मोटाई, आदि में निरन्तर होने वाले परिवर्तन हैं। बालक के आन्तरिक भागों में भी परिवर्तन होता हैं। जैसे- हृदय, फेफड़ा, आंते आदि में वृद्धि होती है। यह सभी अंग शरीर की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए परमावश्यक हैं। आयु बढ़ने के साथ-साथ बालक का शब्द भण्डार एवं स्मरण शक्ति में भी वृद्धि होती है।

2) अनुपात में परिवर्तन (Change in Proportion)

 बालक का शारीरिक विकास सभी अंगों में एक समान रूप से नहीं होता है। नवजात शिशु के अन्य अंगों की अपेक्षा उसका सिर काफी बड़ा होता है परन्तु जैसे-जैसे शिशु का शारीरिक विकास होता हैं अर्थात् शिशु बढ़ता है वैसे-वैसे उसका सिर शरीर के अनुपात में तुलनात्मक रूप से कम बढ़ता है। इसी प्रकार बालक के मानसिक विकास में भी अन्तर दिखाई देता है । बाल्यावस्था की शुरुआत में बालकों की रुचि आत्म-केन्द्रित होती है। जैसे-जैसे आयु बढ़ती है उसके साथ-साथ उनकी रुचि का क्षेत्र भी बढ़ता जाता है।

3) पुरानी आकृतियों का लोप (Disappearance of Old Images)

 बालक में धीरे-धीरे उसकी बचपन की आकृतियों का लोप होना प्रारम्भ हो जाता है। बचपन में बालों तथा दांतों का लोप भी स्पष्टतम रूप में दिखाई देता है। इसी प्रकार बालक द्वारा बचपन में बोली जाने वाली भाषा जैसे- बलबलाना आदि का भी लोप हो जाता है। बचपन में बालक चलने की शुरुआत रेंगकर या घिसट कर करता है। धीरे-धीरे बचपन का रेंगना तथा घिसटना (creeping and crawling) भी समाप्त हो जाता हैं अर्थात् इसका लोप हो जाता हैं।

4) नई आकृतियों की प्राप्ति (Acquisition of New Images)

 विकास की अवस्था में पुरानी आकृतियों में परिवर्तन के साथ ही नई आकृतियों का बनना प्रारम्भ हो जाता है। यह परिवर्तन बालक की शारीरिक तथा मानसिक दोनों अवस्थाओं में क्रमशः दिखाई देता है। यह परिवर्तन सीखने की प्रक्रिया (learning process) तथा परिपक्वन (maturation) के परिणामस्वरूप होता है। आयु बढ़ने के साथ ही लैंगिक चेतना का भी विकास होता है। किशोरावस्था में बालकों एवं बालिकाओं में अनेकों शारीरिक परिवर्तन होने लगते हैं।

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मानव अभिवृद्धि एवं विकास के सिद्धान्त | Principles of Human Growth and Development in Hindi
मानव अभिवृद्धि एवं विकास के सिद्धान्त | Principles of Human Growth and Development in Hindi
मानव अभिवृद्धि एवं विकास के सिद्धान्त | Principles of Human Growth and Development in Hindi
मानव अभिवृद्धि एवं विकास के सिद्धान्त | Principles of Human Growth and Development in Hindi

मानव अभिवृद्धि एवं विकास के सिद्धान्त (Principles of Human Growth and Development)

विकास एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। गैरिसन के अनुसार, “विकास अपने क्रम में कुछ नियमों का पालन करता है जिनको विकास के सिद्धान्तों के रूप में जाना जाता है।” बालक के विकास की पहचान तथा विभिन्न अवस्थाओं में उसकी विशेषताओं एवं आवश्यकताओं को जानने के लिए विकास के सिद्धान्तों का अध्ययन आवश्यक है। विकास के कुछ सिद्धान्त निम्न प्रकार से हैं-

1) परस्पर संबंध का सिद्धान्त (Principle of Inter-relationship)-

इस सिद्धान्त के अनुसार बालक के विभिन्न गुण परस्पर संबंधित होते हैं। शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक विकास में एक प्रकार का सहसंबंध पाया जाता है। बालक के जब किसी एक गुण में विकास होता है तो अन्य गुणों का विकास भी उसी अनुपात में होता है। उदाहरण के लिए तीव्र बौद्धिक विकास वाले बालकों का शारीरिक एवं मानसिक विकास तीव्र गति से होता है। तीव्र तथा मंद बुद्धि वाले बालकों का शारीरिक एवं मानसिक विकास भी मन्द गति से होता है।

2) व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Individual Differences) –

इस सिद्धान्त के अनुसार, बालकों के विकास का क्रम तो समान रहता है परंतु विकास की गति में भिन्नताएं पायी जाती हैं अर्थात् उनकी वृद्धि एवं विकास वैयक्तिक भिन्नता लिए होता है। सभी बालकों में शारीरिक व मानसिक विकास की अपनी एक स्वाभाविक गति होती है। यह आवश्यक नहीं है कि एक निश्चित अवधि में सभी बालकों में विकास भी समान गति से ही हो। बालक और बालिकाओं में भी विकास की गति में भिन्नता पाई जाती है। डगलस और हॉलैण्ड के अनुसार, “विकास की यह भिन्नता व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवनकाल में बनी रहती है।”

3) वंशानुक्रम और वातावरण की अंतःक्रिया का सिद्धान्त (Principle of Interaction of Environment and Heredity)

मानव विकास, वंशानुक्रम और वातावरण का योग होता है। व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक विकास पर वंशानुक्रम और वातावरण का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। वंशानुक्रम में व्यक्ति की जन्मजात विशेषताएं प्रखर होती हैं। वंशानुगत शक्तियाँ प्रधान तत्व होने के कारण व्यक्ति के मौलिक स्वभाव तथा उसके जीवन चक्र की गति को नियंत्रित करती हैं। वातावरण में वे समस्त बाह्य परिस्थितियां सम्मिलित होती हैं, जो मानव व्यवहार को प्रभावित करती हैं। स्किनर के अनुसार, “वंशानुक्रम विकास की सीमाओं का निर्धारण करता है और वातावरण व्यक्ति की मौलिक शक्तियों को प्रभावित करता है।”

4) समान प्रतिमान का सिद्धान्त (Principle of Uniform Pattern) –

गैसेल और हरलॉक द्वारा प्रतिपादित इस सिद्धान्त के अनुसार एक जाति के जीवों में विकास का क्रम एक समान पाया जाता है। उदाहरण के लिए- सभी बालकों का जन्म के बाद विकास सिर से पैरों की ओर होना। बालक का गत्यात्मक एवं भाषा संबंधी विकास भी एक निश्चित क्रम के अनुसार ही होता है। गैसेल ने बताया कि कोई भी दो बालक एक जैसे नहीं होते लेकिन उनके विकास का क्रम समान होता है। हरलॉक के अनुसार, “प्रत्येक मनुष्य एवं पशु अपनी जाति के अनुरूप ही विकास के प्रतिमान का अनुसरण करते हैं।”

5) सामान्य से विशिष्ट क्रियाओं का सिद्धान्त (Principle of General to Specific Responses ) –

बालक के विकास के सभी क्षेत्रों में सबसे पहले सामान्य अनुक्रिया होती है। बाद में विशिष्ट अनुक्रियाएं प्रारम्भ होती हैं। हरलॉक इस सिद्धान्त के समर्थक थे । जन्म के उपरांत प्रारम्भ में किसी वस्तु को पकड़ने के लिए बालक शरीर के सभी अंगों का प्रयोग करता है लेकिन बड़े होने पर उसी अनुक्रिया के लिए वह अंग विशेष का प्रयोग करना शुरू कर देता है। शारीरिक विकास की ही तरह संवेगात्मक अभिव्यक्ति के लिए भी छोटा बच्चा केवल सामान्य संवेगात्मक उत्तेजना प्रदर्शित करता है। भय, प्रेम, क्रोध जैसे संवेगों की स्पष्ट अभिव्यक्ति मानसिक विकास के होने के पश्चात् ही होती है।

6) विकास की दिशा का सिद्धान्त (Principle of Direction of Development) –

इस सिद्धान्त को केन्द्र से परिधि की ओर सिद्धान्त भी कहा जाता है। इसके अनुसार बालक के विकास का क्रम सिर से पैरों की ओर होता है। व्यक्ति के सिर का विकास सर्वप्रथम होता है फिर यह पैरों की ओर बढ़ता है अर्थात् जो अंग सिर से जितना अधिक दूर होगा उसका विकास उतना ही बाद में होगा। बालक का सिर पहले विकसित होता है और पैर बाद में। यही बात बालक के अंगों पर नियन्त्रण पर भी लागू होती है। बालक जन्म के कुछ समय बाद अपने सिर को ऊपर उठाने का प्रयास करता है। 9 माह की आयु में सहारा लेकर बैठने लगता है। धीरे-धीरे खिसककर चलता है और 1 वर्ष की आयु में वह खड़ा हो जाता है।

7) सतत् विकास का सिद्धान्त (Principle of Continuous Development) –

इस सिद्धान्त के अनुसार विकास का क्रम गर्भावस्था से प्रौढ़ावस्था तक निरन्तर चलता रहता है। बालक के जन्म के शुरुआती तीन-चार साल में विकास की प्रक्रिया तीव्र होती है, जो बाद में मंद होती जाती है। इस सिद्धान्त के प्रबल समर्थक स्किनर के अनुसार, “किसी भी व्यक्ति में आकस्मिक कोई परिवर्तन नहीं होता। विकास एकाएक न होकर सतत् होता है।” उदाहरण के लिए दांतों का विकास भ्रूणावस्था में प्रारम्भ होता है, जो जन्म के 6 महीने बाद ही मसूढ़ों से बाहर निकलते हैं।

8) रेखीय न होकर पेंचदार विकास का सिद्धांत (Principle of Spiral Development) –

व्यक्ति में विकास एक रेखा के रूप में सीधा न होकर पेंचदार होता है। विकास एक सीधी रेखा में न होकर कई कड़ियों में विभक्त रहता है जो आगे-पीछे बढ़ते हुए परिपक्वता को प्राप्त करता है। विकास के कई पहलू होते हैं तथा उनके विकसित होने की गति और प्रक्रिया भी विशिष्ट होती है।

9) पूर्वानुमानता का सिद्धान्त (Principle of Predictability)

व्यक्ति में विकास का क्रम समान रहता है लेकिन उसकी गति भिन्न होती है फिर भी मनोवैज्ञानिक बालकों पर परीक्षण करके उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास के बारे में भविष्यवाणी कर सकते हैं। इससे व्यक्ति की रुचि एवं व्यवहार का अनुभव कर भविष्य के बारे में अनुमान लगाया जाता है। ओवेन ने अपने अध्ययनों के आधार पर बताया कि तर्क एवं बौद्धिक प्रकार्यों में विकास के प्रतिमानों की भविष्यवाणी संभव है।

10) विकास-क्रम का सिद्धान्त (Principle of Development Sequence)

व्यक्ति का विकास एक निरन्तर एवं क्रमिक रूप से चलने वाली प्रक्रिया है। विकास कई अवस्थाओं से होकर गुजरता है जिनकी अपनी कुछ विशेषताएं होती हैं। विकास की सभी अवस्थाओं में संबंध पाया जाता है फिर भी उनके लक्षणों के आधार पर उनको अलग-अलग किया जा सकता है। बालक का विकास प्रतिमान सामान्य होता है और विकास की प्रत्येक अवस्था आगे आने वाली अवस्था के लिए आधार प्रस्तुत करती है। विकास की इस प्रक्रिया में प्रत्येक अवस्था के अनुभवों का विशेष महत्व होता है, जिनकी अवहेलना नहीं की जा सकती ।

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वृद्धि एवं विकास के सिद्धान्तों का शैक्षिक महत्व | Educational Importance of the Principles of Growth and Development in Hindi
वृद्धि एवं विकास के सिद्धान्तों का शैक्षिक महत्व | Educational Importance of the Principles of Growth and Development in Hindi
वृद्धि एवं विकास के सिद्धान्तों का शैक्षिक महत्व | Educational Importance of the Principles of Growth and Development in Hindi
वृद्धि एवं विकास के सिद्धान्तों का शैक्षिक महत्व | Educational Importance of the Principles of Growth and Development in Hindi

वृद्धि एवं विकास के सिद्धान्तों का शैक्षिक महत्व (Educational Importance of the Principles of Growth and Development)

वृद्धि तथा विकास के सिद्धान्तों का शैक्षणिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण स्थान होता है जो निम्नलिखित तथ्यों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

1) वृद्धि एवं विकास के सिद्धान्त से हमें यह ज्ञात होता है कि वृद्धि तथा विकास की गति तथा मात्रा सभी बालकों में एक समान रूप से नहीं पायी जाती है। अतः सभी बालकों से एक जैसी वृद्धि तथा विकास की आशा नहीं करनी चाहिए, व्यक्तिगत अन्तरों को ध्यान में रखना अत्यन्त आवश्यक है।

2) बालकों में वृद्धि तथा विकास की भविष्य में होने वाली प्रगति का अनुमान लगा लेने से हमें यह लाभ होता है कि भविष्य में जो बालक जैसा कर सकता है या जैसा बन सकता है, उसी को ध्यान में रखकर हम अपने प्रयास करते हैं। परिणामस्वरूप हम अपने आपको अनावश्यक परिश्रम और निराशाओं से मुक्त रख सकते हैं।

3) वृद्धि तथा विकास के विभिन्न पहलू जैसे, मानसिक विकास, शारीरिक विकास. संवेगात्मक विकास, सामाजिक विकास आदि एक-दूसरे से परस्पर सम्बन्धित होते हैं। इससे हमें बालक के सर्वांगीण विकास पर ध्यान देने की प्रेरणा मिलती है। वृद्धि तथा विकास का प्रत्येक पहलू एक दूसरे से सम्बन्धित है। अतः यदि किसी एक पहलू पर ध्यान न दिया जाए तो विकास का प्रत्येक पहलू प्रभावित होगा ।

4) भविष्य में होने वाली वृद्धि तथा विकास को ध्यान में रखते हुए क्या-क्या विशेष परिवर्तन होंगे इस बात की जानकारी इन सिद्धान्तों के आधार पर हो सकती है। इससे न केवल माता-पिता तथा अध्यापकों को विशेष रूप से तैयार होने के लिए आधार मिलता है, अपितु वे होने वाले परिवर्तनों तथा समस्याओं के लिए अपने-आप को तैयार करने में समर्थ हो जाते हैं।

5) बालक की वृद्धि और विकास के लिए वंशानुक्रम तथा वातावरण समान रूप से उत्तरदायी हैं। इनमें से किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। हमें बालकों को अधिक से अधिक कल्पना के लिए प्रेरित करना चाहिए। इस प्रकार से वृद्धि तथा विकास सम्बन्धी सिद्धान्त बालक की वृद्धि तथा विकास को उचित दिशा में बनाए रखने के लिए हमें आधार प्रदान करते हैं।

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