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  2. September
जीवन
“जीवन में परिश्रम का महत्त्व” अथवा “श्रम की आवश्यकता”
जीवन
“जीवन में परिश्रम का महत्त्व” अथवा “श्रम की आवश्यकता”

“जीवन में परिश्रम का महत्त्व” अथवा “श्रम की आवश्यकता” पर निबंध निम्नलिखित है |

रूपरेखा

  • प्रस्तावना
  • परिश्रम की आवश्यकता
  • परिश्रम से लाभ
  • आदर्श पुरुषों के उदाहरण
  • उपसंहार

प्रस्तावना

“भूरे बालों की सी कतरन छिपा नहीं जिसका छोटापन ।

वह समस्त पृथ्वी पर निर्भय, विचरण करती, श्रम में तन्मय ।।

वह जीवन की चिनगी अक्षय दिन भर में यह मीलों चलती।

अथक कार्य से कभी न डरती ॥”

– पन्त

पन्त जी ने चींटी का उदाहरण देकर मानव को लज्जावनत होने के लिये बाध्य कर दिया। चींटी का लघुतम जीवन परिश्रम से भरा हुआ जीवन है।

वह बड़े-से-बड़े पर्वतों को सरलता से लाँघ जाती है। शायद ही किसी ने चींटी को सोते हुए या आराम से बैठे हुए देखा हो।

वह अनवरत श्रम करती है, इसलिए उसे अपना छोटापन अखरता नहीं ।। वह जीवन की समस्याओं को अपने श्रम से बड़ी सरलता से सुलझा लेती है।

तब क्या मनुष्य संसार की कठिन से कठिन समस्याओं को विभीषिकाओं को अपने श्रम से सरल नहीं बना सकता।

यदि वह चाहे ! तो पर्वतों को काटकर सड़क निकाल सकता है, उन्मादिनी नदियों को बाँध कर पुल बना सकता है, कंटकाकीर्ण मार्गों को सुगम बना सकता है।

ऐसा कौन-सा कार्य है जो परिश्रम साध्य न हो। नेपोलियन की डायरी में असम्भव जैसा कोई शब्द नहीं था। कर्मवीर, दृढ़-प्रतिज्ञ, महापुरुषों के लिये संसार का कोई भी प्राप्तव्य कठिन नहीं होता।

परिश्रमी व्यक्ति अपने लक्ष्य की ओर निरन्तर अग्रसर होता रहता है, प्राकृतिक कारण भी विघ्न बनकर उसका मार्ग अवरुद्ध नहीं कर सकते।

सफलता उसी मनुष्य का वरण करती है, जिसने उसकी प्राप्ति के लिये श्रम किया हो। प्रथम श्रेणी उन्हीं विद्यार्थियों को अपने गले लगाती है, जो उसकी प्राप्ति के लिये पूरे वर्ष परिश्रम करते हैं।

साधारण से साधारण व्यक्ति भी अपने परिश्रम से एक महान् उद्योगपति बन जाता है।

सामने रखे हुए थाल में से रोटी का ग्रास भी बिना श्रम के मुँह में नहीं जाता और जाने के बाद भी बिना मुख-चर्वण का व्यायाम किये पेट में नहीं जा सकता।

भर्तृहरि जी ने लिखा है कि-

“उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी दैवेन देयमिति कापुरुषाः वदन्ति ।

दैवं निहत्य कुरुपौरुषमात्मशक्त्या, यले कृते यदि न सिद्धयति कोऽत्र दोषः ॥ “

उद्योगी पुरुष को ही लक्ष्मी प्राप्त होती है, “ईश्वर देगा” ऐसा कायर आदमी कहा करते हैं। देव को छोड़कर मनुष्य को यथाशक्ति पुरुषार्थ करना चाहिये।

यदि प्रयत्न करने पर भी कार्य सिद्ध न हो तो यह विचार करना चाहिये कि इसमें हमारी क्या कमी रह गई ?

परिश्रम की आवश्यकता

जीवन की सफलता के लिये परिश्रम की नितान्त आवश्यकता है।

आलसी, अनुद्योगी और अकर्मण्य व्यक्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं होता। शूकर कूकर के समान जैसे वह आता है वैसे ही चला जाता है।

मनुष्य वही है, उसी मनुष्य का जीवन सार्थक है, जिसने अपना, अपनी जाति का, अपने देश का अपने परिश्रम से उत्थान और अभ्युदय किया हो-

“सः जातः येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् ॥ “

गति का ही दूसरा नाम जीवन है। जिस मनुष्य के जीवन में गति नहीं है, वह आगे नहीं बढ़ सकता, जहाँ पैदा हुआ है किसी दिन उसी स्थान पर सूख कर पृथ्वी पर गिर पड़ेगा।

वह उस तालाब के समान है, जिसमें पानी न कहीं से आता है और न निकलता ही है। वर्षा हुई तो थोड़ा भर गया और उसमें सड़ता रहा।

पथिक भी उसकी दुर्गन्ध से दूर भागते हैं, कोई पास आना भी पसन्द नहीं करता। मानव-जीवन संघर्षों के लिये है, संघर्षों के पश्चात् उसे सफलता मिलती है।

संघर्षों में घोर श्रम करना पड़ता है। जो व्यक्ति संघर्षों से श्रम से डर गया, वह मानव नहीं पशु है, पशु भी नहीं वह जड़ वृक्ष है, जहाँ पैदा हुआ है वहीं उसे मुरझा जाना है।

गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म करने का उपदेश देते हुए कहा-

“माम् अनुस्मर युद्धय च”

अर्थात् मेरा स्मरण करो और संसार में संघर्ष करो, युद्ध करो, सफलता अवश्य मिलेगी।

गजराज, मृगेन्द्र यदि अपनी माँद में पड़ा पड़ा सोता रहे, तो सम्भवतः कोई भी वन्य पशु उसके भोजन के लिये वहाँ उपस्थित न हो।

उसे अपने जीवन के लिये दहाड़ना पड़ता है, उछल-कूद करनी पड़ती है, तब कहीं बन के राजा का पेट भर पाता है।

यदि वह अकर्मण्य होकर अपने ही स्थान में पड़ा रहे तो शायद वह भूखा मर जाये। कहा भी है-

“उद्यमेन ही सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथः ।

नहि सुप्तस्य सिहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ।।”

उद्योग और कठिन परिश्रम से ही मनुष्य की कार्य सिद्धि होती है, केवल इच्छा मात्र से नहीं, जैसे कि सोते हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं नहीं घुसते।

जो मनुष्य अपने जीवन में जितना परिश्रमी रहा, जितना अधिक से अधिक संघर्ष और कठिनाइयाँ उसने उठा ली, अन्त में उसने उतनी ही अधिक उन्नति की

“जितने कष्ट संकटों में हैं जिनका जीवन सुमन खिला।

गौरव-गन्ध उन्हें उतना ही यत्र तत्र सर्वत्र मिला ॥”

केवल ईश्वर की इच्छा और भाग्य के सहारे पर चलना कायरता है और अकर्मण्यता है। मनुष्य अपने भाग्य का विधाता स्वयम् है।

वह दूध में जितना गुड डालेगा दूध उतना ही मीठा होगा। जिसने जीवन के अभ्युत्थान के लिये जितना श्रम किया होगा, उसको उतनी ही सफलता मिली होगी।

वैसे भी ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयम् करने में समर्थ होते हैं, कायरों से निरीह और निकम्मों से ईश्वर भी घबड़ाता है। एक अंग्रेजी कहावत है

“God helps those who help themselves.”

उन्नति

परिश्रम करने से मनुष्य का सबसे बड़ा लाभ है, उसे आत्मिक शान्ति प्राप्त होती है, उसका हृदय पवित्र होता है, उसके संकल्पों में दिव्यता आती है, उसे सच्चे ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है, उसे व्यक्तिगत जीवन में उन्नति प्राप्त होती है।

जीवन की उन्नति के लिये मनुष्य क्या काम नहीं करता, यहाँ तक कि बुरे से बुरे काम करने के लिये भी उद्यत हो जाता है।

परन्तु यदि वह सफलता रूपी ताले की कुंजी परिश्रम को अपने हाथ में ले तो फिर सफलता उस मनस्वी के चरणों को चूमने लगती है।

वह उत्तरोत्तर उन्नति और समृद्धि के शिखर पर चढ़ता चला जाता है।

भारतवर्ष की दासता और पतन का मुख्य कारण भी यही था कि यहाँ के निवासी अकर्मण्य हो गये थे, परिश्रम करना उन्होंने भुला दिया था।

यदि आज भी अकर्मण्य और आलसी बने रहे, तो प्राप्त की हुई स्वतन्त्रता फिर खो देंगे। आज देश को कठोर परिश्रमी नवयुवकों की आवश्यकता है, जिससे देश की विदेशी आक्रमण से रक्षा हो सके।

आज कठिन साधनों की जरूरत है-

“नहीं कौन-सी साधना है, यहाँ, वहीं सिद्धि है साधना है जहाँ ॥”

सुख और शांती

जीवन का वास्तविक सुख और शान्ति मनुष्य को अपने श्रम से प्राप्त होती है। परिश्रम का फल जब उसके समक्ष होता है, तो उसका हृदय हर्षातिरेक से उछलने लगता है, वह आत्मगौरव का अनुभव करता है।

परिश्रमी को कभी किसी वस्तु का अभाव नहीं होता, वह किसी के सामने हाथ फैलाकर गिड़गिड़ाता नहीं, उसे अपने श्रम पर विश्वास रहता है, वह जानता है कि मैं जो चाहूँगा, प्राप्त कर सकता हूँ, वह सदैव आत्मनिर्भर रहता है, दूसरों का मुँह देखने वाला कभी नहीं बनता।

आत्म-शुद्धि

परिश्रम करने से मनुष्य का अन्त करण जान्हवी के जल की भाँति पवित्र हो जाता है। संसार की समस्त दुर्वासनायें, कलुषित भावनायें, उन्हीं को सताती हैं जिनके पास इन पर सोचने के लिये न समय है और न उनकी पूर्ति के लिये साधन हैं।

परिश्रमी के पास इन सब बातों को सोचने के लिये समय कहाँ। वह तो परिश्रम रूपी यज्ञ में दुर्वासनाओं की आहुति दे चुका है।

खाली मस्तिष्क ही शैतान का घर होता है, जैसा कि अंग्रेजी कहावत से सिद्ध है-

“An empty mind is a devil’s work-shop.”

जहाँ व्यस्तता है, कार्य का आधिक्य है, वहाँ इन सब बातों के लिये जगह कहाँ ?

जिस प्रकार परमेश्वर की उपासना करने से मनुष्य की अन्तरात्मा पवित्र हो जाती है, उसी ‘प्रकार परिश्रम से भी मनुष्य का अन्तःकरण पवित्र रहता है, कारण कि उसका मन संसार से खिंचकर एक निश्चित लक्ष्य की ओर लग जाता है और वह संसार को बिल्कुल भूल जाता है।

धन और यश

परिश्रम से मनुष्य को यश और धन दोनों ही प्राप्त होते हैं। परिश्रम से मनुष्य धनोपार्जन भी करता है।

ऐसे लोग देखे गये हैं, जिन्होंने अपना व्यापार दस रुपये से प्रारम्भ किया और अपने अथक परिश्रम और शौर्य के बल पर कुछ ही वर्षों में लक्षाधीश बन गये।

जहाँ तक यश का सम्बन्ध है, वह परिश्रमी मनुष्य को जीवित रहते हुए भी मिलता है और मृत्यु के उपरान्त भी।

जीवित रहते हुए समाज के व्यक्ति उसका मान करते हैं, उसकी कीर्ति उसकी जाति और नगर में गाई जाती है।

मृत्यु के पश्चात् वह एक आदर्श छोड़ जाता है, जिस पर चलकर भावी सन्तति अपना पथ-प्रशस्त करती है।

लोग उसकी यशोगाथा से अपना और अपने बच्चों का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

महामना मालवीय नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, महाकवि कालीदास, छत्रपति शिवाजी आदि महापुरुषों का गुणगान करके हम भी अपना मार्ग निश्चित करते हैं।

इतिहास साक्षी है कि इन लोगों ने अपने जीवन में कितना श्रम किया और कितने संघर्ष किये, जिसके फलस्वरूप वे उन्नति के शिखर पर पहुँचे।

आज भी उनका यश है और सदैव रहेगा।

सवास्थ्य

“एक तन्दुरुस्ती हजार नियामत”(Health is wealth)

वाली कहावत आज भी घर-घर में कही जाती है। एक बार गया हुआ स्वास्थ्य फिर लौटकर नहीं आता, परन्तु यह स्वास्थ्य आता कहाँ से है, यह विचारणीय है।

स्वास्थ्य आता है परिश्रम से। जो लोग दिन-रात मेहनत करते हैं, वे स्वस्थ देखे जाते हैं, वे कभी बीमार नहीं पड़ते, उन्हें कभी कोई रोग नहीं सताता।

इसके विपरीत, जो लोग माल खाते हैं और गद्दे एवं तंकियों के सहारे पड़े रहते हैं, उनकी शक्ल पोली देखी जाती है और आये दिन डॉक्टरों और वैद्यों के घर का खर्च चलाया करते हैं।

जो लोग अपना काम स्वयं नहीं कर सकते, अपने हाथ-पैरों से कोई मेहनत नहीं करते, उनके शरीर की कर्मेन्द्रियाँ शक्तिहीन हो जाती हैं।

ऐसे व्यक्तियों का जीवित रहना या मर जाना दोनों एक समान हैं। परिश्रम करने से मनुष्य में नई शक्ति, नई स्फूर्ति और नवीन चेतना का उदय होता है।

वह सदैव प्रसन्नवदन एवम् चिन्तामुक्त रहता है। अकर्मण्य और आलसी व्यक्ति चिड़चिड़े और क्रोधी स्वभाव के होते हैं।

श्रम स्वयं तपस्या है। (Work is worship.)

आदर्श पुरुषों के उदाहरण

महापुरुषों ने जीवन में परिश्रम महत्त्व को समझा। वे जानते थे कि परिश्रम से मनुष्य की न केवल भौतिक उन्नति होती है, अपितु आध्यात्मिक उन्नति भी होती है।

श्रीकृष्ण को क्या आवश्यकता थी मूक पशुओं को लाठी लेकर हाँकने की तथा उन्हें वन-वन लेकर घूमने की।

कबीर कपड़ा बुनते थे रैदास जूते गाँठते थे, खलीफा उमर अपने रंगमहलों में बैठे-बैठे चटाई ही बुना करते थे, उमर खैयाम बड़ी खुशी-खुशी तम्बू सीते फिरा करते थे, टॉलस्टाय जूते गाँठते थे, जोन ऑफ आर्क को भेडें चराने में ही आनन्द आता था।

रैमजे मैकडॉनल्ड केवल एक निर्धन श्रमिक था, परन्तु अपने अथक परिश्रम के बल पर ही एक दिन इंग्लैण्ड का प्रधानमन्त्री बना।

छत्रपति शिवाजी ने थोड़े से सैनिकों की सहायता से ही समस्त हिन्दू जाति और हिन्दू धर्म की यवन आततायियों के हाथ से रक्षा की, महामना मालवीय जी एक साधारण परिवार के बालक थे, परन्तु अपने अदम्य साहस और अथक परिश्रम के बल पर ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसी अभूतपूर्व संस्था का निर्माण कर सके। ठीक ही कहा है-

‘श्रमेण बिना न किमपि साध्यं ।”

“श्रम ही सो सब मिलत है, बिनु श्रम मिलै न काहि ॥ “

उपसंहार

यदि हम चाहते हैं कि अपने देश की अपनी जाति की और अपनी उन्नति करें तो यह आवश्यक है कि हमें परिश्रमी बनना होगा।

आज भारतवर्ष में परिश्रम प्रायः समाप्त होता जा रहा है। सभी लोक पकी पकाई खाने को तैयार हैं, पकाना कोई नहीं चाहता।

यदि हम इसी स्थिति में रहे, तो जो कुछ हमारे पास अब शेष रह गया है, वह भी एक दिन खो बैठेंगे। अंग्रेजों ने हमें दास तो बनाया ही, साथ-साथ फैशनपरस्त और अकर्मण्य भी बना दिया।

अंग्रेजी साम्राज्य ने भारतवर्ष में शासन ही नहीं किया बल्कि हमारे हाथ और पैर भी काट दिये, हमें पंगु बना दिया।

हमारे हाथ-पैरों का स्थान मशीनों ने ले लिया। हमारी कलाकारी छिन गई। परिणामस्वरूप देश में बेरोजगारी फैली और धीरे-धीरे हम अपना काम करना भी भूल गये।

हमारा कल्याण तभी हो सकता है, जब हम अपना काम, अपना व्यवसाय, अपना उद्योग, अपनी कृषि आदि सभी कार्य आलस्य को छोड़कर स्वयं अपने हाथों से करेंगे।

परिश्रम जीवन है, आलस्य मरण है।

“आलस्वं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः”

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“सदाचार का महत्त्व” अथवा “सच्चरित्रता” अथवा “चरित्र की महत्ता” पर निबंध निम्नलिखित है |

रूपरेखा

  • प्रस्तावना
  • सच्चरित्र बनने का उपाय
  • सच्चरित्रता से लाभ
  • आदर्श उदाहरण
  • उपसंहार

प्रस्तावना

“लीजिए हमको शरण में हम सदाचारी बनें।

ब्रह्मचारी, धर्म-रक्षक, वीर व्रतधारी बनें ॥”

एक समय था जब नित्य विद्यालय में प्रविष्ट होते ही विद्यार्थी अपने-अपने सरस्वती मन्दिर में उपर्युक्त ईश-वन्दना की पंक्तियों के गान के पश्चात् अपना अध्ययन आरम्भ करते थे।

हम सदाचारी होंगे, तभी हम ब्रह्मचर्य का पालन कर सकते हैं धर्म-रक्षक बन सकते हैं और वीरों का व्रत धारण करने में समर्थ हो सकते हैं।

तात्पर्य यह है कि जीवन के समस्त गुणों, ऐश्वर्य, समृद्धि और वैभव को आधारशिला सदाचार है, सच्चरित्रता है।

यदि हम सच्चरित्र हैं, तो संसार की समस्त विभूतियाँ, बल, बुद्धि, वैभव हमारे चरणों में लेटने लगती हैं और यदि हमारा जीवन दुश्चरित्रता और दुराचारों का घर है, तो हम समाज में निन्दा और तिरस्कार के पात्र बन जाते हैं।

अपने बल, बुद्धि और वैभव को हम अपने ही हाथों से खो बैठते हैं। चरित्रहीन व्यक्ति स्वयं अपने को अपने परिवार को और अपने समाज को, जिसका कि वह सदस्य है, गड्ढे में गिरा देता है।

में दुष्चरित्र मनुष्य अपने समाज के लिये अभिशाप सिद्ध होता है, जबकि सच्चरित्र वरदान है। दुष्चरित्र अपने कुकर्मों और कुकृत्यों से नारकीय जीवन की सृष्टि करता है, जबकि सच्चरित्र के लिए स्वर्ग के द्वार सदैव खुले रहते हैं।

दुष्चरित्र का जीवन अन्धकारपूर्ण होता है, जबकि सच्चरित्र ज्ञान के प्रकाश के उज्ज्वल वातावरण में विचरण करता है। वैदिक मन्त्रों में हमारे ऋषियों ने इसलिए भगवान से प्रार्थना की है कि-

“असतो मा सद्-गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मा अमृत गमय।”

अर्थात् हे ईश्वर, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अन्धकार से मुझे प्रकाश की ओर चलो। असत्य और अन्धकार इनका सम्बन्ध मनुष्य की चरित्रहीनता अर्थात् असत्य मार्ग से ही है।

सच्चरित्र अपने शुभ कर्मों से इसी भूमि पर स्वर्ग का निर्माण करता है, परन्तु चरित्रहीन, दुष्टात्मा व्यक्ति अपने कुकृत्यों से इस पवित्र धराधाम को नरक बना देता है।

मैथिलीशरण गुप्त तो सदाचार को ही स्वर्ग और दुराचार को नरक मानते हैं। देखिए

“खलों को कहीं भी नहीं स्वर्ग है,

भलों के लिये तो यही स्वर्ग है।

सुनो स्वर्ग क्या है ? सदाचार है।

मनुष्यत्व की मुक्ति का द्वार है।

नहीं स्वर्ग कोई धरावर्ग है,

जहाँ स्वर्ग का भाव है, स्वर्ग है।

सदाचार ही गौरवागार है,

मनुष्यत्व ही मुक्ति का द्वार है।”

सच्चरित्र बनने के उपाय

सच्चरित्र बनने के लिए मनुष्य को सुशिक्षा, सत्संगति और स्वानुभव की आवश्यकता होती है।

वैसे तो अशिक्षित व्यक्ति भी संगति और अनुभवों के आधार पर अच्छे चरित्र के देखे गए हैं, परन्तु बुद्धि का परिष्कार और विकास बिना शिक्षा के नहीं होता।

मनुष्य को अच्छे और बुरे की पहचान ज्ञान और शिक्षा के द्वारा ही होती है। शिक्षा से मनुष्य की बुद्धि के कपाट खुल जाते हैं।

अतः सच्चरित्र बनने के लिए अच्छी शिक्षा की बड़ी आवश्यकता है। अच्छी शिक्षा के साथ-साथ मनुष्य को सत्संगति भी प्राप्त होनी चाहिए।

देखा गया है कि शिक्षित व्यक्ति भी बड़े-बड़े कुमार्गगामी और दुराचारी होते हैं।

इसका केवल यह एक कारण है कि उन्हें अच्छी संगति प्राप्त नहीं हो सकी।

“बिनु सत्संग विवेक न होई।

राम कृपा बिन सुलभ न सोई॥”

बुरी संगति के प्रभाव ने उनकी शिक्षा-दीक्षा के प्रभाव को भी समाप्त कर दिया क्योंकि कहा गया है कि-

“संसर्गजा: दोषगुणा भवन्ति ।।”

अर्थात् दोष और गुण संसर्ग से ही उत्पन्न होते हैं। मनुष्य जैसे व्यक्तियों में बैठेगा-उठेगा, उनको विचारधारी, व्यसनों, वासनाओं और अच्छे-बुरे कर्मों का प्रभाव उस पर अवश्य पड़ेगा।

अतः सच्चरित्र बनने के लिए शिक्षा से भी अधिक आवश्यकता अच्छी संगति की है। सत्संगति नीच से नीच मनुष्य को उत्तम बना देती है।

गोस्वामी जी लिखते हैं-

“सठ सुधरहिं सत्संगति पाई।

पारस परस कुधातु सुहाई। “

पारस पत्थर का स्पर्श करते ही लोहा भी सोना बन जाता है। इसी प्रकार दुष्ट मनुष्य भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं।

“कीटोऽपि सुमनः संगत् आरोहति सत्तां शिरा”

अर्थात् साधारण कोड़ा भी फूलों की संगति से बड़े-बड़े देवताओं और महापुरुषों के मस्तक पर चढ़ जाता है।

सत्संगति मानव का क्या-क्या हित-साधन नहीं करती

“सत्संगति कथब कि न करोति पुंसाम् । “

किन्तु सत्संगति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है।

सुत दारा और लक्ष्मी सब काहू के होय।

संत समागम, हरि कथा तुलसी दुर्लभ दोय ॥

स्वानुभव भी मनुष्य को सच्चरित्र बनने में बड़े सहायक सिद्ध होते हैं। जब बच्चे की उंगली एक बार आग से जल जाती है, तब वह दुबारा आग पर उंगली नहीं रखता।

चोर जब चोरी करते हुए पकड़ लिया जाता है तो पुलिस को रोमांचकारी एवं भयानक मार पड़ती है, तब कच्चे चोर चोरी करना भी छोड़ देते हैं।

झूठ बोलने या कोई दुष्कर्म करने पर जब विद्यार्थी पर अध्यापक या माता-पिता के हाथ पड़ जाते हैं, तब वह भविष्य में सहसा वैसा नहीं करता।

उसे अनुभव हुआ कि ऐसा करने से मुझे यह फल मिला, क्योंकि वह बुरी बात है, इसलिये मैं इसे भविष्य में नहीं करूंगा।

इस प्रकार, व्यक्तिगत अनुभव भी मनुष्य को सच्चरित्रता की ओर ले जाते हैं। चौथी बात जो मानव को सच्चरित्र बनाती है, वह है अपनी आत्मा की पुकार।

जीवन में सदाचारिता लाने के लिए हमें अपने पूर्वजों के आदर्श चरित्रों को पढ़ना चाहिए, उन पर विचार करना चाहिए और उनके पद चिन्हों पर चलने का प्रयत्न करना चाहिए।

सच्चरित्र बनने के लिए जितेन्द्रियता भी अत्यन्त आवश्यक है।

यदि हमारी इन्द्रियाँ हमारे वश में नहीं है, तो कोई भी अनुचित और अशोभनीय कर्म हम कर ही नहीं सकते। यह बात पूर्णतया सही है।

सच्चरित्रता से लाभ

सच्चरित्रता से मनुष्य को अनेक लाभ होते हैं, क्योंकि सच्चरित्रता किसी विशेष गुण का बोधक नहीं है।

अनेक गुण जैसे सत्य वादन, उदारता, विशिष्टता, विनम्रता, सुशीलता, सहानुभूतिपरता, आदि जिस व्यक्ति में होते हैं, वह व्यक्ति सच्चरित्र कहलाता है।

उस व्यक्ति की समाज प्रतिष्ठा करता है, उसे आदर और सम्मान का स्थान दिया जाता है, इस लोक में कीर्ति का पात्र बनता हुआ।

अन्त में स्वर्ग को प्राप्त करता है। सच्चरित्रता से मनुष्य अपनी आत्मा का संस्कार कर लेता है। उसके पवित्र विचार, उसकी महान् भावनायें, उसके दृढ़ संकल्प, संदैव दिव्य लोकांतर में विचरण करते हैं।

सच्चरित्रता से मनुष्य सुख और संतोष प्राप्त करता है, शांतिमय जीवन व्यतीत करता है। लोग उसके आदर्श चरित्र का अनुगमन कर अपना जीवन सफल बनाते हैं।

वह अपने आदर्श चरित्र से समाज का कालुष्य दूर करता है। सच्चरित्रता से मनुष्य में शौर्य, वीरता, धीरता और निर्भयता और अन्य गुण स्वतः ही आ जाते हैं।

उसके अदम्य साहस के सामने कोई भी शत्रु ठहर नहीं। सकता। सच्चरित्रता से मनुष्य को सुन्दर स्वास्थ्य और परिष्कृत बुद्धि प्राप्त होती है, जिसके द्वारा वह कठिन-से-कठिन कार्यों को सरलता से पूर्ण कर लेता है।

सदाचार और सच्चरित्रता के अभाव में मनुष्य दर-दर की ठोकर खाता है और पशुओं के समान जीवन व्यतीत करता है।

अंग्रेजी की एक कहावत का भाव है कि-

If wealth is lost, nothing is lost, if health is lost, something is lost, if character is lost everything is lost. “

“अगर मनुष्य का धन नष्ट हो गया तो उसका कुछ भी नष्ट नहीं हुआ यदि स्वास्थ्य नष्ट हुआ तो कुछ हानि हुई और यदि उसका चरित्र नष्ट हो गया, तो उसका सब कुछ नष्ट हो गया।”

शुद्धाचरण से मनुष्य को धन भी प्राप्त होता है, अच्छी संतान भी प्राप्त होती है और वह दीर्घजीवी होता है। एक श्लोक में कहा गया है-

“आचाराल्लभते आय: आचारादीप्सिताः प्रजाः ।

आचाराल्लभते ख्याति आचाराल्लभते धनम् ॥ “

आदर्श उदाहरण

आदर्श महापुरुष राम की सच्चरित्रता आज किससे छिपी है। भारत के लाखों नर-नारी आज भी उनके पावन चरित्र से अपने जीवन की उज्ज्वल बनाते हैं।

भरत के चरित्र की महानता आज भी भारत के त्याग, बलिदान एवं भ्रातृप्रेम का प्रतीक बनी हुई हैं।

शिवाजी और महाराणा प्रताप की चारित्रिक विशेषताओं पर आज भी हिन्दू जाति गर्व का अनुभव करती है।

लोकमान्य तिलक और मदनमोहन मालवीय आज भी भारतीय जनता के कण्ठहार बने हुये हैं।

महात्मा गाँधी भी अपने चरित्र के कारण ही एक साधारण व्यक्तित्व से उठकर आज युग के महापुरुष माने जाते हैं।

सुभाषचन्द्र बोस की रोमांचकारी कहानी को कौन नहीं जानता, जिन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए भारत माता की दासता की श्रृंखलाओं को छिन्न-भिन्न करने का बीड़ा उठाया, विदेशों में रहकर भारत माता की सेवा के लिए आजाद हिन्द फौज का निर्माण किया और घोषणा की कि

 “भारतीयो ! तुम मुझे अपना खून दो, मैं तुम्हें तुम्हारी खोई हुई स्वतन्त्रता दूंगा।”

भारतवर्ष का इतिहास ऐसे ही अनेक चरित्रवान् महापुरुषों से भरा पड़ा है, जिन्होंने अपने चरित्र से अपना तथा अपने देश का उत्थान किया।

राजस्थान की क्षत्राणियाँ अपने पवित्र चरित्र की रक्षा के लिये ही ‘जौहर’ व्रत का पालन किया करती थीं।

चित्तौड़ का कण-कण आज उनके कीर्तिमान से मुखरित हो रहा है।

चरित्रवान् बनना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। चरित्र से मनुष्य समाज में प्रतिष्ठा पाता है। अपनी आत्मा का कल्याण करता हुआ देश और समाज का भी कल्याण करता है।

सच्चरित्रता सुख और समृद्धि का सोपान है। सच्चरित्रता के अभाव में आज देश के समक्ष अनेक भयानक समस्यायें हैं।

सबसे बड़ी एवं महत्त्वपूर्ण समस्या है, अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा करना। जो देशवासी चरित्र भ्रष्ट हैं, वे निःसन्देह, देश की रक्षा या देश का अभ्युत्थान नहीं कर सकते।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है-

“चरित्र-बल हमारी प्रधान समस्या है। हमारे महान् नेता महात्मा गांधी ने कूटनीति चातुर्य को बड़ा नहीं समझा, बुद्धि विकास को बड़ा नहीं माना, चरित्र बल को ही महत्व दिया है। आज हमें सबसे अधिक इसी बात को सोचना है। यह चरित्र-बल भी केवल एक ही व्यक्ति का नहीं, समूचे देश का होना चाहिये।”

उपसंहार

अतः हमारा कर्तव्य है कि हम सभी देशवासी सच्चरित्र बने, विशेष रूप से विद्यार्थियों को तो सच्चरित्र होना ही चाहिए, क्योंकि देश के भावी कर्णधार वे ही हैं, उन्हें ही देश का भार अपने कन्धों पर रखना है, अतः प्राणपण से अपने चरित्र को सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि-

“वृत्तं यत्नेन संरक्षेत वित्तमायाति याति च ।

अक्षीणो विततः क्षीणः वृत्ततस्तु हतो हतः ॥ “

अर्थात् चरित्र की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिए। धन तो आता है और चला जाता है, धन से क्षीण हुआ मनुष्य क्षीण नहीं कहा जाता, परन्तु जिस मनुष्य का चरित्र नष्ट हो जाता है, वह तो नष्ट है ही।

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