प्रबन्ध सिद्धान्त की विशेषताएँ | Features of management theory in Hindi
प्रबन्ध सिद्धान्त की विशेषताएँ
प्रबन्ध के सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं-
(1) केवल सामान्यीकृत कथन (Only generalized statements) – प्रबन्धकीय सिद्धान्त अन्य सामाजिक विज्ञानों के सिद्धान्तों की भाँति केवल जीवन की वास्तविक घटनाओं के विश्लेषण और मानवीय-व्यवहार के बार-बार अवलोकन पर आधारित, कुछ व्यापक या सामान्यीकृत कथन होते हैं। चूँकि मानवीय व्यवहार सदैव परिवर्तनशील होता है और किसी पूर्वानुमान के परेय होता है, और उसका अध्ययन नियंत्रित दशाओं में जीवन की विषमताओं को हटाकर नहीं किया जा सकता, अतः उसके अवलोकन के आधार पर स्थापित सिद्धान्त केवल व्यापक रूप से ही सही हो सकते हैं। वे भौतिक सिद्धान्तों की भाँति दृढ़, सुनिश्चित एवं अपरिवर्तनीय नहीं होते, बल्कि लोचपूर्ण और सापेक्ष होते हैं।
हेनरी फेयोल ने प्रारम्भ में ही प्रबन्ध सिद्धान्तों को स्थिरता और सुनिश्चतता से अलग रखने का सुझाव दिया था और कहा था कि प्रबन्धकीय सिद्धान्तों का दृढ़ता से पालन नहीं किया जा सकता क्योंकि प्रबन्ध के क्षेत्र में कोई चीज दृढ़ या पूर्ण नहीं होती, यह प्रश्न तो केवल अनुपात का है। एक सी परिस्थितियों में उन्हीं सिद्धान्तों का उपयोग कदाचित ही दोबारा होता है। अतः बदलती हुई विभिन्न परिस्थितियों का ध्यान उनके उपयोग के समय किया जाना चाहिए, क्योकि मनुष्य भी अन्य परिवर्तनशील घटकों की भाँति भिन्न-भिन्न होते हैं एवं बदलते रहते हैं। अतः प्रबन्धकों को इन सिद्धान्तों का चतुराई से लाभ उठाना चाहिए। उनका अन्धा अनुकरण नहीं करना चाहिए।
(2) परिवर्तनशील (Dynamic)- प्रबन्धकीय सिद्धान्त स्वभाव से स्थाई नहीं होते बल्कि अस्थिर एवं परिवर्तनशील होते हैं। वे वातावरण में परिवर्तन के साथ बदल जाते हैं। यही कारण है कि वैज्ञानिक प्रबन्ध एवं अफसरशाही के अधिकतर सिद्धान्तों को आज प्रतिस्थापित कर दिया गया है। प्रबन्धशास्त्र एक विकासशील सामाजिक विज्ञान है और नई शोध और अध्ययन के बाद नए-नए सिद्धान्तों की स्थापना हो रही है और पुराने बदले जा रहे हैं।
(3) परिस्थित्यात्मक (Situational) – प्रबन्ध सिद्धान्त निरपेक्ष होकर परिस्थितियों के सापेक्ष होते हैं। अतः हर परिस्थिति में उनको अन्धे होकर उपयोग में नहीं लाया जा सकता। टैरी के शब्दों में, “प्रबन्धकीय सिद्धान्त चुने हुए प्रबन्ध समझदारी के कैप्सूल हैं जिनका उपयोग सावधानी तथा विवेक से किया जाना चाहिए।”
(4) सार्वभौम (Universal) – प्रबन्धकीय सिद्धान्तों को सभी मानवीय संगठनों में प्रयोग में लाया जा सकता है, चाहे संगठन व्यावसायिक हों या गैर व्यावसायिक, सरकारी हों या गैर सरकारी अथवा सामाजिक हों या सांस्कृतिक। उन्हें विभिन्न सामाजिक, राजनैतिक या आर्थिक वातावरण में तथा प्रबन्ध के हर स्तर पर अपनाया जा सकता है। प्रबन्ध सिद्धान्तों का ज्ञान एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में हस्तांतरणीय भी होता है।
प्रबन्ध सिद्धान्तों की उपयोगिता – यद्यपि प्रबन्धकीय सिद्धान्त सामान्यरूप से ही सत्य होते हैं, तथापि वे अव्यवस्था में व्यवस्था की स्थापना करते हैं। वे प्रबन्धकों को वर्तमान स्थिति के समझने एवं भविष्य के पूर्वानुमान करने में बड़े सहायक सिद्ध होते हैं। इनके द्वारा प्रबन्धकों के ज्ञान में वृद्धि, समझदारी में स्पष्टता एवं विश्लेषणात्मक क्षमता में बढ़ोत्तरी होती है। इनसे प्रबन्ध के क्षेत्र में शोध, नए सिद्धान्तों के सृजन एवं अन्य व्यक्तियों को प्रबन्ध का प्रशिक्षण देने में सहायता मिलती है। प्रबन्धकीय सिद्धान्तों से संगठन में मानवीय व्यवहारों के अध्ययन एवं विश्लेषण में बड़ी सहायता मिलती है। और अन्त में, वे संगठन की विषम समस्याओं के सुलझाने में प्रबन्धकों के लिए बड़े उपयोगी सिद्ध होते हैं। यदि चतुराई और विवेक से उनका उपयोग किया जाए, तो प्रबन्धक निश्चय ही एक आदर्श संगठन की स्थापना कर सकते हैं।
यद्यपि कभी-कभी इन सिद्धान्तों की आलोचना उनके अवैज्ञानिक और केवल सैद्धान्तिक होने के आधार पर की जाती है, लेकिन जैसा कि अर्नेस्ट डेल ने लिखा है, “शायद ही कोई व्यक्ति इन मार्गदर्शकों की आवश्यकता पर प्रश्न करेगा, जो अनेकों सुयोग्य व्यक्तियों के प्रयासों के परिणामस्वरूप बने हैं, और इसके स्थान पर संगठन को उन सहज बुद्धि एवं क्षणिक शक्तियों, और उन व्यक्तियों, जिनका सम्बन्ध केवल किसी विशेष परिस्थिति से हैं और जिनका प्रत्यक्ष व्यक्तिगत ज्ञान निश्चितरूप से सीमित है, के अनुभव पर छोड़ देगा।”
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