पर्यावरण संरक्षण में विद्यालय की भूमिका
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पर्यावरण संरक्षण में विद्यालय की भूमिका का वर्णन कीजिए।

विद्यालय और पर्यावरण-संरक्षण

विद्यालय औपचारिक शिक्षा का एक प्रमुख केन्द्र है। यहाँ विद्यार्थी केवल ज्ञान ही नहीं प्राप्त करता है बल्कि विद्यालय में विद्यार्थी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास की चिन्ता की जाती है। ज्ञानात्मक पक्ष के साथ-साथ विद्यार्थी का भावात्मक और क्रियात्मक पक्ष भी विद्यालय में विकसित होता रहता है। बालक की रुचि, जिज्ञासा, कल्पना, अभिवृत्ति और अभिक्षमता का विकास भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में हो—इसके लिए विद्यालय के पाठ्यक्रम, वातावरण और पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का आयोजन बालक की आयु, बुद्धि और क्षमता के आधार पर किया जाता है। बालक की भी एक स्वाभाविक प्रवृत्ति पाठ्यपुस्तकों के भीतर सन्निहित ज्ञान के साथ-साथ कुछ और प्राप्त करने या सीखने की होती है। वह जिस विश्व में रहता है उसे जानने, समझने और देखने की उत्कण्ठा उसमें सदैव बनी रहती है। वह अपने पर्यावरण से सुपरिचित होना चाहता है, उसके रहस्यों को अनावृत्त करना चाहता है और उसके साथ अपना तादात्म्य स्थापित करना चाहता है।  विद्यालय भी चाहता है कि बालक अपने घर और विद्यालय के परिवेश से पूर्णत: परिचित हो और उसके साथ स्वयं को सक्रिय रूप से संबद्ध करे जिससे पर्यावरण के प्रति उसका दृष्टिकोण विस्तृत हो और उसकी समझ तथा अभिवृत्ति का विकास हो।

विद्यालय के बाहर घटने वाली पर्यावरण विनाश की घटना का प्रभाव विद्यालय के विद्यार्थियों और अध्यापकों पर पड़ता है। किसी वृक्ष का कटना, किसी स्थलाकृति में परिवर्तन, जल और वायु में किसी प्रकार का प्रदूषण, प्राकृतिक रूप से रहने वाले जन्तुओं की मृत्यु, आस-पास उगने वाले वनस्पतियों का विनाश और पर्यावरण के प्रति व्यक्ति का विनाशवादी दृष्टिकोण एक विद्यार्थी की चिन्ता का विषय होता है। जब विद्यार्थी के मन में यह भाव उत्पन्न होता है कि उसका पर्यावरण आकर्षक, निर्मल, उत्प्रेरक और समृद्ध हो तब उसके मन में पर्यावरण के संरक्षण का भाव भी उत्पन्न होने लगता है। वह अपने माता-पिता, बड़ों और अध्यापकों से पर्यावरण की उपयोगिता और उसके संरक्षण के सम्बन्ध में बात करके सन्तुष्ट होना चाहता है।

पहले विद्यालयों के पाठ्यक्रम में पर्यावरण का विषय नहीं था परन्तु पिछले दो दशक से पर्यावरण-विनाश को लेकर विश्व के वैज्ञानिक, पर्यावरणविद् और हर देश की सरकारें चिन्तित हैं तथा पर्यावरण-संरक्षण के कार्यक्रमों पर गम्भीरतापूर्वक बल दिया जाने लगा है। प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में पर्यावरण को महत्त्व दिया जाने लगा है और पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता को विकसित किया जा रहा है। विभिन्न देशों की सरकारें पाठ्यक्रम में परिवर्तन कर जहाँ भी पर्यावरण के अध्ययन-अध्यापन की गुंजाइश है, उसकी व्यवस्था करने में लगी हुई हैं।

पर्यावरण संरक्षण और सहनीय विकास में विद्यालय की भूमिका

हमारा भौतिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक पर्यावरण अनेक दृष्टियों से अपने प्राकृतिक स्वरूप को खो रहा है। पर्यावरण की स्वाभाविक सम्भावनाओं, विलक्षणताओं तथा शक्तियों में विकार उत्पन्न हो गया है। धरती माता दुःखी हैं। उसके अंगभूत जल, वनस्पति, गगन और समीर प्रदूषण के शिकार हैं। बाजारवादी शक्तियों ने मुनाफे के लाभ में धरती माता के अंगों को व्यापारिक वस्तु बनाकर रख दिया है। ऐसी विषम परिस्थिति में यह आवश्यक है कि विद्यालय में पाठ्यक्रम और कार्यक्रमों के माध्यम से पर्यावरण-संरक्षण और उसके सहनीय विकास में विद्यालय की भूमिका को सुनिश्चित किया जाय।

यहाँ ‘पर्यावरण-संरक्षण’ और ‘पर्यावरण का सहनीय विकास’ को भी समझ लेना आवश्यक है। पर्यावरण-संरक्षण से तात्पर्य पर्यावरण के प्राकृतिक स्वरूप को किसी-न-किसी प्रकार बनाए रखना है और ‘पर्यावरण का सहनीय विकास’ इस बात की ओर संकेत करता है कि हमारा दृष्टिकोण और हमारी क्रियाएँ इस प्रकार की हों कि हम पर्यावरण को सँभाल सकें, उसका पोषण कर सकें, उसकी देख-रेख कर सकें और उसके विकास में योगदान कर सकें। पर्यावरण के प्रति सहनीयता जितनी ही अधिक होगी पर्यावरण-संरक्षण का भाव भी उतना ही अधिक होगा। विद्यालयों की भूमिका पर्यावरण के संरक्षण और उसके सहनीय विकास में होने से पर्यावरण का विनाश एक सीमा तक रोका जा सकता है।

पर्यावरण-संरक्षण और उसके सहनीय विकास में विद्यालय का योगदान निम्नलिखित रूप में हो सकता है—

1. विद्यालय के प्रधानाचार्य और अध्यापकों का दृष्टिकोण स्वयं पर्यावरण के प्रति सकारात्मक, जिज्ञासापूर्ण, उत्साहवर्द्धक और उदार होना चाहिए। वे प्रकृति प्रेमी हों और उन्हें प्रकृति के प्रति रागात्मक लगाव हो । जब तक विद्यालय के प्रधानाचार्य और अध्यापक जीवन में पर्यावरण का महत्त्व स्वयं नहीं समझेंगे तब तक वे अपने छात्रों को उस दिशा में प्रेरित भी नहीं कर सकेंगे।

2. कक्षा – शिक्षण के समय अवसर की तलाश कर पर्यावरण से सम्बन्धित बातों यथा— पर्वतों, जंगलों, नदियों, समुद्रों, पवन, भूमि, जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों के सम्बन्ध में जानकारी देनी चाहिए। गंगा, यमुना, नर्मदा, हिमालय और गंगासागर का महत्त्व रुचिपूर्वक बताना चाहिए। पीपल, कदंब, नीम, आम, तुलसी आदि के धार्मिक और वैज्ञानिक महत्त्व पर प्रकाश डालना चाहिए। प्रकृति के उपादान क्यों और किस प्रकार हमारे जीवन के लिए आवश्यक हैं, इसका अनुभव समय-समय पर कक्षा में विद्यार्थियों को कराते रहना चाहिए। पर्यावरण प्रदूषण से होने वाली हानियों और प्रभावों को उदाहरण के साथ बताना चाहिए।

3. विद्यार्थियों को विद्यालय के आस-पास के पर्यावरण की जानकारी संक्षिप्त भ्रमण के माध्यम से दी जानी चाहिए। विद्यालय जहाँ स्थित है, उसके चारों ओर खेत, नदी, नाले, जंगल, पहाड़, आवास, पार्क, उद्यान, बाजार आदि जो भी हों, उसकी जानकारी के लिए छात्र-छात्राओं को कभी-कभी विद्यालय से बाहर ले जाना चाहिए और इनके विषय में उन्हें बताना चाहिए। इससे विद्यार्थियों का लगाव अपने विद्यालय के समीपवर्ती परिवेश से होगा।

4. योजनापूर्वक शिक्षण- सत्र के दौरान विद्यार्थियों का एक, दो, तीन, चार या पाँच दिन का भ्रमण कार्यक्रम जनपद से बाहर प्राकृतिक स्थलों के दर्शनार्थ बनाया जाना चाहिए जहाँ वे पर्यावरण को विस्तृत रूप में देख और समझ सकें।

5. विद्यालय में जहाँ उपयुक्त स्थान है, वहाँ विद्यार्थियों के द्वारा पेड़-पौधे लगवाए जाने चाहिए। विद्यालय की क्यारियों में मौसमी फूलों को लगाना चाहिए तथा विद्यालय में सुविधानुसार सुन्दर उद्यान विकसित करना चाहिए।

6. विद्यालय के पुस्तकालय में पक्षियों, जीव-जन्तुओं, नदियों, पर्वतों आदि से सम्बन्धित और पर्यावरण सम्बन्धी साहित्य होना चाहिए जिससे अध्यापक और विद्यार्थी उसका लाभ उठा सकें।

7. विद्यालय में पर्यावरण से सम्बन्धित विषयों पर भाषण प्रतियोगिता, निबन्ध प्रतियोगिता, नाट्याभिनय, चार्ट एवं पोस्टर प्रतियोगिता का आयोजन समय-समय पर किया जाना चाहिए। प्रतियोगिता में विजयी छात्र-छात्राओं को पुरस्कृत करना चाहिए।

8. विद्यालय में आवश्यक रूप से वर्ष में एक बार पर्यावरण-प्रदर्शनी का आयोजन किया जाना चाहिए जिसमें पर्यावरण से सम्बन्धित तत्त्वों, उपादानों, पर्यावरण विनाश के परिणामों और पर्यावरण संरक्षण के उपायों का प्रदर्शन किया जाना चाहिए। पर्यावरण सम्बन्धी स्लाइड्स को प्रदर्शित किया जाना चाहिए।

9. पर्यावरण-संरक्षण की दृष्टि से विद्यार्थियों की समाज में पर्यावरण-जागरूकता यात्रा निकालनी चाहिए जिसके दौरान वे पर्यावरण सम्बन्धी नारे लगावें और दिवालों पर पर्यावरण सम्बन्धी आदर्श वाक्य लिखें।

10. विद्यालय में 21 अप्रैल को ‘पृथ्वी दिवस’ का और 5 जून को ‘पर्यावरण-दिवस’ का आयोजन किया जाना चाहिए जिसमें पर्यावरण सम्बन्धी कार्यक्रम कराए जायँ ।

11. विकास खण्ड स्तर पर या जिले स्तर पर ‘पर्यावरण-संरक्षण की कार्यशाला’ का आयोजन किया जाना चाहिए जिसमें प्रत्येक विद्यालय से पर्यावरण में रुचि रखने वाले एक-एक अध्यापक अवश्य भाग लें। इस कार्यशाला में पर्यावरण-संरक्षण सम्बन्धी समस्याओं पर कार्यक्रम लिए जाने चाहिए।

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