जैव-विविधता का अर्थ एंव इसके प्रकार
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जैव-विविधता का अर्थ

‘जैविक विविधता’ को संक्षेप में ‘जैव-विवधता’ कहा जाता है। जैव-विविधता का तात्पर्य जीवन के विविध रूपों अर्थात् विभिन्न प्रकार के पौधे, जीव-जन्तु एवं सूक्ष्म जीव समूह से है जिसमें उनके जीन तथा वे पारिस्थितिक प्रणालियाँ विद्यमान रहती हैं जिनका वे निर्माण करते हैं। इसका सम्बन्ध उन गतिशील प्रक्रियाओं से है जिनमें नवीन आनुवंशिक रूपान्तरण के होने पर प्रजातियों की बढ़ोत्तरी अथवा उनका विनाश हो जाता है। अत: जैव-विविधता एक ऐसी अवधारणा है जिसमें सजीव जगत की परस्पर सम्बद्ध प्रकृति एवं प्रक्रियाओं पर बल दिया जाता है।

आज जैव-विविधता को निम्नांकित तीन स्तरों पर देखा जाता है-

1. पारिस्थितिक तन्त्र के स्तर पर- जैसे—

  • (अ) पहाड़ी पारिस्थितिकी तन्त्र,
  • (ब) मैदानी पारिस्थितिकी तन्त्र,
  • (स) रेगिस्तानी पारिस्थितिकी तन्त्र, तथा
  • (द) तटीय पारिस्थितिकी तन्त्र आदि।

2. प्रजातियों के स्तर पर — विशेषज्ञों ने विश्व में विभिन्न स्तरों पर प्रजातियों का अंकन 15 लाख से 800 लाख तक किया है। सभी ने इन प्रजातियों की संख्या निर्धारण में अपने-अपने तर्क दिये हैं पर यह निश्चय ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यह संख्या काफी अधिक है।

3. प्रजातियों के अन्तर्निहित स्तर पर— हर प्रजाति के अन्दर असंख्य प्रकार की विविधता और विभिन्नता सम्भव है। उदाहरण के लिये फिलीपाइन्स के चावल अनुसन्धान संस्थान में 90000, चालव के दानों का संरक्षण किया गया जो अलग-अलग प्रकार का उत्पादन देते हैं।

इस तरह अब ‘जैव विविधता’ में सभी

(1) प्राणी मात्र, (2) वनस्पति व पौधे, (3) बैक्टीरिया एवं सूक्ष्मजीव, (4) समस्त प्रजातियाँ, तथा (5) सभी पारिस्थितिक तन्त्र सम्मिलित हैं जिसको जैव-विविधता से सम्बोधित किया जाता है।

हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि मिट्टी, जल एवं वायु जैसे प्राकृतिक संसाधनों के समान ही जैव-विविधता भी एक प्रमुख प्राकृतिक संसाधन है। यह जैव-विविधता हजारों, लाखों एवं करोड़ों वर्षों से निरन्तर चलने वाली विकास की जैविक क्रियाओं का परिणाम है। इस भूमण्डल पर उपलब्ध लगभग 20 लाख जैव प्रजातियों में से कोई एक भी पौधा या जन्तु ऐसा नहीं है जो प्राकृतिक रूप से उपयोगी न हो। इस पृथ्वी पर जीवों की विशाल विविधता विद्यमान है जिसमें विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे, जीव-जन्तु, कीट एवं सूक्ष्मजीव आते हैं। यहाँ पर अनेक प्रकार के आवास एवं पारिस्थितिक तन्त्र भी स्थित हैं। जीवित जातियों एवं पारिस्थितिक तन्त्रों की कुल विविधता और परिवर्तन अर्थात् भूमण्डल पर जीवन की कुल विचरणशीलता ही जैव-विविधता है। दूसरे शब्दों में, यह किसी क्षेत्र के जीन्सों, जातियों एवं पारिस्थितिक तन्त्रों की सम्पूर्णता को परिभाषित करती है। विभिन्न जातियों के अन्दर, जातियों एवं पारिस्थितिक तन्त्रों के मध्य पाए जाने वाले परिवर्तन जैव-विविधता ही हैं।

जैव-विविधता के प्रकार

जैव-विविधता के तीन प्रकार या सोपान होते हैं-

  1. आनुवंशिक विविधता
  2. जातीय विविधता
  3. समुदाय एवं पारितंत्रिक विविधता

जैव-विविधता के ये तीनों सोपान आपस में जुड़े होते हैं परन्तु भूमण्डल पर जीवन के अन्तर्सम्बन्धों के आपसी सहयोग को सरलता से समझने के लिए इनका अध्ययन अलग-अलग किया जाना आवश्यक है।

1. आनुवंशिक विविधता — इसका सम्बन्ध विभिन्न प्रजातियों के मध्य आनुवंशिक पदार्थ अर्थात् ‘जीन’ सम्बन्धी भिन्नता से है। यह भिन्नता समान प्रजातियों के विभिन्न समूहों एवं एक ही समूह के अलग अलग जीवों के बीच हो सकती है। गणनाओं के अनुसार संसार भर के जीवन समूहों में विभिन्न प्रकार के लगभग 109 जीन फैले हुए हैं। आनुवंशिक विविधता जीन समूहों एवं पारिस्थितिक तन्त्र को इतना क्षमतावान् बना देती है कि वे परिवर्तित होने पर पुनः स्वस्थ स्वरूप प्राप्त कर सकते हैं। सूक्ष्म जीवाणु से लेकर उच्च वनस्पतियों एवं जन्तुओं तक की समस्त जातियों में आनुवंशिक ज्ञान की बहुत बड़ी मात्रा का संग्रह है। जैसे— माइक्रोप्लाज्मा में जीन की संख्या लगभग 450-700, इ० कोलाई नामक जीवाणु में 4,000, फल की मक्खी में 13000, धान में 32,000 से 50,000 और मनुष्य में 35,000 से 45,000 तक होती है। आनुवंशिक विविधता एक जाति के अन्दर जीनों में अन्तर को प्रदर्शित करती है। यह भिन्नता एलीलीज में एक ही जीन के विभिन्न परिवर्ती या सम्पूर्ण जीन (लक्षण पुंज जो विशेष चरित्रों के निर्धारक हैं) अथवा गुणसूत्रों की संरचना में पाई जा सकती है। आनुवंशिक विविधता समुदाय की उसके पर्यावरण के योग्य अनुकूलता बढ़ाती है तथा प्राकृतिक चुनाव के लिए उसे संवेदी बनाती है। किसी जाति में जैव-विविधता की उपस्थिति उसे एकरूपता प्रदान करती है। इस प्रकार का उदाहरण समान आनुवंशिकी वाली फसलीय पौधों की एक धान्य खेती में देखने को मिलती है। जब हमें अधिक कृषि उत्पादन की आवश्यकता हो तब यह बहुत लाभकारी है लेकिन जब किसी एक कीट या एक कवकजन्य रोग का खेत पर आक्रमण होता है तब पूरी फसल को खतरा उत्पन्न हो जाता है और उस समय यह एक बड़ी समस्या बनकर सामने खड़ी हो जाती है। आनुवंशिकी परिवर्तन जाति उद्भवन, नवजाति का विकास या जातिगत विशिष्टतां का मुख्य कारण बनता है जो जाति एवं समुदाय स्तर की विविधता को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यदि किसी आवास में एक कम जातिवाली परिस्थिति की तुलना में अधिक जातियाँ हों तो वहाँ पर किसी एक समुदाय की कुल आनुवंशिक विविधता भी अधिक होगी। आनुवंशिक विविधता पर्यावरणीय परिवर्तनों के साथ बढ़ती जाती है।

2. जातीय विविधता – जातियों में पाई जाने वाली विविधता को जातीय विविधता कहा जाता है। जातियाँ जैव-विविधता की एक स्पष्ट इकाई होती हैं और परितन्त्र में प्रत्येक जाति एक विशेष भूमिका अदा करती है। यही कारण है कि जातियों की क्षति सम्पूर्ण पारिस्थितिक तन्त्रों के लिए महत्त्वपूर्ण होती है। जाति विविधता किसी क्षेत्र में जातियों के परिवर्तन को दर्शाती है। जातीय विविधता का अर्थ है किसी इकाई क्षेत्रफल में जातियों की सरलतम जातीय प्रचुरता। किसी स्थान के क्षेत्रफल में वृद्धि के साथ ही जातियों की संख्या में भी वृद्धि होती जाती है। वस्तुत: जातीय प्रचुरता अधिक होने पर जातीय विविधता भी अधिक होती है। किन्हीं जातियों के अन्दर की प्रत्येक अकेलों (Individuals) की संख्या में भिन्नता हो सकती है जिसके कारण उनमें समानता तथा विविधता मिल सकती है।

इस विविधता के मूल्यांकन का सूचकांक में

(1) जातियों की प्रचुरता अर्थात् एक सीमित क्षेत्र में प्रजातियों की संख्या,

(2) प्रजातियों की बहुलता अर्थात् प्रजातियों के मध्य सापेक्षिक संख्या, और

(3) जातिवृत्त सम्बन्धी विविधता अर्थात् विभिन्न प्रजाति समूहों के बीच सम्बन्ध सूत्रता का ज्ञान आवश्यक है। धरती पर भूमध्य-क्षेत्र प्रजातियों की दृष्टि से अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक समृद्ध है।

3. समुदाय एवं पारितंत्रिक विविधता — यह प्राकृतिक वास विविधता, प्राकृतिक प्रणालियों के प्रकारों एवं प्रत्येक पारिस्थितिकी में चल रही पारिस्थितिकी विषयक प्रक्रियाओं के मध्य व्यापक अन्तर को दर्शाता है। प्रत्येक तन्त्र में ऊर्जा प्रवाह एवं जल चक्रों की पद्धतियाँ अलग-अलग हैं जो जैव-विविधता के आवश्यक भाग हैं। सामुदायिक एवं पारिस्थितिक विविधता के तीन रूप हैं-

(1) ‘अल्फा विविधता’, सामुदायिक विविधता के अन्दर समान समुदायों तथा आवासों की हिस्सेदारी वाले जीवों की विविधता को प्रस्तुत करता है। इसे समुदायों या आवासों के अन्दर एक जाति प्रचुरता तथा समानता के मिश्रण की विविधता को प्रस्तुत करने के लिए उपयोग किया जाता है। आवास पर समुदाय परिवर्तित होने के साथ-साथ जातियाँ भी बदल जाती हैं।

(2) ‘बीटा विविधता’ सामुदायिक विविधता के मध्य समुदाय या आवासों की प्रवणता के साथ जातियों का विस्थापन दर कहलाती है। विभिन्न समुदायों की जातीय संरचनाएँ, जैसे ऊँचाई, आर्द्रता इत्यादि इस प्रवणता के साथ परिवर्तित होती जाती हैं। किसी क्षेत्र में आवासों या समुदायों के मध्य असमानताएँ यदि अधिक हो तो वहाँ बीटा विविधताएँ भी अधिक होंगी।

(3) गामा विविधता – किसी भूखण्ड या भौगोलिक क्षेत्र में आवासों की विविधता को गामा विविधता कहा जाता है।

पारिस्थितिक तन्त्र की विविधता ऊर्जा प्रवाहों, खाद्य संजालों तथा पोषक चक्रों को स्थिर रखने वाली कर्म स्थितियों, खाद्य स्तरों तथा विभिन्न पारितंत्रिक क्रियाओं को दर्शाती हैं। ये विविध प्रकार की जैविक अन्तर्क्रियाओं तथा प्रमुख जातियों की भूमिका एवं कार्य के बारे में बतलाती हैं। अध्ययनों में पाया गया है कि शीतोष्ण घास स्थलों में, यहाँ तक कि पर्यावरणीय प्रतिबलों जैसी लम्बी शुष्क स्थिति में भी, कार्य की दृष्टि से विविध समुदाय अधिक उत्पादक एवं स्थिर हो सकते हैं। एक भौगोलिक क्षेत्र में आवासों या पारिस्थितिक तन्त्रों की संख्या अलग-अलग हो सकती है तथा किसी क्षेत्र में आवासों और पारिस्थितिक तन्त्रों की संख्याएँ जैव-विविधता का मानक बनती हैं।

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