जैन दर्शन में अनेकान्तवाद एवं स्यादवाद
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जैन दर्शन में अनेकान्तवाद एवं स्यादवाद

नमस्कार दोस्तों हमारी आज के post का शीर्षक है जैन दर्शन में अनेकान्तवाद एवं स्यादवाद  उम्मीद करतें हैं की यह आपकों अवश्य पसंद आयेगी | धन्यवाद |

जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा अनेकान्तवाद है। अनेकान्तवाद का अर्थ है कि वस्तु अनन्त धर्मात्मक है या वस्तु के अनेक धर्म होते हैं। उल्लेखनीय है कि अनेकान्तवाद वस्तु को अनेक धर्मात्मक मानने के साथ उसे अनेक भी मानता है। यहाँ धर्म शब्द गुण, लक्षण या विशेषता के अर्थ में आया है। वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, का अर्थ है कि वस्तु में अनन्त गुण या अनन्त लक्षण होते हैं।

जैन दर्शन के अनुसार जिस आश्रम में धर्म होते हैं वह धर्मी है और धर्मी को विशेषताएँ ‘धर्म’ है। जैन दर्शन में धर्मी के लिए द्रव्य शब्द प्रयोग होता है। इसमें द्रव्य में दो प्रकार के धर्म स्वीकार किये जाते हैं स्वरूप धर्म और आगन्तुक धर्म | इस प्रकार द्रव्य वह है जिसमें स्वरूप और धर्म पाये जाते हैं। स्वरूप धर्म द्रव्य के अपरिवर्तनशील एवं नित्य धर्म हैं। इसके अभाव में द्रव्य आगन्तुक का अस्तित्त्व सम्भव नहीं है। जैसे चेतना जीव का स्वरूप धर्म है मृत्तिका घट का स्वरूप धर्म है। आगन्तुक धर्म द्रव्य के परिवर्तनशील धर्म हैं। ये धर्म द्रव्य में आते-जाते रहते हैं।

इनके अभाव में द्रव्य अस्तित्त्ववान हो सकता है। जैसे, सुख, दुःख, इच्छा, संकल्प, आदि जीव आगन्तुक धर्म है। रंग, रूप, आदि घट के आगन्तुक धर्म है। जैन दर्शन में स्वरूप धर्म को गुण कहा जाता है और आगन्तुक धर्म को पर्याय या विकार (Mode)। इस प्रकार जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य वह है जिसमें गुण और पर्याय पाये जाते हैं। जैन दार्शनिक इस बात पर बल देते हैं कि द्रव्य और गुण को परस्पर पृथक् नहीं किया जा सकता।

यहाँ जैन दर्शन ke जैन दार्शनिक न्याय दर्शन की इस मान्यता को अस्वीकार करते हैं कि द्रव्य और गुण में नितान्त भेद है। उनका तर्क है कि यदि द्रव्य अपने गुणों से नितान्त पृथक् एवं भिन्न है तो वह अनन्त प्रकार के अन्य द्रव्यों में भी परिवर्तित हो सकता है। पुनः यदि गुण अपने द्रव्यों से अलग रहकर विद्यमान रह सकता है तो किसी द्रव्य की बिलकुल आवश्यकता ही नहीं रह जाती। जैन दर्शन के अनुसार ‘द्रव्य सत् है।

सत् वह है जिसकी उत्पत्ति एवं विनाश होता है तथा जिसमें स्थिरता होती है। अर्थात् प्रत्येक पदार्थ जिसका प्रादुर्भाव, विनाश और स्थिति होती है, वह द्रव्य है। जैन दार्शनिक अद्वैत वेदान्त एवं बौद्ध दर्शन के सत् के लक्षण को अस्वीकार करता है जिनमें क्रमश: त्रिकालाबाधित्वं’ और ‘अर्थक्रियाकारित्व को सत्ता का लक्षण स्वीकार किया जाता है।

जैन दर्शन का कथन है कि अद्वैत एवं बौद्ध मत एकान्तवाद है। अद्वैत वेदान्त में केवल द्रव्यत्व को स्वीकार करके गुणों को अस्वीकार किया जाता है। इसके विपरीत बौद्ध मत केवल परिवर्तनशील धर्मों को स्वीकार करता है और द्रव्यत्व की उपेक्षा करता है। जैन मत दोनों को महत्त्व देता है। उसके अनुसार द्रव्य गुण की दृष्टि से नित्य होता है, क्योंकि गुण उसके अपरिवर्तनशोल धर्म हैं।

चूंकि पर्याय उत्पत्तिविनाशधर्मा है, अतः उसकी दृष्टि से वह परिवर्तनशील और अस्थायी होती है। जैसे, घट में मृतिका अपरिवर्तनशील एवं नित्य तत्त्व है। किन्तु चूँकि वह मृत्तिका से उत्पन्न होता है, उसके रूप, आदि में परिवर्तन होता है एवं कालान्तर में उसका विनाश भी होता है।

अत: घट का उद्भव, रंग, रूप आदि परिवर्तन, उसका विनाश अनित्य तत्व है। इस प्रकार जैन दर्शन का कथन है कि द्रव्य एक गतिशील यथार्थता है। यह सब वस्तुओं के अन्दर रहने वाला सारतत्त्व है जो अपने को विविध आकृत्तियों में प्रकट करता है और इसकी तीन विशेषताएँ हैं उत्पत्ति, विनाश एवं स्थिति द्रव्य की इन तीनों विशेषताओं में कोई विरोध भी नहीं है, क्योंकि गुण की दृष्टि से द्रव्य में एकता, सामान्यत्व एवं नित्यता की सिद्धि होती है और पर्याय की दृष्टि से अनेकता, विशेषत्व एवं अनित्यता की।

इस प्रकार दृष्टि-भेद से वस्तु में एकता और अनेकता सामान्यत्व एवं विशेषत्व, नित्यता एवं अनित्यता एक साथ रह सकते हैं। संक्षेप में, यद्यपि सत् स्वतः नित्य है तथापि उसमें दिखाई देते हैं जो प्रकट होते रहते हैं और लुप्त होते रहते हैं। परिवर्तित होने के बावजूद स्थिर द्रव्य की विशेषता है। उल्लेखनीय है कि बौद्ध दर्शन भी परिवर्तनशीलता को मानता है किन्तु दोनों की मान्यता अन्तर है। बौद्ध दर्शन स्थायी तत्त्व का बिलकुल निषेध करता है।

वह जिस परिवर्तन में विश्वास करता है वह वास्तव में किसी का परिवर्तन नहीं है। इसके विपरीत जैन दर्शन परिवर्तन को भी स्वीकार करता है और उस वस्तु को भी मानता है जिसमें परिवर्तन होता है। इस प्रकार जैन दर्शन की तस्वमीमांसा अनन्तधर्मात्मक है। जैन दर्शन की यह भी मान्यता है कि वस्तु के अनन्त धर्मों में कुछ धर्म भातात्मक हैं और कुछ अभावात्म भावात्मक धर्म यह सूचित करते हैं कि वह क्या है? अभावात्मक धर्म अन्य वस्तुओं से उसका पार्थक्य सूचित करते हैं। वे भावात्मक धर्मों को ‘स्वपर्याय’ कहते है और अभावात्मक धर्मों को ‘परपयोय’।

वस्तु के अभावात्मक धर्मों की संख्या भावात्मक धर्मों से अधिक होती है। अनेकान्तवाद और स्यादवाद एक ही सिद्धान्त के दो पक्ष है। अनेकान्तबाद तत्त्वमीमांसा का सिद्धान्त है जिसका अर्थ है कि संसार में अनन्त वस्तुएँ है और प्रत्येक वस्तु के अनन्त धर्म है। स्यादवाद ज्ञान मीमांसा और तर्कशास्त्र का सिद्धान्त है। इसका अर्थ है कि मनुष्य का संपूर्ण जान एकांगी, आंशिक, अपूर्ण और सापेक्ष है। इस कारण उसका परामर्श भी आंशिक एवं सापेक्ष है। जैन दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त है बहुलवादी एवं सापेक्षतावादी यथार्थवाद। यह मता की दृष्टि से अनेकान्तवाद और ज्ञान की दृष्टि से स्यावाद है।

यह जैन दर्शन का सर्वाधिक विलक्षण सिद्धान्त है। स्यादवाद जैन विचारधारा में परामर्श का सिद्धान्त है। उल्लेखनीय है कि जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा अनेकान्तवादी है जिसमें वस्तु ‘अनन्तधमत्मक’ मानी जाती है। अनन्तधर्मात्मक होने के कारण उसका स्वरूप अत्यधिक जटिल होता है। वस्तु के अनन्त धर्मों का ज्ञान मात्र केवली को होती है, क्योंकि वह सर्वज्ञ है। सर्वज्ञ वह है जो किसी वस्तु को सभी दृष्टियों से जानता है।

उसके अनुसार यदि कोई व्यक्ति किसी वस्तु को सभी दृष्टियों से जानता है तो वह सभी वस्तुओं को सभी दृष्टियों से जान सेता (एको पावः सर्वचा मेनसभा नष्ट: । साधारण मनुष्य का ज्ञान अत्यधिक सीमित होता है, क्योंकि यह किसी वस्तु को कुछ हो दृष्टियों से देखता है। वह वस्तु के आशिक धर्मों को ही जानता है और उसी के आधार पर वस्तु के विषय में परामर्श करता है। तात्पर्य यह कि व्यक्ति किसी वस्तु को अलग-अलग दृष्टिकोणों से देखते हैं और उसी के आधार पर उसके विषय में कथन करते हैं, फलस्वरूप उनके कपनों में परस्पर मतभेद होता है। इनमें से किसी कथन द्वारा वस्तु के स्वरूप का पूर्ण बोध नहीं होता, वस्तु के विषय में कोई कथन एकमात्र सत्य नहीं होता। इस प्रकार वस्तु का स्वरूप अत्यन्त जटिल होने के कारण उसके विषय में कोई कथन अंशत: ही सही होता है, किन्तु कोई कथन पूर्णरूपेण सही नहीं होता। उसको सत्यता सापेक्ष होती है।

जैन दर्शन ke जैन दार्शनिक अपने सिद्धान्त को स्पष्ट करने के लिए अन्ये और हाथी की कहानों का उल्लेख करते हैं। छः अन्ये एक हाथी के अलग-अलग अंगों का स्पर्श करके हाथी का वर्णन करते हैं। एक अन्या हाथी के पैर का स्पर्श करके कहता है कि ‘हाथी खम्बे के समान है। दूसरा अन्धा हाथी के सूँड का स्पर्श करता है और कहता है कि हाथी अजगर के समान है।

तीसरा अन्धा हाथी के कान का स्पर्श करके कहता है कि हाथी पंखे के समान है और चौथा अन्या हाथी के पेट का स्पर्श करके कहता है कि हाथी दीवार के समान है, इत्यादि। प्रश्न है कि हाम्रो के विषय में किस अन्धे का कथन सत्य है? प्रत्येक अन्धे का विचार है कि केवल उसी का हामी विषयक वर्णन सत्य है। स्पष्ठतः अन्यों के हाथों विषयक वर्णन में मतभेद का कारण दृष्टि है। जब उन्हें यह समझाया जाता है कि उन्होंने हाथों के अलग-अलग अंगों का स्पर्श करके हाथी का वर्णन किया है तो उनका मतभेद दूर हो जाता है। जैन दार्शनिक इस कहानी के पर यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि विभिन्न दार्शनिकों एवं उनके सिद्धान्तों के मध्य विवाद का कारण दृष्टि-भेद है।

प्रत्येक दार्शनिक सिद्धान्त उस दृष्टिकोण के आधार पर सत्य है जिसके अनुसार उसका प्रतिपादन हुआ है, यद्यपि अन्य दृष्टिकोणों से वह सत्य नहीं हो सकता।

जैन दर्शन के ‘ स्यात् ‘ शब्द का क्या अर्थ है? जैन दर्शन के कुछ आलोचकों का कपल है कि स्व शब्द का अर्थ है, हो सकता है’, ‘शायद इस प्रकार स्यात् शब्द से ज्ञान को सन्दिरताको होता है। कुछ दार्शनिकों के अनुसार स्यात्’ शब्द का अर्थ है, प्रसम्भाव्य इस अर्थ में शब्द से ज्ञान की ‘प्रसम्भाव्यता’ या ‘अनिश्चितता’ की पुष्टि होती है। कतिपय अन्य जैन दर्शन के दार्शनिकों के अनुसार ‘स्यात्’ शब्द का अर्थ है, ‘कथंचित’ या किसी प्रकार इस अर्थ में स्यात् शब्द से तत्त्व की अज्ञेयता की गन्ध आती है। उल्लेखनीय है कि जैन दार्शनिक स्यात् शब्द को इन अर्थों में नहीं ग्रहण करते। यह शब्द जैन दर्शन में एक तकनीकी एवं पारिभाषिक शब्द के रूप में आया है।

यह शब्द यहाँ ज्ञान को सापेक्षता का घोतक है। स्यात् शब्द से यह ज्ञात होता है कि स्यादपूर्वक जो परामर्श हुआ है वह किसी दृष्टिकोण विशेष पर आधारित है। वह परामर्श कतिपय परिस्थितियों, देश एवं काल के सन्दर्भ में है। उस दृष्टिकोण परिस्थिति देश और काल के सन्दर्भ में वह परामर्श सत्य है, यद्यपि वह अन्य दृष्टिकोण परिस्थिति, देश एवं काल के मन्दर्भ में असत्य भी हो सकता है। जैन दार्शनिक अपने विचार को दोषमुक्त दिखाने के लिए इस शब्द के प्रयोग का सुझाव देते हैं। इस प्रकार स्यादवाद ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धान्त है।

इसका निहितार्थ यह है कि सीमित बुद्धियुक्त प्राणी किसी वस्तु के विषय में जो परामर्श करता है वह किसी प्रसंग में करता है और उस प्रसंग में वह सत्य होता है। यह प्रतिपादित करता है कि मानवज्ञान प्रसंग-सापेक्ष है। अतः में कोई ज्ञान पूर्ण सत्य है और न पूर्ण असत्या प्रत्येक ज्ञान में सत्यता होती है, किन्तु वह किसी विशेष दृष्टिकोण से होती है।

जैन दर्शन के अनुसार दार्शनिक विवादों का मूल कारण यह है कि हम इस सिद्धान्त को भूल जाते हैं और अपने ही विचारों को पूर्ण और निरपेक्ष सत्य मानकर दूसरों के विचारों को असत्य मान लेते हैं। वस्तुतः प्रत्येक दार्शनिक मत अपनी दृष्टि से सत्य हो सकते हैं, हाँ, वे आपेक्षिक सत्य ही होते हैं। दृष्टि-भेद के कारण विभिन्न दाशानक सिद्धान्तों में विवाद पाया जाता है इष्टदृश्य होने पर उनमें विवाद की सम्भावना समाप्त हो जाती है।

स्यादवाद का प्रमाण

स्यादवाद का प्रमाण सप्तभंगी नय है। इसका अर्थ है, किसी वस्तु के विषय में परामर्श या जय के सात (सप्त) प्रकार (भंग)। सप्तभंगी नम द्वारा किसी वस्तु के नानाविध धर्मों का निश्चय किया जा सकता है। में बिना किसी आत्म विरोध के अलग-अलग या संयुक्त रूप से किसी वस्तु के विषय में विधान या निषेध करते हैं और इस प्रकार किसी वस्तु के अनेक धर्मों का प्रकाशन करते हैं।

सामान्यतः पाश्चात्य दर्शन में परामर्श के दो भेद किये जाते हैं विध्यात्मक और निषेधात्मक किन्तु जैन दर्शन में परामर्श के सात मेद किये जाते हैं। पाश्चात्य दर्शन के परामर्श के दोनों भेद भी इसमें आ जाते हैं। संक्षेप में, जैन दर्शन के अनुसार किसी वस्तु के विषय में स्यात्पूर्वक सात परामर्श किये जा सकते हैं। इसी को सप्तमंगी जय कहते हैं। इसके सात जय (प्रमाण नय) निम्नलिखित है –

स्यादस्ति, अर्थात् स्यात् है

बैन दर्शन के अनुसार विध्यात्मक नय ‘स्यादस्ति च आकार में अभिव्यक्त होना चाहिए। जैसे, स्यात् पड़ा है। इससे यह अर्थ निकलता है कि पा अपने नाम, स्थापना, द्रव्य और भावरूप से विद्यमान है। अर्थात् मिट्टी का बना हुआ मेरे कमरे में वर्तमान समय में एक विशेष आकार और माप का पढ़ा विद्यमान है।

स्यान्नास्ति, अर्थात् स्यात् नहीं है

जैन दर्शन के अनुसार निषेधात्मक नय स्पनास्ति आकार में कहा जाना चाहिए। जैसे, स्यात् घट नहीं है। इसका आशय है कि पर नाम पर स्थापना पर द्रव्य एवं परभाव की दृष्टि से पड़ा विद्यमान नहीं है। अर्थात् पीतल आदि का बना हुआ (पर द्रव्य), चौकोर घड़ा (पर नाम) एक भित्र स्थान (पर स्थापना) और एक भिन्न समय में (पर भाव से) विद्यमान नहीं है। संक्षेप में स्यात् से यह आशय निकलता है कि जिस घड़े के विषय में परामर्श होता है, एक विशेष समय में उस स्थान पर नहीं है जहाँ के लिए उसके सम्बन्ध में परामर्श हुआ है।

स्यादस्ति च नास्ति च अर्थात् स्यात् है और नहीं

इस नय में दृष्टि-भेद से पड़े का विधान और निषेध दोनों है। जैसे, स्यात् पहा है भी और नहीं भी है। इसमें स्व-रूप-द्रव्य स्थान-काल की दृष्टि से पढ़े का विधान किया जाता है और पर-रूप-द्रव्य-देश-फाल को दृष्टि से पड़े का निषेध भी किया जाता है। इस नथ का आशय यह है कि एक विशेष अर्थ में पहा है और अन्य अर्थ में पढ़ा नहीं है। इसमें इस बात पर बल दिया जाता है कि ‘एक वस्तु क्या है और क्या नहीं है’, स्यात् शब्द से यह सूचित होता है कि अस्ति और नास्ति के समुच्चय मे तर्कत: विरोध नहीं है।

स्यादवक्तव्यम्, अर्थात् स्यात्अवक्तव्य है

जैन दर्शन के अनुसार किसी वस्तु के अस्ति, नास्ति और उभय के अतिरिक्त एक अन्य कोटि भी है, वह अवक्तव्यता की है। यहाँ अवक्तव्य का अर्थ है, ‘युगपत् कथन करने की असमर्थता’। इसका अर्थ है कि दृष्टिभेद से किसी वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों होते हैं, किन्तु भाषा की सीमा और अपर्याप्तता के कारण हम विरोधी गुणों का एक साथ निर्वाचन नहीं कर पाते। जैसे, स्यात् घड़ा अवक्तव्प है। इसका अर्थ है कि किसी घड़े में अपने रूप की उपस्थिति और अन्य रूप की अनुपस्थिति एक साथ होती है, किन्तु हम उसे व्यक्त नहीं कर पाते।

स्यादस्ति च अवक्तव्यं च अर्थात् स्यात् है और अवक्तव्य भी है

यह नय प्रथम और चतुर्थ नय को मिलाने से बनता है। इस नय में वस्तु की सत्ता और उसको अनिर्वचनीयता दोनों का कथन किया जाता है। यह नय यह लक्षित करता है कि कोई वस्तु स्व-नाम-स्थापना-द्रव्य-भाव से विद्यमान होने पर भी अपनी इन विशेषताओं और पर नाम-स्थापना-द्रव्य-भाव से वह अवक्तव्य भी हो सकती है। जैसे, स्यात् पड़ा है और अवक्तव्य भी है। इस नम का अर्थ है कि यदि घड़े के द्रव्य रूप (मृत्तिका) को देखें तो पढ़ा है। किन्तु इसके द्रव्य रूप (मृत्तिका) और परिवर्तनशील रूप, दोनों को एक समय में देखें तो वह अस्तित्ववान होने पर भी अवर्णनीय है।

स्यान्नास्ति च अवक्तव्यं च, अर्थात् स्यात् नहीं है और अवक्तव्य भी है

यह नय द्वितीय और चतुर्थ नयों को मिलाने से बनता है। यह नय वस्तु की असत्ता (वस्तु क्या नहीं है) और उसकी अनिर्वचनीयता दोनों को उपलक्षित करता है। जैन दर्शन के अनुसार कोई वस्तु पर मान-स्थापना-द्रव्य-भाव से अविद्यमान होने पर भी इस विशेषताओं के साथ स्व-नाम स्थापना-द्रव्य-भाव से वह अव्यक्त भी हो सकती है। जैसे, स्यात् पढ़ा नहीं है और अव्यक्त भी है। इस नम का अर्थ यह है कि पड़ा अपने पर्याय रूप को अपेक्षा नहीं रखता, क्योंकि वे रूप क्षण-क्षण में परिवर्तित होते रहते हैं। इसमें सत्तारहित अव्यक्त की भावना की प्रधानता है।

स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्यं च अर्थात् स्यात है, नहीं है और अवत भी है

यह नम तृतीय और चतुर्थ नयों को मिलाने से बनता है। जैसे, स्यात् पड़ा है, नहीं है और अव्यक्त भी है। अपने निजी चतुष्टय (स्व-नाम-स्थापना-द्रव्य-भाव) की दृष्टि से परवस्तु के चतुष्टय (पर-नाम-स्थापना-द्रव्य-भाव) की दृष्टि से और अपने निजी एवं अभावात्मक वस्तु के संयुक्त चतुष्टय के दृष्टिकोण से कोई वस्तु हो सकती है, नहीं भी हो सकती है और अव्यक्त भी हो सकती है। जैसे पड़ा मृत्तिका की दृष्टि से है। उसके (मृत्तिका के) रूप क्षण-क्षण परिवर्तित होते हैं, अत: वह नहीं है। इन दोनों दृष्टियों के आधार पर संयुक्त रूप से विचार करने पर वह अवक्तव्य है। इस नय में द्रव्य और पर्यायों के एक साथ होने और अलग-अलग होने के कारण पड़े का अस्तित्व, अनस्तित्व और अव्यक्तत्व सूचित किया गया है।

स्यादवाद अनेकान्तवाद को सिद्ध करता है। जैन दर्शन का दावा है कि स्यादवाद से अनेकान्तवाद सिद्ध होता है। इसके अनुसार विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्त विभिन्न दृष्टियों पर आधारित होते हैं। इस प्रकार सत्ता सम्बन्धी जितने सिद्धान्त हैं, सत्ता में उठने धर्म है। अर्थात् सत्ता में (वस्तु में) अनेक धर्म होते हैं। सप्तभंगी नय को सात विधाओं से यह प्रमाणित होता है कि वस्तुसम्बन्धी विवेचन अनेक दृष्टियों पर आधारित होता है।

इस प्रकार वस्तु अनेक धर्मात्मक या अनन्त धर्मात्मक होती है। स्यादवाद विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों का अनेकान्तवाद में समन्वय करता है। इस प्रकार यह एक उदारवादी सिद्धान्त है। यह इस बात पर बल देता है कि प्रत्येक दार्शनिक सिद्धान्त सापेक्ष रूप से सत्य होता है। वह जिस दृष्टि (धर्म) मे सता (वस्तु) को देखता है, वह उस दृष्टि के परिप्रेक्ष्य में सत्य होता है। विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों में परस्पर विरोध का कारण दृष्टिभेद है।

आलोचना

स्यावाद के विरुद्ध निम्नलिखित आक्षेप किये जाते हैं –

  • आचार्य शंकर ने स्यादवाद को संशयवाद और अनिश्चिततावाद की संज्ञा दिया है। इसे कभी-कभी अज्ञेयवाद और प्रसंभाव्यतावाद का सिद्धान्त भी कहा जाता है। वस्तुतः जैन दर्शन पर ये आरोप ‘स्यात्’ शब्द के शाब्दिक अर्थ आधार पर लगाये जाते हैं। ऊपर इस बात का उल्लेख किया जा चुका है कि ये आलोचक स्यात् शब्द का अर्थ हो सकता है। शायद, ‘कथंचित’ और र ‘प्रसंभाव्य’ करते हैं और इस आधार पर स्यादवाद पर उपरोक्त आरोप लगाते हैं। किन्तु स्यादवाद संशयवाद, प्रसंभाव्यताबाद, अनिश्चितताबाद और अज्ञेयवाद नहीं है। जैन दर्शन में स्यात् एक पारिभाषिक शब्द है जो ज्ञान की सापेक्षता की ओर संकेत करता है। स्यादबाद से यह जात होता है कि स्यात्पूर्वक जो परामर्श हुआ है वह कतिपय परिस्थितियों, देश एवं काल के सन्दर्भ में और उस सन्दर्भ में वह परामर्श सत्य है।

  • आलोचक सप्तभंगी नय के तृतीय नय को आत्मविरोधी घोषित करते हैं। इसके के अनुसार कोई वस्तु है और नहीं है’ एक साथ कैसे हो धर्मकीर्ति का कथन है कि से निर्लज्ज जैन दार्शनिक पागल मनुष्य के समान परस्पर विरोधी कथन करते हैं।’ आचार्य शंकर के अनुसार ‘स्याद्वाद, जो कि यथार्थ और अयथार्थ, अस्तित्व और अनस्तित्व एक और अनेक, अभिन्न और भिन्न तथा सामान्य और विशेष आदि का मिश्रण करता है, पागल व्यक्ति के क्रन्दन और उन्मत्त के प्रलाप के समान प्रतीत होता है। रामानुज लिखते हैं, “भाव एवं अभाव ये दोनों परस्पर विरोधी गुण किसी एक पदार्थ में उसी प्रकार नहीं रह सकते जिस प्रकार प्रकाश और अन्धकार एक स्थान पर नहीं रह सकते। किन्तु जैन दार्शनिक यह कभी भी नहीं कहते हैं कि किसी वस्तु में परस्पर विरोधी गुण एक ही दृष्टि से रहते हैं। उनके अनुसार वस्तु में अनन्त धर्म होते है। विभिन्न दृष्टियों से विचार करने पर उसके धर्मों में कोई विरोध नहीं दिखायी देता। द्रव्य को दृष्टि से वस्तु में एकता एवं नित्यता आदि का विधान किया जा सकता है तो पर्याय की दृष्टि से अनेकता और अनित्यता, आदि का। अतः स्यादवाद में कोई विरोध नहीं है।

  • सप्तभंगी नय की परीक्षा करने पर र ज्ञात होता है कि उसके अन्तिम तीन नय अतिरिक्त, अनावश्यक और व्यर्थ हैं। वे प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय नयों के साथ चतुर्थ के योगमात्र हैं। क कुमारिल के अनुसार इस आधार पर सात ही क्यों, सैकड़ों नय बनाये जा सकते हैं।

  • जैन दर्शन के अनुसार हमारे सभी ज्ञान सापेक्ष एवं आंशिक हैं। वे निरपेक्ष ज्ञान को अस्वीकार करते हैं। किन्तु निरपेक्ष को स्वीकार किये बिना सापेक्ष की अवधारणा को स्वीकार करना असम्भव है। पुन: जैन दार्शनिक ‘केवल ज्ञान’ को शुद्ध पूर्ण, अपरोक्ष और परमार्थ ज्ञान मानते हैं जो सभी आवरणीय कर्मों के क्षय हो जाने पर प्राप्त होता है। यद्यपि जैन दार्शनिक स्वयं इसके लिए ‘निरपेक्ष शब्द का प्रयोग नहीं करते, तथापि यह न चाहते हुए भी निरपेक्ष तत्त्व की स्वीकृति हो है।

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यह भी जाने

अनेकान्तवाद का क्या अर्थ है ?

अनेकान्तवाद का अर्थ है कि वस्तु अनन्त धर्मात्मक है या वस्तु के अनेक धर्म होते हैं।

अनेकान्तवाद किसे कहतें हैं ?

जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा अनेकान्तवाद है।


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