जैन दर्शन के मोक्ष की क्या अवधारणा है? | Jain philosophy of salvation |
  1. Home  / Uncategorized  / 
  2. जैन दर्शन के मोक्ष की क्या अवधारणा है? | Jain philosophy of salvation |
जैन दर्शन के मोक्ष की क्या अवधारणा है? | Jain Philosophy Of Salvation |
जैन दर्शन के मोक्ष की क्या अवधारणा है? | Jain philosophy of salvation |
जैन दर्शन के मोक्ष की क्या अवधारणा है? | Jain Philosophy Of Salvation |
जैन दर्शन के मोक्ष की क्या अवधारणा है? | Jain Philosophy Of Salvation |

नमस्कार दोस्तों हमारी आज के post का शीर्षक है जैन दर्शन के मोक्ष की क्या अवधारणा है? | Jain philosophy of salvation | उम्मीद करतें हैं की यह आपकों अवश्य पसंद आयेगी | धन्यवाद |

जीव सम्बन्धी विचार

जिस सत्ता को अन्य भारतीय दर्शनों में साधरणतया ‘आत्मा’ कहा गया है उसी को जैन दर्शन में ‘जीव’ की संज्ञा दी गयी है। वस्तुतः जीव और आत्मा एक ही सत्ता के दो भिन्न-भिन्न नाम हैं। जैनों के मतानुसार चेतन द्रव्य को जीव कहा जाता है। चैतन्य जीव का मूल लक्षण है। यह जीव में सर्वदा विद्यमान रहता है। चैतन्य के अभाव में जीव की कल्पना करना भी सम्भव नहीं है।

इसीलिए जीव की परिभाषा इन शब्दों में दी गई है। (चेतना-लक्षणों जीव:) जैनों का जीव सम्बन्धी यह विचार न्याय-वैशेषिक के आत्मा-विचार से भिन्न है। न्याय-वैशेषिक ने चैतन्य को आत्मा का आगन्तुक लक्षण माना है। आत्मा उनके अनुसार स्वभावतः अचेतन है। परन्तु शरीर, इन्द्रिय, मन आदि से संयुक्त होने पर आत्मा में चैतन्य का संचार होता है। इस प्रकार न्याय-वैशेषिक के अनुसार चैतन्य आत्मा का आगन्तुक गुण है। परन्तु जैनों ने बैतन्य को आत्मा का स्वभाव माना है।

चैतन्य जीव में सर्वदा अनुभूति रहने के कारण जीव को प्रकाशमान माना जाता है। वह अपने आप को प्रकाशित करता है तथा अन्य वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है। जीव नित्य है। जीव को यह विशेषता शरीर में नहीं पायी जाती है, क्योंकि शरीर नाशवान है। जीव और शरीर में इस विभिन्नता के अतिरिक्त दूसरी विभिन्नता यह है कि जीव आकारविहीन जबकि शरीर आकारयुक्त है। जीव को अनेक विशेषताएँ है, जिनकी ओर दृष्टिपात करना परमावश्यक है।

जीव ज्ञाता है। वह भिन्न-भिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है, परन्तु स्वयं ज्ञान का विषय कभी नहीं होता। जीव कता है। वह सांसारिक कर्मों में भाग लेता है। कर्म करने में वह पूर्णतः स्वतंत्र है। वह शुभ और अशुभ कर्म से स्वयं अपने भाग्य का निर्माण कर सकता है। जैनों का जीव सम्बन्धी यह विचार सांख्य के आत्मा-सम्बन्धी विचार से विरोधात्मक सम्बन्ध रखता हुआ प्रतीत होता है। सांख्य ने आत्मा को अकर्त्ता कहा है। जीव भोक्ता है। जीव अपने कर्मों का फल स्वयं भोगने के कारण सुख और दुःख की अनुभूतियाँ प्राप्त करता है।

जैनों के मतानुसार जीव स्वभावतः अनन्त है। जीव में चार प्रकार की पूर्णताएँ पायी जाती हैं, जिन्हें अनन्त चतुष्य कहा जाता है। ये है अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त शक्ति, अन्त सुख जब जीव-बन्धन ग्रस्त हो जाते हैं तो उनके थे गुण अभिभूत हो जाते हैं। जीव की इन विशेषताओं के अतिरिक्त प्रमुख विशेषता यह है कि जीव अमूर्त होने के बावजूद मूर्ति ग्रहण का लेता है।

इसलिए जीव को अस्तिकाय द्रव्यों के वर्ग में रखा गया है। जोन के इस स्वरूप की तुलना प्रकाश में की जा सकती है। प्रकाश का कोई आकार नहीं होता फिर भी जिस कमरे को वह आलोकित करता है उसके आकार के अनुसार भी प्रकाश का कुछ-न-कुछ आकार अव हो जाता है।

जीव भी प्रकाश की तरह जिस शरीर में निवास करता है, उसके आकार अनुसार जो के आकार ग्रहण कर लेता है। शरीर के आकार में अन्तर होने के कारण आत्मा के भिन्न-भिन आकार हो जाते हैं। हाथी में निवास करने वाली आत्मा का रूप बृहत् है। इसके विपरीत चाँटी में व्याप्त आत्मा का रूप सूक्ष्म है। जैनों के आत्मा का यह स्वरूप डेकार्ट के आत्मा से भिन्न है। डेकार्ट के मतानुसार विचार ही आत्मा का एकांतिक गुण है। उनके ऐसा मानने का कारण यह है कि उन्होंने आत्मा को चिन्तनशीन प्राणी कहा है।

बन्धन एवं मोक्ष सम्बन्धी विचार

भारतीय दर्शन में बन्धन का अर्थ निरन्तर जन्म ग्रहण करना तथा संसार के दुःखों को झेलना है। भारतीय दार्शनिक होने के नाते जैन मत बन्धन के इस सामान्य विचार को अपनात है। जैनों के मतानुसार बन्धन का अर्थ जीवों को दुःखों का सामना करना तथा जन्म-जन्मान्त तक भटकना कहा जाता है। दूसरे शब्दों में जीव को दुःखों की अनुभूति होती है तथा उसे जन्म ग्रहण करना पड़ता है।

यद्यपि जैन-दर्शन भारतीय दर्शन में वर्णित बन्धन के सामान्य विचारों को शिरोधार्य करत है, फिर भी उसके बन्धनसम्बन्धी विचारों को विशिष्टता है। इस विशिष्टता का कारण जैनों का जगत् और आत्मा के प्रति व्यक्तिगत विचार कहा जा सकता है। जैनों ने जीवों को स्वभावतः अनन्त कहा है।

जीवों में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन अनन्त शक्ति और अनन्त आनन्द आदि पूर्णताएँ निहित है। परन्तु बन्धन की अवस्था में सारी पूर्णतायें बँक दी जाती हैं। जिस प्रकार मेघ सूर्य के प्रकाश को ढक लेता है उसी प्रकार बन्धन आत्मा के स्वाभाविक गुणों को अभिभूत कर लेते हैं। अब प्रश्न है कि आत्मा किस प्रकार बन्धन में आती है? जैनों के मतानुसार बन्धन का क्या विचार है? जीव शरीर के साथ संयोग को कामना करता ॥ है। शरीर का निर्माण पुद्गल-कर्णो से हुआ है।

इस प्रकार जीव का पुद्गल से ही संयोग होता है। यही बन्धन है। अज्ञान से अभिभूत रहने के कारण जीव में वासनाएँ निवास करने लगती हैं। ऐसी वासनाएँ मूलत: चार हैं, जिन्हें क्रोष,मान, लोभ और माया कहा जाता है। इन वासनाओं अर्थात् कुप्रवृत्तियों के वशीभूत होकर जीव शरीर के लिए लालायित रहता है। आकृष्ट करने के । वह पुद्गल-कणों को अपनी ओर आकृष्ट करता है।

पुद्गल कणों को कारण इन कुप्रवृत्तियों को ‘कषाय’ कहा जाता है। जीव किस प्रकार के पुदगल-कर्णो को अपनी ओर आकृष्ट करेगा, यह जीव के पूर्व-जन्म के कर्म के अनुसार निश्चित होता है। जीव अपने कर्म के अनुसार पुद्गल के कणों के आकृष्ट करता है। इस प्रकार जीवों के शरीर की रूप-रेखा कर्मों द्वारा निश्चित होती है। जैनों ने अनेक प्रकार कर्मों को माना है। प्रत्येक कर्म का नामकरण फल के अनुरूप होता है। ‘आयुकर्म’ उस कर्म को कहा जाता है जो मनुष्य को आयु निर्धारित करता है। जो कर्म ज्ञान में बाधक सिद्ध होते हैं उन्हें ‘जानावरणीय कर्म’ कहा जाता है। वे कर्म जो आत्मा की स्वाभाविक शक्ति को रोकते हैं ‘अन्तराय कर्म कहे जाते हैं।

जो कर्म उच्च अथवा निम्न परिवार में जन्म का निश्चय करते हैं ‘गोत्रकर्म’ कहलाते हैं जो कर्म सुख और दुःख की वेदनायें उत्पन्न करते हैं वेदनीय कर्म कहे जाते हैं। ‘दर्शनावरणीय कर्म उन कर्मों को कहा जाता है जो विश्वास का नाश करते हैं। चूँकि जीव अपने कर्मों के अनुसार ही पुद्गल-कण को आकृष्ट करता है, इसलिए आकृष्ट पुद्गल-कण को कर्म-पुद्गल कहा जाता है। उस अवस्था को जब कर्म-पुद्गल आत्मा की और प्रवाहित होते हैं। आव कहा जाता है। ‘आश्रव’ जीव का स्वरूप नष्ट कर देता है और बन्धन की ओर ले जाता है। जब वे पुद्गल कण जीव में प्रविष्ट हो जाते हैं तब उस अवस्था को बन्धन कहा जाता है।

बन्धन दो प्रकार का होता है-

  • भाव बन्ध
  • द्रव्य बन्ध

ज्योही आत्मा में चार प्रकार की कुप्रवृत्तियों निवास करने लगती हैं, त्योंही आत्मा बन्धन को प्राप्त करती है। इस बन्धन को ‘भाव बन्धा कहा जाता है। मन में दूषित विचारों का आना ही ‘भाव बंध’ कहलाता है। द्रव्य बन्य उस बन्धन को कहते हैं जब पुद्गल-कण आत्मा में प्रविष्ट हो जाते है। जीव और पुद्गल का संयोग ही ‘द्रव्य-बन्ध कहलाता है। जिस प्रकार दूध और पानी का संयोजन होता है, तथा गर्म लोड़ा और अग्नि का संयोजन होता है उसी प्रकार आत्मा और पुदगल का भी संयोजन होता है।

भाव-बन्ध, द्रव्य-बन्ध का कारण है। भाव-बन्ध द्रव्य-बन्ध का आविर्भाव होता है। बन्धन की चर्चा हो जाने के बाद अब हम मोक्ष पर विचार करेंगे। जैन दर्शन भी अन्य भारतीय दर्शनों की तरह मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य मानता है।

मोक्ष बन्धन का प्रतिलोम है। जीव और पुद्गल का संयोग बन्धन है, इसलिए इसके विपरीत कोल का पुद्गल से वियोग ही मोल है। मोक्षावस्था में जीव का पुद्गल से पृथक्करण हो जाता है। हम लोगों ने देखा है कि बन्धन का कारण पुदगल के कथों की की और प्रवाहित होना है। इसलिए मोक्ष की प्राप्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक ये नये पुद्गल के कणों को आत्मा की ओर प्रवाहित होने से रोकता ही मोक्ष के लिये पर्याप्त नहीं है।

जीव में कुछ पुद्गल के कण अपना घर बना चुके है। अत: ऐसे पुद्गल के कणों का उन्मूलन भी परमावश्यक है। नये पुद्गल के कणों को जीव की ओर प्रवाहित होने से रोकना ‘संवर’ कहा जाता है। पुराने पुद्गल के कणों का निर्जरा कहा जाता है। इस प्रकार आगामी पुद्गल के कणों को रोककर तथा संचित पुदगाल के कणों को नष्ट कर गोव कर्म-पुद्गल से छुटकारा पा जाता है। कर्म-पुद्गल से मुक्त हो जाने पर जीव वस्तुतः मुक्त हो जाता है।

जैनों के अनुसार बन्धन का मूल कारण क्रोध, मान, लोभ और माया है। इन कुप्रवृत्तियों का कारण अज्ञान है। अज्ञान का नाश ज्ञान से ही सम्भव है। इसलिए जैन-दर्शन में मोक्ष के लिये सम्यक् ज्ञान को आवश्यक माना गया है। सम्यक ज्ञान की प्राप्ति पथ-प्रदर्शन के प्रति श्रद्धा और विश्वास से हो सम्भव है। जैन-दर्शन में तीर्थंकर को पथप्रदर्शक कहा गया है।

इसलिये सम्यक ज्ञान को अपनाने के लिये तीर्थंकरों के प्रति श्रद्धा और आस्था का भाव रहना आवश्यक है। इसी को सम्यक दर्शन कहा जाता है। यह मोक्ष का दूसरा आवश्यक साधन है। सम्यक दर्शन और सम्यक् ज्ञान को अपनाने से ही मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसके लिए मानव को अपनी वासना, इन्द्रिय और मन को संयत करना परमावश्यक है। इसी को सम्यक चरित्र कहते हैं।

जैन-दर्शन में मोक्षानुभूति के लिये सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक चरित्र तीनों को आवश्यक माना गया है। मोक्ष की प्राप्ति न सिर्फ सम्यक् ज्ञान से सम्भव है और न सिर्फ सम्यक दर्शन से सम्भव है, और न सिर्फ सम्यक चरित्र ही मोक्ष के लिये पर्याप्त है। मोक्ष की प्राप्ति तीनों के सम्मिलित सहयोग से ही सम्भव है। उमास्वामी के ये कथन इसके प्रमाण कहे जा सकते हैं –

सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्ष मार्गः।

जैन-दर्शन में सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चरित्र को ‘त्रिरत्न” के नाम से सम्बोधित किया जाता है। यही मोक्ष के मार्ग हैं।

सम्यक् दर्शन

सत्य के प्रति श्रद्धा की भावना को रखना ‘सम्यक् दर्शन’ कहा जाता है। कुछ व्यक्तियों में यह जन्मजात रहता है। कुछ लोग अभ्यास तथा विद्या द्वारा सीखते हैं। सम्यक् दर्शन का अर्थ अन्धविश्वास नहीं । जैनों ने तो स्वयं अन्धविश्वास का खंडन किया है। उनका कहना है कि एक व्यक्ति सम्यक् दर्शन का भागी तभी हो सकता है जब उसने अपने को भिन्न भिन्न प्रकार के प्रचलित अन्धविश्वासों से मुक्त किया हो। साधारण मनुष्य की यह धारणा कि नदी में स्नान करने से मानव पवित्र होता है, तथा वृक्ष के चारों ओर भ्रमण करने से मानव में शुद्धता का संचार होता है, प्रामक है। जैनों ने इस प्रकार अन्धविश्वासों के उन्मूलन का सन्देश दिया है। अतः सम्यक् दर्शन का अर्थ बौद्धिक विश्वास है।

सम्यक् ज्ञान

सम्यक् ज्ञान उस ज्ञान को कहा जाता है जिसके द्वारा जीव और अजीव के मूल तत्त्वों का पूर्ण ज्ञान होता है। जीव और अजीव के अन्तर को न समझने के फलस्वरूप के बन्धन का प्रादुर्भाव होता है जिसे रोकने के लिए ज्ञान आवश्यक है। यह ज्ञान संशयहीन तथा दोष रहित है। सम्यक ज्ञान की प्राप्ति में कुछ कर्म बाधक प्रतीत होते हैं। अत: उनका नाश करना आवश्यक है, क्योंकि कर्मों के पूर्ण विनाश के पश्चात् ही सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति की आशा की जा सकती है।

सम्यक् चरित्र

हितकर कार्यों का आचरण और अहितकर कार्यों का वर्जन हो सम्यक चरित्र कहलाता है। मोक्ष के लिए तीर्थंकरों के प्रति श्रद्धा तथा सत्य का ज्ञान हो पर्याप्त नहीं है, बल्कि अपने आचरण का संयम भी परमावश्यक है। सम्यक चरित्र व्यक्ति को मन, वचन और कर्म पर नियंत्रण करने का निर्देश देता है। जैनों के मतानुसार सम्यक चरित्र के पालन से जीव अपने कर्मों से मुक्त हो जाता है। कर्म के द्वारा ही मानव दुःख और बन्धन का सामना करता है। अत: कर्मों से मुक्ति पाने का अर्थ है बन्धन और दुःख से छुटकारा पाना मोक्ष मार्ग में सबसे महत्त्वपूर्ण चीज सम्यक् चरित्र ही कही जा सकती है।

सम्यक् चरित्र के पालन के लिए निम्नलिखित आचरण आवश्यक है व्यक्ति के विभिन्न प्रकार की समिति का पालन करना चाहिए। समिति का अर्थ साधारणतः सावधानी कहा जा सकता है। जैनों के मतानुसार समितियाँ पाँच प्रकार की है।

  • ईय समिति हिंसा से बचाने के लिए निश्चित मार्ग से जाना |
  • भाषा समिति नम्र और अच्छी बाणी बोलना |
  • एवणा समिति उचित भिक्षा लेना |
  • आदान-निक्षेपण समिति चीजों को उठाने और रखने में सतर्कता |
  • उत्सर्ग समिति-शून्य स्थानों में मल-मूत्र का विसर्जन करना।

मन, वचन तथा शारीरिक कर्मों का संयम आवश्यक है। जैन इन्हें ‘गुप्ति’ कहते हैं। ‘गुप्त’ तीन प्रकार की होती हैं –

  • कायगुप्ति शरीर का संयम |
  • वाग-गुप्ति-वाणी का नियंत्रण |
  • मनो गुप्ति-मानसिक संयम |

इस प्रकार गुप्ति का अर्थ है स्वभाविक प्रवृत्तियों पर रोक दस प्रकार के धर्मों का पालन करना जैनों के अनुसार अत्यावश्यक माना गया है। दस धर्म ये हैं सत्य, क्षमा, शोच, तप, संयम, त्याग, विरक्ति, मार्दव, सरलता और ब्रह्मचर्य जीव और सजीव के स्वरूप र विचार करना आवश्यक है। चिन्तन के लिए जैनों ने बारह भावों की ओर संकेत किया है, जिन्हें ‘अनुप्रेक्षा’ कहा जाता है।

सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास आदि से प्राप्त दुःख के सहन करने की योग्यता आवश्यक है। इस प्रकार के तप को ‘परीषह’ कहा जाता है।

पंच महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह) का पालन करना आवश्यक है। कुछ जैनों ने पाँच महाव्रत का पालन ही सम्यक् चरत्रि के लिए पर्याप्त माना है। इस प्रकार पंच महाव्रत सभी आचरणों से महत्वपूर्ण माना गया है। पंच महाव्रत का पालन बौद्ध धर्म में भी हुआ है।

बौद्ध धर्म में इसे ‘पंचशील’ को संज्ञा से विभूषित किया गया है। उपरोक्त कर्मों को अपनाकर मानव मोक्षानुभूति के योग्य हो जाता है। कर्मों का आश्रय जीव में बन्द हो जाता है तथा पुराने कर्मों का क्षय हो जाता है। इस प्रकार जीव अपनी स्वाभाविक अवस्था को प्राप्त करता है।

यही मोक्ष है। मोक्ष का अर्थ सिर्फ दुःखों का विनाश नहीं है, बल्कि आत्मा के अनन्त चतुष्टय अर्थात् अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति, अनन्त-दर्शन और अनन्त आनन्द की प्राप्ति भी है। इस प्रकार जैनों के अनुसार अभावात्मक और भावात्मक रूप से मोक्ष की व्याख्या की जा सकती है। जिस प्रकार मेघ के हटने से आकश में सूर्य आलोकित होता है, उसी प्रकार मोक्ष की अवस्था में आत्मा अपनी पूर्णताओं को पुनः प्राप्त कर लेती हैं।

आपको हमारी यह post कैसी लगी नीचे कमेन्ट करके अवश्य बताएं |

यह भी जाने

जैन दर्शन में जीव सम्बन्धी विचार क्या हैं ?

जिस सत्ता को अन्य भारतीय दर्शनों में साधरणतया ‘आत्मा’ कहा गया है उसी को जैन दर्शन में ‘जीव’ की संज्ञा दी गयी है। वस्तुतः जीव और आत्मा एक ही सत्ता के दो भिन्न-भिन्न नाम हैं। जैनों के मतानुसार चेतन द्रव्य को जीव कहा जाता है। चैतन्य जीव का मूल लक्षण है। यह जीव में सर्वदा विद्यमान रहता है। चैतन्य के अभाव में जीव की कल्पना करना भी सम्भव नहीं है।

जैन धर्म के अनुसार जीव की क्या परिभाषा है ?

जीव की परिभाषा इन शब्दों में दी गई है। (चेतना-लक्षणों जीव:) जैनों का जीव सम्बन्धी यह विचार न्याय-वैशेषिक के आत्मा-विचार से भिन्न है। आत्मा उनके अनुसार स्वभावतः अचेतन है। परन्तु शरीर, इन्द्रिय, मन आदि से संयुक्त होने पर आत्मा में चैतन्य का संचार होता है। परन्तु जैनों ने बैतन्य को आत्मा का स्वभाव माना है।

सम्यक् दर्शन क्या है ?

सत्य के प्रति श्रद्धा की भावना को रखना ‘सम्यक् दर्शन’ कहा जाता है।

मोक्ष में बंधन कितने प्रकार के होते हैं ?

मोक्ष में बंधन दो प्रकार का होता है-
भाव बन्ध
द्रव्य बन्ध


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *