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भारत के परम्परागत वस्त्र एवं वेषभूषा | Traditional clothes and costumes of India in Hindi
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भारत के परम्परागत वस्त्र एवं वेषभूषा (Traditional clothes and costumes of India)
भारत के परम्परागत वस्त्रों में से कुछ वस्त्र जिनकी प्रसिद्धि विश्व के कोने-कोने में थीं, वे निम्न प्रकार के हैं-
बंगाल
1. ढाका की मलमल – ढाका जो पूर्व भारत की ही एक अंग था, अब बांग्लादेश की राजधानी हो गया है। यहां विश्व की सबसे सूक्ष्म एवं बारीक मलमल के वस्त्र बनाये जाते थे, जिसके समान आज तक वैसा मलमल वस्त्रों का निर्माण विश्व के किसी भी देश से नहीं हो पायी है।
ढाका के मलमल के बारे में ऐसा कहा जाता है कि पूरे थान को केवल एक छोटी सी अंगूठी में से निकाला जा सकता है। इसी तरह एक और कहावत है कि ढाका की मलमल के पूरे थान को दियासलाई की डिब्बी में रखा जा सकता था। पूरे मेहनत एवं लगन के साथ यदि बुनकर काम करता था तो वह केवल 5 गज वस्त्र ही 5 महीने में बुन कर तैयार कर पाता था। वस्त्रों के गुण, उसकी सुन्दरता, अलौकिकता एवं उत्कृष्टता के आधार पर कलाकार उन्हें कई प्रकार के सुन्दर-सुन्दर नामों से अंलकृत करते थे। जैसे— आब-ए-खां या बहता पानी, वफ्ते हवा यानि हवा से भी हल्का शबनम (ओस) मलमल खास । यह सभी वस्त्र ढाका ही मलमल के विभिन्न प्रकार है।
ढाका की सबसे महीन मलमल, मलमल खास है। इसमें इसकी बानों की संख्या, 1,000 से 1,800 तक हुआ करती थी ।
2. ढाका की साड़ियाँ – ढाका की मलमल की तरह ही ढाका की साड़ियाँ विश्व में काफी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी है। यहां की साड़ियाँ कला के उत्कृष्ट नमूने होती थी। ये साड़ियाँ अत्यन्त हल्की बारीक कोमल एवं सूक्ष्म धागों से निर्मित होती थी। जिसकी सुन्दरता ऐश्वर्यता एवं अलौकिकता की बराबरी की कोई दूसरी साड़ियां नहीं थी। सोने-चाँदी के तारों से जड़ी ये साड़ियां “जामदानी” कहलाती थी । ढाका की साड़ियों में बोर्डर पर पशु-पक्षी, मोर, हंस, उड़ती चिड़िया, कृत्य करती मानव आकृतियाँ आदि के नमूने बने होते हैं इन्हीं सोने-चाँदी के तारों से बने हुए नमूने बने होते हैं, इन्हीं सोने-चाँदी के तारों से बने हुए नमूने युक्त, साड़ियों को जामदानी कहा जाता था। जामदानी काफी लोकप्रिय थी।
ढाका की साड़ियों पर विभिन्न आकार-प्रकार के नमूने बनाये जाते थे। जब साड़ियों पर तिरछी लाइनें डालकर नमूने बनाये जाते थे। जब साड़ियों पर तिरछी लाइने डालकर नमूने बनाये जाते थे। तो इसे ‘तेरछा’ कहा जाता था। जब साड़ी के सम्पूर्ण भाग पर ‘बूटे’ बनाये जाते थे तो इसे “बूटेदार” साड़ियाँ कही जाती थी । “पन्ना हजारे” यहाँ की काफी प्रसिद्ध साड़ियाँ थी। फूलों के गुच्छे वाले नमूनों की साड़ियाँ ही “पन्ना हजारे” कहलाती थी। फूलों के जाल वाले नमूने से व्यक्त साड़ियाँ “जतार” कहलाती थी। ‘छोटे-छोटे फूल-पत्तियों वाली डिजाईन वाली साड़ियाँ “फुलवार” तथा बड़े-बड़े फूल पत्तियों वाली नमूने से बनी साड़ियाँ “तारेदार” कहलाती थी। साड़ियों के आंचल एवं बोर्डर अत्यन्त ही सुन्दर-सुन्दर नमूनों से सजे होते थे।
वर्तमान समय में भी ढाका में साड़ियाँ बनती हैं पर अब उनमें पहले की तरह विशेष आकर्षण सुन्दरता एवं अलौकिकता देखने को नहीं मिलती है।
3. चंदेरी साड़ियाँ – मध्य प्रदेश के ग्वालियर के पास चंदेर स्थान में निर्मित साड़ियाँ कहलाती है। चंदेरी साड़ियाँ चंदेरी साड़ियाँ कहलाती है। चंदेरी साड़ियाँ अपनी बारीख सूक्ष्मता, कोमलता एवं उत्कृष्टता के लिये सम्पूर्ण विश्व प्रसिद्ध थी।
चंदेरी साड़ियाँ अधिकांशतः सूती होती है जिससे बोर्डर एवं आंचल पर सिल्क अथवा सुनहरी धागों से सुन्दर-सुन्दर नमूने बने होतें हैं जो दोनों ओर से दो अलग-अलग रंगों अथवा एक ही रंग के सिल्क के धागों से निर्मित होते हैं। कुछ चंदेरी साड़ियों की लम्बाई व मीटर तक रखी जाती है जिसे महाराष्ट्र की महिलायें अत्यधिक पसन्द करती है। आजकल चंदेरी साड़ियों की लम्बाई व मीटर तक रखी जाती है जिसे महाराष्ट्र की महिलायें अत्यधिक पसन्द करती हैं। आजकल चंदेरी साड़ियां पूरी तरह से रेशमी धागे से बनायी जाती है है जिसे “चंदेरी सिल्क साड़ी” कहते हैं।
इसकी सुन्दरता, ऐश्वर्यता, अलौकिकता एवं कोमलता देखते ही बनती है। आज भी चंदेरी में अत्यन्त सुन्दर आकर्षक एवं कलात्मक साड़ियाँ बनती है। जिनके बोर्डर एवं पल्लू के नमूने अत्यन्त सुन्दर होते हैं।
4. बालूचर साड़ियाँ — मुर्शिदाबाद के समीप बोलूचर स्थान में निर्मित होने वाली साड़ियों “बालूचर बूटीदार साड़ियाँ” कहलाती थी। इन साड़ियों के मध्य भाग में छोटे-छोटे बूटे अथवा अन्य छोटे-छोटे नमूने होते थे, जैसे— फूल-पत्ती, पशु-पक्षी मानव आकृतियाँ आदि से साड़ियाँ हस्तकरघा से तैयार की जाती थी जिसकी बोर्डर एवं पल्लू पर उत्कृष्ट नमूने बने होते हैं। बालूचर की साड़ियों में मुगलकाल का प्रभाव भी झलकता था जैसे— फूल सुंघती बेगम, हुक्का पीते सामंत, पारसी-ईरानी परिधानों में घोड़े पर सवार सामंत नृत्य करती।
मानव-आकृतियाँ इत्यादि। बालूचर साड़ियों का अत्यधिक उपयोग हिंदू स्त्रियों द्वारा किया जाता था। आजकल बालूचर बूटीदार साड़ियाँ विलुप्त हो गई है। परन्तु इन्हें अभी भी संग्रहालयों में सुरक्षित देखा जा सकता है।
आज भी बालूचर में सुन्दर एवं आकर्षक साड़ियाँ बनती है परन्तु पहले की साड़ियों की तरह आज की साड़ियों में सौन्दर्य एवं आकर्षण देखने को नहीं मिलती है। गुजरात के परम्परागत पटोला एवं बांधनी हैं-
5. पटोला – काठियावाड़ एवं गुजरात में निर्मित साड़ियाँ “पटोला” कलाती थी। काठियावाड़ के निकट “पट्टन” नामक स्थान को ही “पटोला” का जन्म स्थान माना जाता है। पटोला साड़ियां शादी-विवाह के शुभ अवसर विशेष रूप से पहनी जाती थी। इसकी प्रसिद्धि दूर- दूर के देशों तक विख्यात थी। आज भी गुजरात में पटोला साड़ियाँ तैयार की जाती है। जिसे स्त्रियाँ शादी-विवाह के शुभ अवसर पर विशेष उत्साह एवं उल्लास के साथ पहनती है। आज तक पटोला वस्त्रों का निर्माण भारत के अन्य स्थानों जैसे- सूरत, बम्बई, अहमदाबाद एवं उड़ीसा में भी होने लगा है सम्बलपुर की साड़ियां भी पटोला, डिजाइन के आधार पर बनने लगी है। साड़ियों के अलावा चुन्नी, पर्दे चादर, बेडशीट आदि भी इस तकनीक से बनाये जाने लगे हैं।
पटोला वस्त्र में मुख्य रूप से परम्परागत नमूने ही बनाये जाते थे, जैसे— नृत्य करती स्त्रियाँ फूल पत्तियां टोकरी, हाथी, घोड़ा, डायमण्ड, पक्षी इत्यादि। नमूने के आधार पर पटोला को भी विभिन्न नामों से अलंकृत किया गया है। जैसे-
1. फुलवारी फूलों के गुच्छे वाले नमूनों को फुलवारी कहा जाता
2. बाघ कुंजर, 3. नारी-कुंजर कहा जाता है।
6. बाँधनी – प्राचीन समय से ही बांधनी की साड़ियाँ, चुनरी ओढ़नी चादरें आदि काफी प्रसिद्ध थी। बांधनी का कार्य मुख्यतः गुजरात, राजस्थान, काठियावाड़ एवं सिंहा में होता था। राजस्थान की “बाधनी” की साड़ियां एवं चुनरी बहुत ही लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध थी। इसकी प्रसिद्धि विश्व के दूर-दूर के देशों में फैली हुई थी। आजकल ‘बांधनी” कला से वस्त्रों की सुभारत के अन्य स्थानों में भी होने लगा है।
“बांधनी” साड़ियाँ शादी-विवाह के अवसरों पर अत्यधिक उल्लास एवं उत्साह के साथ पहना जाता है। इन साड़ियाँ को विवाहिता के लिए मंगलमय एवं सौभाग्यसूचक व शुभ माना जाता है। रंग-बिरंगे चटकील एवं तेज रंगों से सजे बांधनी साड़ियां तरुणाई एवं उल्लास के प्रतीक माने जाते हैं।
7. ब्रोकेड— “ब्रोकेड” अंग्रेजों के द्वारा दिया गया सामूहिक वस्त्रों का नाम है। प्रारम्भ में ब्रोकेड वस्त्रों को “कम रत्वाव” ही कहा जाता ता । ब्रोकेड वस्त्रों की सम्पूर्ण सतह रेशमी धाग से निर्मित होती थी तथा सोने-चांदी के तारों से इस प्रकार के सजाया जाता था इसकी भीतरी सतह पूरी छिप जाती थी तथा उत्तरी सतह पर सुनहरे नमूने ही दिखाई देते थे। ब्रोकेड वस्त्र काफी बहुमूल्य होते थे।
8. रुचि के अनुरूप वस्त्रों का चयन- व्यक्तियों की अपनी अपनी पसन्द होती है। कुछ व्यक्ति जार्जेंट व सूती वस्त्र अधिक पसन्द करते हं जबकि कुछ ब्रोकेड व रेशमी वस्त्र पहनना अच्छा समझते हैं।
9. वस्त्र की मजबूती- वस्त्र का चयन करते समय मजबूती एवं टिकाऊपन को भी देख लेना जरूरी है। मजबूत वस्त्र हही ज्यादा दिन तक अच्छी सेवाएं दे सकते हैं तथा इन पर लगाया गया सामन्त धन की सही उपयोग हो पाता है। वस्त्र खरीदते समय इसकी रचना पर पूरा बल देना चाहिए। ताने-बाने के धाके पास-पास, घने-घने और सटे होने चाहिए। वस्त्र मजबूत होने के साथ-साथ कोलम भी होनी चाहिए ताकि पहनने पर त्वचा को सुखद एवं आरामदायक लगे।
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