रीतिकालीन काव्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ | हिन्दी निबंध |
नमस्कार दोस्तों हमारी आज के post का शीर्षक है रीतिकालीन काव्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ | हिन्दी निबंध | उम्मीद करतें हैं की यह आपकों अवश्य पसंद आयेगी | धन्यवाद |
Table of Contents
रूपरेखा
- रीतिकाल का नामकरण
- रीतिकाल प्रारम्भ होने का कारण
- रीतिकाल की विशेषताए-
- रीतिप्रधान
- श्रृंगार प्रधान
- कलाप्रधान
- संगीत प्रधान
- वीर, भक्ति एवं नीति काव्य तथा प्रकृति चित्रण
- उपसंहार
रीतिकाल का नामकरण
हिन्दी साहित्य के इतिहास के विभाजन के अनुसार संवत् 1700 से 1900 तक का समय रीतिकाल अन्तर्गत आता है।
इसके पूर्व भक्ति काव्य लिखा गया था, जिसमें शृंगार और भक्ति का ऐसा सम्मिश्रण हो गया था कि से पृथक नहीं हो सकते थे।
भक्तिकाल के कवियों का शृंगार वर्णन प्रगाढ़ भक्ति का परिचायक था। बहुत सी वस्तुयें साधन रूप में अच्छी होती परन्तु जब वे ही साध्य बन जाती तब उनमें सारहीनता आ जाती है।
शृंगार की मंदिरा ने भक्तिकाल में रसायन का काम किया था, परन्तु बाद समय वही व्यसन बन गई।
राधा और कृष्ण नायक और नायिका के रूप में दिखलाए जाने भक्तिकाल की “स्वान्तः सुखाय” के उद्देश्य से होती थीं, परन्तु बाद कविता राजदरबार की वस्तु बन गई।
अपनी विद्वत्ता कला-कौशल से अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करना ही कवियों का एकमात्र उद्देश्य रह गया। एक विशेष रीति पर लोग चल रहे थे, रीति का अर्थ मार्ग या शैली कविता में विषय वैविध्य कम था, कविता का अर्थ एक बंधी हुई लकीर पर चलना छोड़कर चलना पसन्द नहीं करते थे।
कवियों की समस्त शक्ति अलंकार, रस, ध्वनि, नायिका भेद आदि के निरूपण में ही केन्द्रित थी और इसी को कवियों कवि धर्म पालन का प्रमुख मार्ग बना लिया था, जिस पर चलने के कारण ही वह रीतिकाल कहलाया |
रीतिकाल प्रारम्भ होने के कारण
भक्तिकाल की कविता के संग्रह में अलंकार आदि स्वयं बहे चले जाते थे।
संस्कृत भाषा अलंकारों और काव्यांगों पर पर्याप्त विवेचन हो चुका था। उसकी उत्तराधिकारिणी हिन्दी में भी उनका विवेचन आवश्यक था। लक्ष्य ग्रन्थों के बाद लक्षण ग्रन्थ लिखे जाते हैं।
हिन्दी में ग्रन्थ बहुत लिखे जा चुके थे। लक्षण ग्रन्थों की कमी थी। समय के अनुसार साहित्य की ओर प्रवृत्ति होना स्वाभाविक था।
हिन्दी के कवियों ने संस्कृत के अलंकार ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया और उनके आधार पर रचनायें प्रस्तुत रीतिकाल के आविर्भाव के कुछ अन्य भी कारण थे।
हिन्दी राज दरबारों में आश्रय प्राप्त कर चुकी थी। अपने आश्रयदाताओं को अपनी विद्वत्ता के आधार पर प्रसन्न करना कवियों का एकमात्र ध्येय रह गया था।
पांडित्य प्रदर्शन तथा आचार्यत्व प्राप्त करने की महत्त्वाकांक्षा भी कवियों में बढ़ती जा रही थी।
रीतिकाल की विशेषताएं
रीतिप्रधान
रीतिकाल की प्रमुख विशेषता रीतिप्रधान रचनायें हैं। तत्कालीन कवियों ने भामह, दण्डी, मम्मट, विश्वनाथ आदि काव्याचार्यों के ग्रन्थों का गहन अध्ययन करके हिन्दी साहित्य को रीति ग्रन्थ प्रदान किए।
इन ग्रन्थों में रस, अलंकार, ध्वनि आदि का विवेचन, लक्षण और उदाहरण शैली में किया गया है।
एक दोहे में रस, अलंकार आदि का लक्षण कहकर, कवित्त या सवैये में उदाहरण प्रस्तुत कर दिया जाता था। आचार्य केशवदास, मतिराम, देव, चिन्तामणि, भूषण, जसवन्त सिंह, पद्माकर, बेनी और बिहारी आदि इसी परम्परा के प्रमुख कवि थे।
इन्होंने काव्यांगों का पूर्ण विवेचन किया, परन्तु शब्द-शक्ति पर यथोचित विवेचन प्रस्तुत न कर सके, विषय वैविध्य भी कम रहा।
श्रृंगार प्रधान
इस काल शृंगार रस की प्रधानता थी। शृंगार के आलम्बन और उद्दीपनों के बड़े सरस में उदाहरण बनाये गये।
ये लोग शृंगार को रसराज मानते थे, उनका जीवन विलासितापूर्ण था। कवियों ने स्त्री सौन्दर्य का बड़ा सूक्ष्म चित्रण किया।
रोतिकालीन साहित्य का वातावरण सौरभमय था, उसमें विलासमयी मादकता थी, राजदरबारों की गुलगुली गिलमें और गलीचों के विलासमयी जीवन को स्पष्ट छाप थी।
उसमें प्रभात के खिले हुए पुष्पों की स्फूर्तिदायिनी सुगन्ध तो न थी, परन्तु शीशी में बन्द इत्र का मादक सौरभ था। उस साहित्य में सुलाने की शक्ति अधिक थी, जगाने की कम |
कलाप्रधान
अकबर और शाहजहाँ के शासनकाल में ललित कलाओं की पर्याप्त उन्नति हुई। इससे जनता को अभिरुचि भी परिष्कृत हुई। रौतिकाल के कवियों में कला-प्रेम की प्रधानता थी।
मनोहर रूप और दृश्यों के चित्रण में, चमत्कारपूर्ण कल्पना की उड़ान में, अलंकारप्रियता में, उनकी कलाप्रियता के दर्शन होते हैं।
बिहारी का एक-एक दोहा उत्कृष्ट काव्य-कला का उदाहरण हो सकता है। पद्माकर, देव, मतिराम, बिहारी उस काल के उच्चकोटि के कलाकार थे।
राजदरबारों के आश्रय ने कवियों में कलाप्रियता की वृद्धि की थी। लोग दूर की कौड़ी लाने में सिद्धहस्त थे। वास्तव में काव्य-कला का विकास रीतिकाल में सबसे अधिक हुआ।
इस युग की भाषा तो इतनी सुगठित और मार्मिक थी कि अन्य किसी काल के कवि इनकी समानता न कर सके। भाषा के क्षेत्र में पद्माकर अद्वितीय थे।
संगीतप्रधान
संगीतात्मकता भी इस युग की विशेषता थी।
कवि लोग मधुर और कोमल कांत पदावली का प्रयोग करते थे। अनुप्रास आदि शब्दालंकारों की सहायता से पद्य संगीतमय बन जाता था।
राज-दरबारों में श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो जाते थे। मतिराम के इस पद्य में मधुरता और संगीतमयता का समन्वय देखिये-
कुन्दन को रंग फीका लगे, झलक, तन पै अरु चारूगी गुराई।
आँखिन में अलसानि, चितौनि में मंजु बिलासनि सरसाई ।।
को बिनु मोल विकात नहीं, मतिराम लखे मुस्कानि मिठाई।
ज्यों-ज्यों निहारिए नेरे है नैननि त्यों-त्यों खरी निखर सी निकाई ॥
वीर, भक्ति एवं नीति काव्य तथा प्रकृति चित्रण
रीतिकाल में केवल शृंगारप्रधान कवितायें ही नहीं लिखी गई, अपितु इसके समानान्तर अन्य धारायें भी अपनी उन्मत्त गति से प्रवाहित होती रहीं, परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रधानता शृंगार रस की ही थी।
रीतिकालीन कवियों ने शृंगार के साथ-साथ वीर काव्य भी लिखा। भूषण ने यदि छत्रपति शिवाजी की वीरता तथा युद्ध कौशल की प्रशंसा की तो सदन ने भरतपुर के जाट राजा सूरजमल की।
ये वीर रस प्रधान कवितायें एक बार तो शव में भी जान डाल देने वाली थीं— चाहे साहित्यिक दृष्टि से, चाहे व्यावसायिक दृष्टि से। यदि देखा जाये तो यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि रीतिकालीन कवि अपने व्यक्तिगत जीवन में भक्त भी थे।
शृंगारिक कविता के साथ-साथ इनकी भक्ति भावना भी चलती रही। कृष्ण वन्दना के साथ दुर्गा जी, शिव, राम आदि देवी-देवताओं की भी इन्होंने स्तुति की है।
रीतिकाल के कवियों ने नीति और उपदेशपूर्ण रचनायें भी कीं। अपने सांसारिक जीवन के अनुभवों के आधार पर उन्होंने सूक्तियाँ बहुत कही हैं। बिहारी का एक नीति-पूर्ण दोहा देखिये
बढ़त बढ़त सम्पत्ति सलिल, मन सरोज बढ़ि जाए।
घटत घटत पुनि ना घटे, बरु समूल कुम्हिलाए ॥
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से मनुष्य की मानसिक स्थिति का इस दोहे में बड़ा सुन्दर चित्र खींचा गया है। अधिक जल आने पर जल का स्तर ऊँचा उठने के साथ कमल डंठल से ऊपर उठता जाता है, परन्तु जैसे ही धीरे-धीरे जल कम होता जाता है, वह नीचे नहीं उतरता अपितु जड़ सहित नष्ट हो जाता है।
ठीक इसी प्रकार धन अधिक होने के साथ मनुष्य की कामनाएं बढ़ती जाती हैं किन्तु दुर्भाग्यवश धन क्षीण होने पर इच्छाएँ, कामनाएँ और आवश्यकताएँ घटती नहीं उसको विनाश की ओर ले जाती हैं।
गिरधर कवि ने भी अपनी नीतिपूर्ण अन्योक्तियों द्वारा जनता का अच्छा हित साधन किया है। इसी प्रकार हास्य रस के भी उदाहरण मिलते हैं।
रीतिकालीन काव्य में साधारण हास्य से लेकर गम्भीर व्यंग्यपूर्ण हास्य तक विद्यमान है। इस काल में प्रकृति वर्णन भी एक परम्परागत शैली में हुआ, इसमें नवीनता का अभाव है। चन्द्र, कमल, पुष्प आदि उपकरण जिस प्रकार इनमें पूर्व में उपमान रूप में प्रस्तुत होते थे, उसी प्रकार इन कवियों ने भी उन्हें चित्रित किया।
रीतिकाल में केवल सेनापति ही ऐसे कवि हुए, जिन्होंने प्रकृति वर्णन में सहृदयता और मौलिकता का परिचय दिया।
उपसंहार
लगभग दो सौ वर्षों तक रीति प्रधान रचनायें होती रहीं। शृंगार की प्रधानता होते हुए भी मानव-जीवन की भिन्न-भिन्न वृत्तियों का निरूपण किया गया।
शास्त्रीय दृष्टिकोण उन रचनाओं से में भावपक्ष एवं कलापक्ष का अपूर्व समन्वय था। हास्य और व्यंग्य के साथ नीति के उपदेश, शृंगार के साथ भक्ति भावना का प्रवाह, संगीत और काव्य कला के साथ रीति काव्यों की गहनता की त्रिवेणी के दर्शन हमें रीतिकाल में होते हैं।
रीतिकाल हिन्दी काव्य के चरमोत्कर्ष एवं सर्वांगीण विकास का युग था, इसमें कोई सन्देह नहीं ।
आपको हमारी यह post कैसी लगी नीचे कमेन्ट करके अवश्य बताएं |
यह भी जाने
- सूरदास और उनकी भक्ति भावना | हिन्दी निबंध |
- ” हिन्दी-साहित्य के इतिहास ” पर एक दृष्टि | हिन्दी निबंध |
- जगन्नाथ दास रत्नाकर का जीवन परिचय | हिन्दी निबंध | JAGANNTH DAS RATNAKAR |
- आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी | हिन्दी निबंध | ACHARYA MAHAVIR PRASAD DVIVEDI |
- महादेवी वर्मा का जीवन परिचय | हिन्दी निबंध | MAHADEVI VERMA |
- रीतिकालीन काव्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ | हिन्दी निबंध |
- राष्ट्रभाषा हिन्दी पर निबंध | RASHTRA BHASHA HINDI PAR NIBANDH |
- हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग | भक्तिकाल | Bhaktikal |
- सुभद्रा कुमारी चौहान | हिन्दी निबंध | SUBHADRA KUMARI CHAUHAN |
- पं० प्रताप नारायण मिश्र का जीवन परिचय | हिन्दी निबंध | PT. PRATAP NARAYAN MISHRA KA JIVAN PARICHAY |
रीतिकाल का नामकरण कैसे हुआ ?
इसके पूर्व भक्ति काव्य लिखा गया था, जिसमें शृंगार और भक्ति का ऐसा सम्मिश्रण हो गया था कि से पृथक नहीं हो सकते थे।
भक्तिकाल के कवियों का शृंगार वर्णन प्रगाढ़ भक्ति का परिचायक था। बहुत सी वस्तुयें साधन रूप में अच्छी होती परन्तु जब वे ही साध्य बन जाती तब उनमें सारहीनता आ जाती है।
शृंगार की मंदिरा ने भक्तिकाल में रसायन का काम किया था, परन्तु बाद समय वही व्यसन बन गई।
राधा और कृष्ण नायक और नायिका के रूप में दिखलाए जाने भक्तिकाल की “स्वान्तः सुखाय” के उद्देश्य से होती थीं, परन्तु बाद कविता राजदरबार की वस्तु बन गई।
अपनी विद्वत्ता कला-कौशल से अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करना ही कवियों का एकमात्र उद्देश्य रह गया। एक विशेष रीति पर लोग चल रहे थे, रीति का अर्थ मार्ग या शैली कविता में विषय वैविध्य कम था, कविता का अर्थ एक बंधी हुई लकीर पर चलना छोड़कर चलना पसन्द नहीं करते थे।
कवियों की समस्त शक्ति अलंकार, रस, ध्वनि, नायिका भेद आदि के निरूपण में ही केन्द्रित थी और इसी को कवियों कवि धर्म पालन का प्रमुख मार्ग बना लिया था, जिस पर चलने के कारण ही वह रीतिकाल कहलाया |
रीतिकाल प्रारम्भ होने के कारण क्या था ?
संस्कृत भाषा अलंकारों और काव्यांगों पर पर्याप्त विवेचन हो चुका था। उसकी उत्तराधिकारिणी हिन्दी में भी उनका विवेचन आवश्यक था। लक्ष्य ग्रन्थों के बाद लक्षण ग्रन्थ लिखे जाते हैं।
हिन्दी में ग्रन्थ बहुत लिखे जा चुके थे। लक्षण ग्रन्थों की कमी थी। समय के अनुसार साहित्य की ओर प्रवृत्ति होना स्वाभाविक था।
हिन्दी के कवियों ने संस्कृत के अलंकार ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया और उनके आधार पर रचनायें प्रस्तुत रीतिकाल के आविर्भाव के कुछ अन्य भी कारण थे।
हिन्दी राज दरबारों में आश्रय प्राप्त कर चुकी थी। अपने आश्रयदाताओं को अपनी विद्वत्ता के आधार पर प्रसन्न करना कवियों का एकमात्र ध्येय रह गया था।
पांडित्य प्रदर्शन तथा आचार्यत्व प्राप्त करने की महत्त्वाकांक्षा भी कवियों में बढ़ती जा रही थी।
रीतिकाल की विशेषताएं क्या थी ?
श्रृंगार प्रधान
कलाप्रधान
संगीत प्रधान
वीर, भक्ति एवं नीति काव्य तथा प्रकृति चित्रण