राष्ट्रभाषा हिन्दी पर निबंध | RASHTRA BHASHA HINDI PAR NIBANDH |
नमस्कार दोस्तों हमारी आज के post का शीर्षक है राष्ट्रभाषा हिन्दी पर निबंध | RASHTRA BHASHA HINDI PAR NIBANDH | उम्मीद करतें हैं की यह आपकों अवश्य पसंद आयेगी | धन्यवाद |
Table of Contents
रूपरेखा
- स्वंतत्रता प्राप्ती से पूर्व
- स्वंतत्रता प्राप्ती के पश्चात
- हिन्दी की विशेषताएं
- राष्ट्र भाषा के पद पर आसीना होना
- कुछ बाधाएं
- उनके कारण
- उपसंहार
स्वंतत्रता प्राप्ती से पूर्व
भारतवर्ष की पवित्र भूमि विदेशियों से पदाक्रान्त हुई। उन्हीं के रीति-रिवाज और उन्हीं की सभ्यता को प्रधानता दी जाने लगी।
अंग्रेजी पढ़ने, बोलने और लिखने में भारतीय गौरव का अनुभव करते थे। राज्य के समस्त कार्यों की भाषा अंग्रेजी ही थी ।
न्यायालयों के निर्णय, दफ्तरों की कागजी कार्यवाही, विश्वविद्यालयों की शिक्षा, शासकीय आज्ञाएँ सभी कुछ अंग्रेजी में होता था।
हिन्दी में लिखे गये प्रार्थना-पत्रों को फाड़कर रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाता था।
बेचारे भारतीय विवश होकर अच्छी नौकरी एवं शासन के मान की लालसा से अंग्रेजी पढ़ते थे। संस्कृत को तो ‘मृतभाषा’ की उपाधि प्रदान कर दी गई थी। एक प्रवाह था, एक धूम मची हुई थी, सारे देश में अंग्रेजी की |
स्वंतत्रता प्राप्ती के पश्चात
परन्तु देश के भाग्य ने पलटा खाया, भारतीय साधकों की साधनायें फलीभूत हुई।15 अगस्त, 1947 को देश को स्वाधीनता प्राप्त हुई।
जब तक देश में अंग्रेज थे तब तक अंग्रेजी का स्ववश या परवश आदर होता था। परन्तु उनके जाने के पश्चात् यह सर्वथा अनुचित था कि देश के सारे राजकाज अंग्रेजी में हो।
अतः जब देश का संविधान बनने लगा तब प्रश्न यह उपस्थित हुआ कि देश की अपनी राष्ट्रभाषा कौन-सी हो, क्योंकि बिना राष्ट्रभाषा के कोई भी देश स्वतन्त्र होने का दावा नहीं कर सकता।
राष्ट्रभाषा स्वतंत्र राष्ट्र की तथा उसके समाज की समृद्धि की आधारशिला होती है । रूस, जापान, अमेरिका, ब्रिटेन आदि स्वतन्त्र देशों में अपनी-अपनी हैं।
राष्ट्रभाषा राष्ट्रभाषायें से देश के स्वतन्त्र अस्तित्व की रक्षा होती हैं। संविधान निर्माण काल में कुछ ऐसे भी व्यक्ति थे, जो अंग्रेजी को ही राष्ट्रभाषा बनाये रखने के पक्ष में थे।
इस विचार के वे भारतीय थे, जो अंग्रेजी साहित्य में निपुण थे, ऊँचे-ऊँचे पदों पर आसीन थे और जिन्हें हिन्दी पढ़ना या लिखना बिल्कुल नहीं आता था।
कुछ लोग अन्य प्रान्तीय भाषाओं के भी पक्ष में थे। भारतवर्ष में लगभग सौ से अधिक भाषायें हैं जिनमें हिन्दी, उर्दू, गुजराती, मराठी, बंगाली, तमिल और तेलुगू आदि प्रमुख हैं।
हिन्दी की विशेषताएं
किसी देश की राष्ट्रभाषा वही हो सकती है जिसका अपने देश की संस्कृति, सभ्यता और साहित्य से गहरा सम्बन्ध हो ।
राष्ट्रभाषा बनने के लिए यह आवश्यक है कि उस भाषा को देश की अधिसंख्यक जनता बोलती तथा समझती हो, साथ ही उस भाषा का क्षेत्रीय भाषाओं के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध हो ।
भारत में लगभग 60करोड़ नागरिक हिन्दी भाषी हैं अतः हिन्दी के अतिरिक्त अन्य कोई भाषा राष्ट्रभाषा का स्थान नहीं पा सकती।
राष्ट्र भाषा के पद पर आसीन होना
संविधान सभा में इस विषय पर अत्यधिक वाद-विवाद चलता रहा। अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा इसलिये घोषित नहीं किया जा सकता था कि छत्तीस करोड़ भारतीयों में से एक करोड़ भी ऐसे नहीं थे जो आत्म-विश्वासपूर्वक अंग्रेजी बोल सकते हों, या लिख सकते हों।
पहली बात यह थी कि जिन विदेशियों के शासन को हमने मूलतः उखाड़ फेंका था, उनकी भाषा को यहाँ अपनाने का तात्पर्य यह था कि हम किसी-न-किसी रूप में उनकी दासता में फँसे रहें। परिणामस्वरूप अंग्रेजी का प्रश्न समाप्त हो गया।
अन्य प्रान्तीय भाषायें भी अपनी व्यापकता में हिन्दी से बहुत पीछे थीं।
हिन्दी के पक्ष में तर्क यह था कि सर्वप्रथम यह एक भारतीय भाषा है, दूसरी बात यह है कि जितनी संख्या हिन्दी भाषा-भाषी जनता की देश में है, उतनी अन्य किसी प्रान्तीय भाषा की नहीं।
तीसरी विशेषता यह है कि हिन्दी बोलने वालों की संख्या चाहे पन्द्रह करोड़ ही हो परन्तु समझने वालों की संख्या इससे कहीं अधिक है। देश के प्रत्येक अंचल में हिन्दी सरलता से समझी जाती है, भले ही लोग बोल न सकते हों।
चौथी बात यह कि हिन्दी भाषा अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में सरल है, इसमें शब्दों का प्रयोग तर्कपूर्ण है।
पाँचवीं विशेषता यह है कि इसकी लिपि वैज्ञानिक है और सुबोध है, जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी जाती है।
इसके अतिरिक्त सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक सभी प्रकार के कार्य व्यवहारों के संचालन की पूर्ण क्षमता है।
कुछ बाधाएं
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के अनुसार संघ की राजभाषा हिन्दी तथा लिपि देवनागरी होगी। अनुच्छेद 343(2) में संविधान के लागू होने से 15 वर्ष तक अंग्रेजी भाषा के प्रयोग को प्राधिकृत किया गया था।
अनुच्छेद 343(3) के द्वारा संसद को अधिकृत किया गया कि आवश्यक होने पर उपरोक्त अवधि के उपरान्त भी अंग्रेजी के प्रयोग को प्राधिकृत कर सकें। तदनुसार राजभाषा अधिनियम 1968 द्वारा यह उपबन्ध किया गया कि सभी राजकीय कार्यों में अंग्रेजी का प्रयोग 26जनवरी,1971 तक होता रहेगा।
परन्तु राजभाषा अधिनियम 1967 द्वारा जी के प्रयोग को अनिश्चित काल तक जारी रखने का प्रावधान किया गया। संविधान में जोड़ दिया गया कि जब तक एक भी राज्य चाहेगा अंग्रेजी केन्द्रीय सरकार की सम्पर्क भाषा बनी रहेगी।
इसका दुष्परिणाम है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के छः दशक बाद भी हिन्दी राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त नहीं कर सकी।
जनता जहाँ हिन्दी को आगे बढ़ाने में प्रयत्नशील थी, वहाँ ऐसे व्यक्तियों की भी कमी नहीं जो राष्ट्रभाषा की टॉग पकड़कर पीछे घसीटने का प्रयत्न करते रहे हैं।
ऐसे व्यक्तियों में कुछ ऐसे में भी हैं जो हिन्दी को संविधान के अनुसार सरकारी भाषा मानने को तैयार हैं, परन्तु राष्ट्रभाषा नहीं।
कुछ ऐसे भी हैं, जो उर्दू का निर्मूल पक्ष समर्थन करके राज्य कार्य में विघ्न डालते रहते हैं। उल्लेखनीय यह है कि जो सज्जन पहले हिन्दी का हृदय खोलकर समर्थन कर रहे थे उनमें भी विरोधी मुखरित हो उठे हैं।
राजा जी ने एक बार ये शब्द कहे थे,
“केन्द्रीय सरकार तथा कानून की भाषा और प्रान्तीय सरकारों के परस्पर तथा भारत सरकार के साथ व्यवहार की भाषा हिन्दी अवश्य स्वीकार करनी होगी।”
डॉक्टर चटर्जी ने 1943 में कहा था,
“विभिन्नता रहते हुए समस्त भारत की जड़ें अखण्ड हैं। भाषा और संस्कृति के क्षेत्र में इस सत्य का प्रतीक हिन्दी है।”
“संगच्छध्वं संवदध्वं” आधुनिक भारत के जीवन में इस मंत्र को सार्थक करने का साधन हिन्दी ही है। वास्तव में बिना राष्ट्रीय भाषा के पद पर आसीन हुए कोई भाषा इस योग्य हो ही नहीं सकती ।
उनके कारण
हिन्दी के विरोध में जितनी भी आवाजें आती रही हैं, उनके मूल प्रमुख कारण राजनैतिक में है। यदि शान्त हृदय से एकान्त में विरोधी भी विचार करते होंगे तो अन्तरात्मा यही कहती होगी कि देश का कल्याण हिन्दी के राष्ट्रभाषा मानने में ही है।
देश का बहुत बड़ा भाग अंग्रेजी को या अन्य किसी भारतीय भाषा को संस्कृति के आधार पर राष्ट्रभाषा स्वीकार करने को तैयार नहीं।
राष्ट्रभाषा ऐसी होनी चाहिये जो देशवासियों के लिये सरल एवं सुगम हो, जिसे न जानने वाले व्यक्ति भी थोड़े से प्रयास से सीख सकें।
हिन्दी का पंजाबी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भाषाओं से इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि इन भाषाओं के बोलने वाले बिना किसी प्रयास के हिन्दी समझ लेते हैं।
दक्षिण की कन्नड़, मलयालम और तेलुगू भाषाओं की वर्णमाला देवनागरी वर्णमाला ही है। इन तीनों भाषाओं में संस्कृत के शब्दों का प्राधान्य है।
हिन्दी संस्कृत की उत्तराधिकारिणी है। इस कारण वे भी हिन्दी सरलता से सीख सकते हैं।
केवल तमिल एक ऐसी भाषा है, जो हिन्दी से नितान्त भिन्न हैं। इस प्रकार विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है, जो राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन हो सकती है।
केन्द्रीय सरकार ने राज्य सरकारों को यह सुविधा प्रदान की है कि वे अपने राज्य का कार्य अपनी प्रादेशिक भाषाओं में कर सकती हैं।
बंगाल में बंगला, पंजाब में गुरमुखी तथा चेन्नई में तमिल राज्य-भाषा घोषित की जा चुकी हैं। इस प्रकार अन्य राज्यों में भी प्रान्तीय भाषाओं को राज्य भाषा बना दिया गया है।
प्रान्तीय भाषायें समृद्धिशालिनी हों, इसमें न केन्द्रीय सरकार को कोई आपत्ति है और न किसी अन्य व्यक्ति को ही।
हिन्दी केवल केन्द्रीय सरकार की राज-भाषा होगी। राज्य सरकारें अन्य राज्यों की सरकारों से या केन्द्रीय सरकार से पत्र-व्यवहार हिन्दी में करेंगी।
उपसंहार
हिन्दी को समृद्धिशाली एवं सम्पन्न बनाने के लिये हमारा यह कर्त्तव्य है कि हम उदार दृष्टिकोण अपनायें।
हिन्दी के द्वार प्रान्तीय भाषाओं के शब्दों के लिये खोल दें। इसके लिये हमें व्याकरण के नियमों को सुगम बनाना होगा।
तद्भव शब्दों का तत्सम शब्दों में परिवर्तन कर देने के कारण भाषा में जो कृत्रिमता आ गई है, उसे एकदम दूर करना होगा अन्यथा भाषा की जटिलता उत्तरोत्तर बढ़ती जायेगी।
शासन की ओर से पारिभाषिक शब्दों का जो निर्माण हुआ है, उनका प्रमाणीकरण अवश्य हो जाना चाहिये।
बाबू गुलाबराय ने इस विषय में कहा था,
“पारिभाषिक शब्दावली का सारे देश के लिये प्रमाणीकरण आवश्यक हो, क्योंकि जब तक हमारी शब्दावली सारे देश में न समझी जायेगी, तब तक न तो वैज्ञानिक क्षेत्रों में सहभागिता ही सम्भव हो सकेगी और न विद्यार्थी ही लाभ उठा सकेंगे।”
आशा है राष्ट्रभाषा हिन्दी समस्त देश को एक सूत्र में आबद्ध करके नवराष्ट्र के निर्माण में अपना पूर्ण सहयोग प्रदान कर सकेगी ।
परन्तु दुर्भाग्य है कि भारतवासियों के हृदय में हिन्दी के प्रति जो ममत्व 1947 के पूर्व था आज वह भूला बिसरा स्वप्न जैसा लगता है।
निज भाषा उन्नति सहै, सब उन्नति को मूल ।
बिनु निजभाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को शूल ॥
भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द की ये पंक्तियाँ कितनी सारगर्भित हैं इनमें कितना मर्म है और ये कितनी सारगर्भित हैं सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
वर्तमान स्थिति यह है कि दक्षिणी राज्यों में हिन्दी का विरोध मुखर हो रहा है। राजनीतिज्ञ हिन्दी विरोध की राजनीति कर रहे हैं।
सरकारी तन्त्र में हिन्दी की उपेक्षा कर अंग्रेजी को आधुनिकता का मापदण्ड माना जाता है। अंग्रेजी भाषी होना “स्टेटस सिम्बल” (Status symbol) माना जाता है।
हमें यह समझना होगा कि अंग्रेजी राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधे नहीं रख सकती। केवल हिन्दी ही इस कार्य के लिए सक्षम है और हिन्दी का भविष्य सुधारने की पर्याप्त सम्भावनाएँ हैं।
अब तो हिन्दी में कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर भी उपलब्ध हैं। शासन, प्रशासन, राजनेता, उद्यमी तथा जनता सभी को तन, मन, धन से हिन्दी को उसका उचित स्थान देने का प्रयास करना होगा।
हिन्दी राष्ट्र के भविष्य की नींव है अतः समय रहते हमें राष्ट्र की नींव को सुदृढ़ करना अपना कर्त्तव्य तथा धर्म समझना चाहिये।
आपको हमारी यह post कैसी लगी नीचे कमेन्ट करके अवश्य बताएं |
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स्वंतत्रता प्राप्ती से पूर्व राष्ट्र भाषा हिन्दी की स्थिती कैसी थी ?
अंग्रेजी पढ़ने, बोलने और लिखने में भारतीय गौरव का अनुभव करते थे। राज्य के समस्त कार्यों की भाषा अंग्रेजी ही थी ।
न्यायालयों के निर्णय, दफ्तरों की कागजी कार्यवाही, विश्वविद्यालयों की शिक्षा, शासकीय आज्ञाएँ सभी कुछ अंग्रेजी में होता था।
हिन्दी में लिखे गये प्रार्थना-पत्रों को फाड़कर रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाता था।
बेचारे भारतीय विवश होकर अच्छी नौकरी एवं शासन के मान की लालसा से अंग्रेजी पढ़ते थे। संस्कृत को तो ‘मृतभाषा’ की उपाधि प्रदान कर दी गई थी। एक प्रवाह था, एक धूम मची हुई थी, सारे देश में अंग्रेजी की |
राष्ट्र भाषा के पद पर आसीन होना |
पहली बात यह थी कि जिन विदेशियों के शासन को हमने मूलतः उखाड़ फेंका था, उनकी भाषा को यहाँ अपनाने का तात्पर्य यह था कि हम किसी-न-किसी रूप में उनकी दासता में फँसे रहें। परिणामस्वरूप अंग्रेजी का प्रश्न समाप्त हो गया।
अन्य प्रान्तीय भाषायें भी अपनी व्यापकता में हिन्दी से बहुत पीछे थीं।
हिन्दी के पक्ष में तर्क यह था कि सर्वप्रथम यह एक भारतीय भाषा है, दूसरी बात यह है कि जितनी संख्या हिन्दी भाषा-भाषी जनता की देश में है, उतनी अन्य किसी प्रान्तीय भाषा की नहीं।
तीसरी विशेषता यह है कि हिन्दी बोलने वालों की संख्या चाहे पन्द्रह करोड़ ही हो परन्तु समझने वालों की संख्या इससे कहीं अधिक है। देश के प्रत्येक अंचल में हिन्दी सरलता से समझी जाती है, भले ही लोग बोल न सकते हों।
चौथी बात यह कि हिन्दी भाषा अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में सरल है, इसमें शब्दों का प्रयोग तर्कपूर्ण है।
पाँचवीं विशेषता यह है कि इसकी लिपि वैज्ञानिक है और सुबोध है, जैसी बोली जाती है वैसी ही लिखी जाती है।
इसके अतिरिक्त सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक सभी प्रकार के कार्य व्यवहारों के संचालन की पूर्ण क्षमता है।
स्वंतत्रता प्राप्ती के पश्चात राष्ट्र भाषा हिन्दी की स्थिती कैसी थी ?
जब तक देश में अंग्रेज थे तब तक अंग्रेजी का स्ववश या परवश आदर होता था। परन्तु उनके जाने के पश्चात् यह सर्वथा अनुचित था कि देश के सारे राजकाज अंग्रेजी में हो।
अतः जब देश का संविधान बनने लगा तब प्रश्न यह उपस्थित हुआ कि देश की अपनी राष्ट्रभाषा कौन-सी हो, क्योंकि बिना राष्ट्रभाषा के कोई भी देश स्वतन्त्र होने का दावा नहीं कर सकता।
राष्ट्रभाषा स्वतंत्र राष्ट्र की तथा उसके समाज की समृद्धि की आधारशिला होती है । रूस, जापान, अमेरिका, ब्रिटेन आदि स्वतन्त्र देशों में अपनी-अपनी हैं।
राष्ट्रभाषा राष्ट्रभाषायें से देश के स्वतन्त्र अस्तित्व की रक्षा होती हैं। संविधान निर्माण काल में कुछ ऐसे भी व्यक्ति थे, जो अंग्रेजी को ही राष्ट्रभाषा बनाये रखने के पक्ष में थे।
इस विचार के वे भारतीय थे, जो अंग्रेजी साहित्य में निपुण थे, ऊँचे-ऊँचे पदों पर आसीन थे और जिन्हें हिन्दी पढ़ना या लिखना बिल्कुल नहीं आता था।
कुछ लोग अन्य प्रान्तीय भाषाओं के भी पक्ष में थे। भारतवर्ष में लगभग सौ से अधिक भाषायें हैं जिनमें हिन्दी, उर्दू, गुजराती, मराठी, बंगाली, तमिल और तेलुगू आदि प्रमुख हैं।
हिन्दी भाषा की विशेषताएं क्या हैं ?
राष्ट्रभाषा बनने के लिए यह आवश्यक है कि उस भाषा को देश की अधिसंख्यक जनता बोलती तथा समझती हो, साथ ही उस भाषा का क्षेत्रीय भाषाओं के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध हो ।
भारत में लगभग 60करोड़ नागरिक हिन्दी भाषी हैं अतः हिन्दी के अतिरिक्त अन्य कोई भाषा राष्ट्रभाषा का स्थान नहीं पा सकती।