हिन्दी काव्य/कविता में प्रकृति चित्रण | कवियों की दृष्टि में प्रकृति
नमस्कार मित्रों आज हम आप लोगों के लिए एक नया निबंध हिन्दी काव्य/कविता में प्रकृति चित्रण | कवियों की दृष्टि में प्रकृति लेकर आए हैं | उम्मीद करते हैं की आपको यह post आपको पसंद आएगी |
Table of Contents
रूपरेखा
- प्रस्तावना
- प्रकृति और मानव
- हिन्दी काव्य में प्रकृति चित्रण
- उपसंहार
प्रस्तावना
प्रकृति मानव की चिरसंगिनी रही है। अपने दैनिक जीवन के कृत्यों से मानव मन जब-जब ऊबा, तब-तब उसने प्रकृति का आश्रय लिया। उसने अनुभव किया कि प्रकृति उसके दुःख में दुःखी और सुख में सुखी हैं |
आकाश, सूर्य, तारागण, समुद्र, मेघ, बिजली, द्रुमलतायें, पशु-पक्षी, ऊषा की अरुणिमा, इन्द्रधनुष, हरियाली, ओसबिन्दु, लहराते खेत, नदी की उन्मत्त लहरों को देखकर उसे संघर्षमय जीवन के क्षणों में कुछ विश्राम मिला, आगे बढ़ने के लिये प्रेरणा और नई शक्ति प्राप्त हुई।
आज भी तारों से जगमगाते हुए आकाश एवं सरिता की उन्मादिनी तरंगों को देखकर मनुष्य की आत्मा आनन्द विभोर हो जाती है।
प्रातःकालीन ऊषा की लालिमा से रंजित ओस बिन्दुओं से मंडित हरियाली पर टहलते समय, वृक्षों की ऊंची-ऊंची शाखाओं पर बोलते हुए तथा आकाश में उड़ते पक्षियों को देखकर सहसा ही मन मयूर नृत्य करने लगता है। वह प्रकृति के प्रति आकर्षित होता है और अपना प्रेम प्रकट करता है |
प्रकृति और मानव
मनुष्य के हृदय पर प्रकृति के सौन्दर्य का चिरस्थायी प्रभाव पड़ता है। सावन और भादों के काले काले बादल, बसन्त की हरीतिमा, शरद पूर्णिमा का दुग्ध धवल ज्योत्स्ना, होली के अवसर पर पके पकाए गेहूं के स्वर्णिम खेत और उनमें क्रीड़ा संलग्न विभिन्न पक्षियों को देखकर सभी भावुक हृदय प्रसन्न हो उठते हैं। कवि की वाणी भी अपनी मधुर भाषा में प्रकृति की चिर-सुषमा को प्रकट कर देती है।
वैसे तो कविता जीवन की आलोचना है, व्याख्या है, मानवी सुख-दुःख उसके विषय है, परन्तु प्रकृति के साथ ऐक्य स्थापित करके अपने मन के भावों को प्रकाशित करने में कवि को विशेष आनन्द की प्राप्ति होती है।
हिन्दी काव्य में प्रकृति चित्रण
विश्व के अन्य साहित्यों की भाँति हिन्दी साहित्य में प्रकृति चित्रण को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
हिन्दी के आदि काल से लेकर आज तक भारतीय कवियों ने प्रकृति का किसी-न-किसी रूप में आश्रय ग्रहण किया है। चन्दबरदाई, विद्यापति, जायसी, तुलसी, सूर, बिहारी, देव, घनानन्द, भारतेन्दु, श्रीधर पाठक, रामचन्द्र शुक्ल, हरिऔध, प्रसाद पन्त, निराला आदि कवियों ने प्रकृति के साथ तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित करके प्रकृति के रस-माधुर्य से अपने काव्य को सरस बनाया है।
हिन्दी साहित्य में प्रकृति को विभिन्न रूपों में ग्रहण किया गया है।
कवियों की दृष्टि में प्रकृति
कवियों की दृष्टी में अलग अलग काल में प्रकृति के प्रति प्रेम में बढ़ोत्तरी होती गयी है |
वीरगाथा काल के कवियों की दृष्टि में प्रकृति
वीरगाथा काल में प्रकृति, अलंकार विधान एवं उद्दीपन के रूप में प्रयुक्त हुई। पृथ्वीराज रासो से एक उदाहरण अलंकार विधान पर प्रस्तुत किया जा रहा है –
कुटिल केस सुगेत पोह, परिचियउत पिक्क सदू,
कमलगन्ध, बयसँध हँसगति चलति मन्द मन्द |
सेत वस्त्र सोहे सरीर, नभ स्वाति बूँद जस,
भ्रमर भवहिं भुल्लहिं सुभाव, मकरन्द वास रस ॥
इसी प्रकार मैथिल कोकिल विद्यापति ने प्रकृति को उद्दीपन के रूप में ही ग्रहण किया है। विद्यापति के काव्य की विशेषता प्रकृति के कोमल एवं आकर्षक उपमानों के चयन में ही है।
भक्तिकाल राधा-कृष्ण विषयक शृंगारिक उद्दीपनों और प्रस्तुत योजना में ही प्रकृति का अंकन में हुआ, किन्तु उसे स्वतन्त्र स्थान प्राप्त न हो सका।
kabeer ki कविता में प्रकृति चित्रण
निर्गुण पंथ की ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख कवि कबीर ने उपदेश, रहस्य, अलंकार तथा प्रतीक के रूप में प्रकृति को ग्रहण किया है।
काहे री नलिनी तू कुन्हिलानी,
तेरे ही नाल सरोवर पानी । (प्रतीक)
नैना नीझर लाइया, रहट बसे निसि याम,
पपीहा ज्यौं पिव पिव करें, कबहुँ मिलहुगे राम। (अलंकार)
चुअत अमी रस भरत नाल, जँह शब्द उठे असमानी हो,
सरिता उपड़ि सिन्धु को सोख नहि कुछ जात बखानी हो। (रहस्य भावना)
जायसी के काव्य में प्रकृति-चित्रण
जायसी ने भी उद्दीपन के रूप में तथा रहस्य भावना की अभिव्यक्ति के रूप में प्रकृति का प्रयोग किया है। सूफी मत में प्रकृति को परब्रह्म परमेश्वर का प्रतिबिम्ब माना जाता है। इसलिये प्रकृति का कण-कण अपने प्रियतम से मिलने के लिये लालायित रहता है। सूर ने अपने काव्य में उद्दीपन और अलंकार के रूप में प्रकृति का जो वर्णन किया है, वह अद्वितीय है। उद्दीपन के रूप में सूर का यह प्रकृति-वर्णन अपनी तुलना नहीं रखता –
बिनु गोपाल बैरिन भई कुन्जैं,
तब ये लता लगति अति शीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुंजै।
वृथा बहति जमुना खग बोलत वृथा कमल फूलै अलि गुंजैं।
पवन, पानि, घनसार, सजीवनि-दधिसुत किरन भानुभई भुंजै ||
तुलसी के काव्य में प्रकृति-चित्रण
तुलसी ने उद्दीपन तथा अलंकार के अतिरिक्त प्रतीक, आलम्बन, उपदेश रूप का भी पर्याप्त प्रयोग किया। तुलसी का चातक और मेघ, भक्त और भगवान बड़े सुन्दर प्रतीक हैं। उपदेश रूप में तुलसी ने प्रकृति का सुन्दर प्रयोग किया है-
उदित अगस्त, पंथ जल सोखा। जिमि लोभहि सोखै सन्तोषा।
सरिता सर निर्मल जल सोहा संत हृदय जस गत मद मोहा ।।
रीतिकाल में बिहारी, देव, सेनापति, घनानन्द आदि कवियों को छोड़कर प्रायः प्रकृति के प्रति उत्साह का अभाव ही मिलता है।
केवल ऋतु वर्णन एवं बारह-मासा के रूप में ही उसके दर्शन होते हैं, वह भी केवल परम्परागत पद्धति के निर्वाह के लिये ही बिहारी का मन्द पवन वर्णन देखिये-
रनित भंग घंटावली झरत दान मधु नीर।
मन्द-मन्द आवत चल्यौ कुंजर कुंज समीर ।।
आचार्य केशव को प्रकृति के प्रति कोई विशेष प्रेम नहीं था। उन्होंने केवल कवि-कर्म पालन के लिये ही यत्र-तत्र केवल नाम गणनामात्र कराई है।
रीतिकाल के कवियों की दृष्टि में प्रकृति
रीतिकाल के अधिकांश कवियों ने प्रकृति का उद्दीपन के रूप में ही वर्णन किया है। सेनापति ने अवश्य प्रकृति के प्रति मौलिक प्रेम प्रकट किया , तब आलम्बन के रूप में उसका वर्णन किया।
रीतिकाल में अपने आश्रयदाताओं को अपने वाक् चातुर्य से प्रसन्न करने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझने वाले कविगण प्रकृति से निकट सम्पर्क स्थापित न कर सके। केवल यही उनकी दृष्टि में कवि-कर्म पालन था।
इस प्रकार प्रकृति निरूपण की दृष्टि से रीतिकालीन कविता सम्पन्न और समृद्ध दृष्टिगोचर नहीं होती।
भारतेन्दु युग के कवियों की दृष्टि में प्रकृति
भारतेन्दु युग में भक्ति की पुनरावृत्ति एवं देशभक्ति के कारण प्रकृति को पुनः अपनाया गया। इस काल के कवियों का प्रकृति के प्रति आकर्षण तो रहा, किन्तु उसमें मानवीय व्यापारों की ही प्रधानता रही रीतिकाल के अनुसार प्रकृति के उद्दीपन रूप का भी चित्रांकन किया गया।
भारतेन्दु के पश्चात पं० श्रीधर पाठक ने प्रकृति की द्रवण-शीलता का अनुभव किया। इन्होंने प्रकृति के उद्दीपन रूप में दाम्पत्य प्रेम और सात्विक भावों का समावेश करके सुन्दर नारी और जन्मदात्री माँ के रूप में अंकित किया।
आचार्य द्विवेदी के प्रभाव से नायिका भेद के स्थान पर सुमन, कृषक, प्रभात, हेमन्त आदि विषयों पर कवितायें हुई।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्रकृति के सौम्य और उम्र, कोमल और कर्कश रूपों का वर्णन किया।
मैथिलीशरण गुप्त तथा हरिऔध आदि कवियों ने प्रकृति को देश-प्रेम की पृष्ठभूमि तथा देश के अंग रूप में महत्त्व प्रदान किया। हरिऔध जी का सांध्य वर्णन देखिये-
दिवस का अवसान समीप था, गगन था कुछ लोहित हो चला,
तरु शिखा पर थी अब राजती, कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभा |
विपिन बीच विहंग वृन्द का कल निनाद विवर्थित था हुआ,
ध्वनिमयी विविधा विहंगावली, उड़ रही नम मण्डल मध्य थी ||
पं० रामनरेश त्रिपाठी ने उसमें चैतन्यारोपण किया एवं मानवीकरण की प्रतिष्ठा की छायावाद में आकर प्रसाद जी ‘झरने की लहर’ में रहस्यवाद के शीतल सुरभित समीर के साथ क्रीड़ा करने लगे।
प्रसाद जी आस्तिक होने के कारण परमात्मा को प्रकृति में व्याप्त देखते थे। इसी कारण उनकी प्रकृति सम्बन्धी सौन्दर्योपासना कुछ अधिक गम्भीर है। प्रकृति के हृदय को विकसित करने की स्वाभाविक शक्ति के विषय में प्रसाद जी कहते हैं –
नील नीरद देखकर आकाश में, क्यों खड़ा चातक रहा किस आस में।
क्यों चकोरी को हुआ उल्लास है, क्या कलानिधि का अपूर्व विकास है ||
परन्तु प्राकृतिक सौन्दर्य का अपूर्वानन्द प्राप्त करने के लिए हृदय में भी भावुकता चाहिए।
प्रसाद जी का विचार है कि –
बना लो, अपना हृदय प्रशान्त, तनिक तब देखो वह सौन्दर्य ।
प्रसाद जी प्रकृति को कभी परमात्मा के सौन्दर्य की झलक मानते हैं, कभी वे उसे लीलामय की क्रीड़ा के रूप में देखते हैं और कभी परमात्मा के रहस्य को दुर्भेद्य रखने के लिये अवगुंठन रूप मानते हैं।
कामायनी में इस भावना का प्रत्यक्षीकरण होता है। प्रसाद जी के प्रकृति चित्रण में मानवीकरण का आरोप है। कामायनी तो प्रकृति चित्रण का भण्डार है।
अम्बर पनघट में डुबो रही, तारा घट ऊषा नागरी।
निराला जी की ओजस्वी वाणी ने प्रकृति में शक्ति का संचार किया। वे प्रकृति निरूपण क्षेत्र में कभी दार्शनिक बन जाते हैं और कभी भावुक भक्त। ‘ जागो फिर एक बार ‘, ‘ पंचवटी प्रसंग ‘, ‘ जागरण ‘ आदि कवितायें उनके दार्शनिक सिद्धान्तों से पूर्ण हैं। अनवरत चिन्तन, अतिशय प्रेम और भक्ति की पवित्र भावना के बाद इनकी अन्तरात्मा पुकार उठती है-
मन के तिनके, नहीं जले अब तक भी जिनके,
देखा नहीं उन्होंने अब तक कोना-कोना, अपने जीवन का।
निराला जी की आनन्दानुभूति जड़ प्रकृति को भी चेतन बना देती है, प्रकृति और मानव का तादात्म्य हो जाता है। संध्या सुन्दरी, शरद पूर्णिमा की विदाई, जुही की कली, शेफालिका आदि कविताओं में मानव व्यापारों से पूर्ण प्रकृति के दर्शन होते हैं-
बिजन बल बल्लरी पर, सोती थी,
सुहाग भरी स्नेह स्वप्न मग्न,
अमल कोमल तनु तरुणी जुही की कली ॥
प्रकृति सुकुमार कवि पंत की कविता में प्रकृति चित्रण
प्रकृति सुकुमार कवि पंत प्रकृति की गोद में पले होने के कारण प्रकृति के अनन्य उपासक के ही नहीं वरन् अनन्य मित्र बन गये हैं। ये कभी प्रकृति को मस्त, कभी संतप्त, कभी प्रफुल्लित और उल्लास एवं अनुरागपूर्ण देखते हैं। पंत जी के प्रकृति वर्णन में मानव और प्रकृति का तादात्म्य है।
चराचर प्रकृति मानव के साथ मिलकर एकरूपता प्राप्त कर लेती है। मधुपकुमारियों का मधुकर गान उन्हें मुग्ध कर देता है। वे प्रार्थना कर उठते हैं-
सिखा दो ना हे मधुप कुमारि, मुझे भी अपने मीठे गान।
प्रकृति का प्रत्येक व्यापार उनके मन में आश्चर्य के भाव उदित कर देता है। ऊषा उनके हृदय में उत्साह भर देती है। अचानक बाल विहंगिनी का स्वर्गिक गान सुनकर आश्चर्यचकित होकर प्रश्न करते हैं—
प्रथम रश्मि का आना रंगिणि तूने कैसे पहिचाना?
” नौका विहार “ नामक कविता में गंगा की शांत धारा का एक लेटी हुई शान्त क्लान्त बाला के रूप में कैसा सुन्दर वर्णन किया है-
सैकत शैय्या पर दुग्ध धवल, तन्वंगी गंगा ग्रीष्म विकल,
लेटी है श्रान्त, क्लान्त, निश्चल |
गोरे अंगों पर सिहर-सिहर लहराता तार तरल सुन्दर,
चंचल अंचल सा निलाम्बर ॥
सूखे हुए वृक्ष पर कली खिली है, मुस्कुराती है। वह मानव को उपदेश देती है कि दुःख को भी हँसकर सहन करना चाहिये। मानव प्रयत्न करने पर भी इसका पालन नहीं कर पाता। कवि विवश होकर कहता है-
वन की सूखी डाली पर, सीखा कलि ने मुस्काना।
मैं सीख न पाया अब तक, सुख से दुःख को अपनाना ॥
कवि प्रकृति में मनोरम और विस्तृत क्षेत्र के ममत्व परित्याग करके मानव सौन्दर्य की संकुचित सीमा में बन्दी नहीं होना चाहता-
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया।
बाले, तेरे बाल जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन, भूल अभी से इस जग को ॥
पं० रामनरेश त्रिपाठी की कविता में प्रकृति चित्रण
पं० रामनरेश त्रिपाठी ने प्रकृति में सत्ता का एक गूढ़ गम्भीर रहस्य अनुभव किया, इस प्रवृत्ति लण ने प्रकृति चित्रण में विशेष सजीवता, सौन्दर्य और मोहकता उत्पन्न कर दी। त्रिपाठी जी की कविता का उदाहरण देखिये, जिसमें रहस्य के प्रति जिज्ञासा के भाव दृष्टिगोचर हो रहे हैं-
है वह कौन रूप, आकार, जिसके मुख की काँति मनोहर,
देखा करती है सागर की व्यग्र तरंगें, उचक-उचक कर।
घन में किस प्रियतम से चपला करती है, विनोद हँस-हँसकर,
किसके लिए ऊषा उठती है, प्रतिदिन कर शृंगार मनोहर ।।
महादेवी जी में भी प्रकृति चित्रण की अपूर्व क्षमता है। प्रकृति का भयावह रूप देखकर वह चिन्तित हो उठती हैं—
घोरतम छाया चारों ओर घटायें घिर आई घनघोर,
वेग मारुत का है प्रतिकूल हिले जाते हैं पर्वत मूल,
गरजता सागर बारम्बार, कौन पहुँचा देगा उस पार ॥
इनके अतिरिक्त डॉ० रामकुमार वर्मा, भगवतीचरण वर्मा आदि कवियों ने भी प्रकृति चित्रण किया है। डॉ० वर्मा ने ‘तारों भरी रात’ का कैसा सुन्दर चित्र खींचा है-
इस सोते संसार बीच, जगकर सजकर रजनी बाले।
कहाँ बेचने ले जाती हो, ये गजरे तारों वाले।
कौन करेगा मोल, सो रही हैं उत्सुक आँखें सारी ।।
छायावादी कवियों की दृष्टि में प्रकृति
छायावादी कवियों ने भी प्रकृति का सहारा लिया है। वृक्ष की छाया को सम्बोधित कर कवि कह उठता है-
कहो कौन हो दमयन्ती सी तुम तरु के नीचे सोई।
हाय! तुम्हें भी छोड़ गया क्या अलि! नल सा निष्ठुर कोई ।।
उपसंहार
हमारे हिन्दी काव्य के सभी कवियों ने अपने काव्यों में प्रकृति को बड़े ही मानवीकरण रूप से दर्शाया है, जिससे काव्य अत्यधिक आकर्षित लगता है व मनुष्य काव्य को पढ़ने के लिए अत्यधिक उत्सुक हो जाता है , और इस प्रकृति का मानवीकरण प्रकृति चित्रण को पढ़ कर मनुष्य का ह्रदय आनंद विभोर हो उठाता है जिसके कारण वह प्रकृति को एक अलग नजरिये से देखने का प्रयास करता है |
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